Caste Politics by Modi: जातियों की धार्मिक आस्था को साधने में लगे मोदी
मोदी को यह समझ आ चुका है कि जातियों की आस्था को साधना जरूरी है। जैसे उन्हें गंगा मैया ने राजनीति करने के लिए बुलाया था, उसी तरह मानगढ़ धाम ने भी बुलाया था, और अब भगवान देवनारायण मन्दिर में यात्रा के भी राजनीतिक मायने हैं।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ के चुनाव अभी दस महीने दूर हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान से चुनावी बिगुल बजा दिया है। कहने के लिए भाजपा और नरेंद्र मोदी भले दावा करें कि वह 28 जनवरी को भगवान देवनारायण की जयंती पर किसी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं गए थे। उस दिन गुर्जरों के आराध्य देवता भगवान देवनारायण की 1111वीं जयंती थी।
भाजपा ने राजस्थान में पिछली बार 9 गुर्जर उम्मीदवार उतारे थे, सभी 9 चारों खाने चित हुए थे। जबकि कांग्रेस के 12 गुर्जर उम्मीदवारों में से 7 जीत गए थे, एक बसपा का गुर्जर भी जीता था, वह भी बाद में कांग्रेस में शामिल हो गया था। पिछली बार गुर्जरों ने इस उम्मीद में कांग्रेस को वोट दिया था कि कांग्रेस उनके जातीय नेता सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाएगी। पर कांग्रेस ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, तो गुर्जर कांग्रेस से खफा हैं। इसलिए भाजपा यह मानकर चल रही है कि सचिन पायलट के कांग्रेस में होने के बावजूद बाजी पलट सकती है। थोड़ा जोर लगा दिया जाए, तो बात बन सकती है।
भाजपा ने इसीलिए गुर्जरों के आराध्य देवता के मन्दिर की संचालन समिति को साधा कि वह भगवान देव नारायण की जयंती पर प्रधानमंत्री को बुलाएं। संचालन समिति ने न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाया, बल्कि कांग्रेस के किसी नेता को भी नहीं बुलाया। नरेंद्र मोदी ने पूजा अर्चना करने के बाद जब प्रदेश भर से जुटाए गए गुर्जरों को संबोधित किया, तो कहा कि वह राजनीतिक उद्देश्य से नहीं आए, भगवान देवनारायण ने बुलाया, तो वह चले आए। बिलकुल वैसे ही जैसे 2014 में उन्हें मां गंगा ने वाराणसी बुलाया था। नरेंद्र मोदी की सफलता का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह सामूहिक तौर लोगों को उनकी भावनाओं के साथ जोड़ लेते हैं।
अपने भाषण में मोदी ने राजस्थान और राजस्थानियों के गौरवपूर्ण इतिहास की तारीफ़ तो की ही, गुर्जरों और राजपूतों की भी तारीफ़ की, क्योंकि अगर भाजपा को गुर्जर वोट चाहिए, तो राजपूत भी साथ रखने हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि वह राजनीति करने नहीं आए, लेकिन इतना बड़ा कार्यक्रम भाजपा का शक्ति प्रदर्शन था। नरेंद्र मोदी ने जी-20 के चिन्ह में कमल का जिक्र करते हुए भगवान देव नारायण से जोड़ा, और फिर बताया कि वे तो जन्मजात कमल वाले हैं। एक गैर राजनीतिक रैली में किस किस प्रकार प्रतीकों का जिक्र करके अपनी बात कहनी है, यह नरेंद्र मोदी से बेहतर कौन जानता है।
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नरेंद्र मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा को इस बार राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में जातीय कार्ड खेलना ही पड़ेगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पिछली बार इन तीनों ही राज्यों में हिंदुत्व का कार्ड फेल हो गया था। राजस्थान में तो भाजपा की टिकट पर दो महंत चुनाव हार गए थे। वसुंधरा राजे ने चुनावों के दौरान 24 मन्दिरों के दर्शन करके हिंदुत्व की अलख जगाई थी। नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ज्यादा रैलियाँ योगी आदित्यनाथ की हुई थीं। फिर भी भाजपा हारी, तो इसलिए क्योंकि जातियों को नहीं साध सकी, जैसे कि कर्नाटक में लिंगायत साधे हुए हैं।
राजस्थान में गुर्जरों से ज्यादा जाट महत्वपूर्ण हैं। पिछली बार 21 जाट विधानसभा में पहुंचे थे, जिनमें से 11 कांग्रेस के और 8 भाजपा के थे। इसलिए दोनों राजनीतिक दलों ने जाट प्रदेश अध्यक्ष बना रखे हैं। कांग्रेस सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहती है, लेकिन उसके सामने संकट यह है कि चुनावों से पहले जाट अध्यक्ष डोटासरा को हटा दिया, तो जाट नाराज हो जाएंगे। भाजपा ने भी जाट विधायक सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है।
लेकिन अधिकांश युवा जाट मतदाता राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल के साथ हैं, जो पिछले चुनावों में भाजपा को अप्रत्यक्ष सहयोग कर रहे थे और भाजपा के सहयोगी के रूप में सासंद बने थे। इस बार बेनीवाल की अशोक गहलोत से पटरी बैठ रही है। इसलिए भाजपा को जाट वोट लेने के लिए सही उम्मीदवार चुनने होंगे। वैसे भी जाट मतदाता पार्टी को नहीं, बल्कि अपनी जाति के मजबूत उम्मीदवार को वोट देते हैं, भले ही वह किसी भी पार्टी से लड़ रहा हो।
उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में जातीय कार्ड खेलना भाजपा की मजबूरी हो गया है। राजस्थान की ही बात करें, तो पिछली बार बड़ी संख्या में गुर्जर, जाट और आदिवासी मतदाताओं ने क्रमश: कांग्रेस, रालोपा और ट्राइबल पार्टी को वोट दिए थे। इसलिए इस बार भाजपा की रणनीति इन जातियों के आस्था केंद्रों को साधने की है। गुजरात में भी यही स्थिति पैदा हो गई थी।
इसीलिए गुजरात विधान सभा चुनावों से पहले एक नवंबर को मोदी आदिवासियों के बड़े तीर्थस्थल मानगढ़ धाम गए थे। मानगढ़ गुजरात की सीमा पर राजस्थान में है। गुजरात में इसका असर हुआ, और भाजपा आदिवासियों की आरक्षित 27 सीटों में से 23 जीत गई, जबकि 2017 में सिर्फ 9 जीत पाई थी। भाजपा 2018 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में आदिवासियों के कारण भी हारी थी। 2018 में इन तीनों राज्यों में भी गुजरात की तरह आदिवासी आरक्षित सीटें कम आई थीं।
मध्य प्रदेश की आदिवासी आरक्षित 47 सीटों में से कांग्रेस 30 सीटें जीत गईं थी, जबकि भाजपा को सिर्फ 17 सीटें मिलीं थी। छतीसगढ़ में तो भाजपा का और बुरा हाल हुआ था। 29 आदिवासी आरक्षित सीटों में से कांग्रेस को 27 और भाजपा को सिर्फ 2 सीटें मिली, राजस्थान में मुकाबला लगभग बराबरी पर रहा था, जहां आरक्षित 29 सीटों में से कांग्रेस को 13 और भाजपा को 14 सीटें मिलीं थीं।
अब भाजपा की कोशिश गुजरात से शुरू हुए ट्रेंड को बरकरार रखने की है। अगर यह ट्रेंड बरकरार रहता है, तो भाजपा बाकी के तीनों राज्यों में भी आदिवासी सीटों पर बढत हासिल कर सकती है। मोदी मुहं से बोले या न बोले , लेकिन उन्हें समझ आ चुका है कि जातियों की आस्था को साधना भी जरूरी है। जैसे उन्हें गंगा मैया ने राजनीति करने के लिए बुलाया था, उसी तरह मानगढ़ धाम ने भी राजनीति के लिए भी बुलाया था, और अब भगवान देवनारायण मन्दिर में यात्रा के भी राजनीतिक मायने हैं।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)