'आदिपुरुष' फिल्म की एक झलक से इतनी निराशा क्यों?
दशहरे के ठीक पहले "आदिपुरुष" की एक झलक संभवत: इसलिए दिखायी गयी क्योंकि इस फिल्म की कहानी प्रभु श्रीरामचंद्र के जीवन से जुड़ी हुई है। फिल्म अगले साल रिलीज होगी। लेकिन यू ट्यूब पर जारी पौने दो मिनट की झलक देखकर निराश हुए कुछ लोग सोशल मीडिया पर आलोचना पर उतर आये।
किसी ने कहा कि इसके राम तो श्रीराम जैसे लगते ही नहीं। हनुमान भी हनुमान न होकर किसी मुंह फुलाये इमाम जैसे दिखते हैं। आखिर क्या कारण रहा होगा कि सैकड़ों करोड़ के खर्च और लगातार माहौल बनाने के प्रयासों के बाद भी आदिपुरुष लोगों को हजम नहीं हो रही?
"आदिपुरुष" फिल्म का जो टीज़र दिखा उसमें कलाकारों ने पायजामे जैसी, सिली हुई एक धोती पहनी है। जाहिर सी बात है कि धोती पहननी उतने अच्छे तरीके से नहीं आती होगी। उतना अभ्यास तो आज किसी को धोती पहनने का हो, ये मुश्किल है।
चरित्र में घुसने के लिए संभवतः किसी कुटी में जमीन पर सोना था। वन जैसी अवस्था में रहना था। धनुष चलाना था। स्वयं के बाल बढ़ाकर या लगातार जटाएं रखकर, जैसे श्रीराम पूरे मार्ग में ऋषि मुनियों से मिलते जाते थे, वैसे साधुओं से मिलते रहते तो समझ आता कि मानसिक अवस्था क्या रही होगी। भारत में जहाँ फ़िल्मी सितारे पूजे जाते हैं, वहाँ इतने प्रयास-अभ्यास की उम्मीद ही बेमानी है।
ऐसे में आदिपुरुष के राम अगर श्रीराम जैसे नहीं दिखे, तो चौंकना क्यों है? जैसे कोई भी वस्तु सिर्फ अच्छी या केवल बुरी, एक ही गुण से लैस नहीं होती, थोड़ी अच्छी थोड़ी बुरी, दोनों साथ साथ होती है, वैसा ही फिल्म में भी हुआ होगा। वयस्कों के लिए हो सकता है कि फिल्म उतनी रोचक न बन पड़ी हो लेकिन भारत के घरों में बच्चे भी तो हैं। उन्हें राम-कथा सुनाई जा सके इसके लिए दादी-नानी वाली पीढ़ी अक्सर शहरों में नहीं होती।
श्रीराम की कथा एक एनीमेशन वाली फिल्म के माध्यम से दिखा दी जाये तो फिर ये हो सकता है कि पुस्तकों से राम-कथा पढ़ लेने में उनकी रूचि जागे। फिल्म अगर आप भी बच्चों के साथ देख रहे होंगे तो फिल्म देखकर उनके मन में क्या प्रश्न उठे, फिल्म में क्या था जो कम सही था, ये आप बता पाएंगे।
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इसके अलावा रामचरितमानस आज हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में उपलब्ध है। जिस वाल्मीकि रामायण पर ये फिल्म आधारित बताई जाती है, वो भी आसानी से गीता प्रेस से हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में अनुवाद के साथ उपलब्ध है।
अंग्रेजी में वाल्मीकि रामायण के क्रिटिकल एडिशन का अनुवाद हाल ही में बिबेक देबरॉय ने किया है। बिबेक देबरॉय के अनुवाद में केवल अंग्रेजी है, गीता प्रेस वाले की तरह संस्कृत श्लोक साथ में नहीं हैं। इन्हें स्वयं भी पढा जा सकता हैं और अगली पीढ़ी के भी काम आ जायेगा।
वर्षों से जिनका केवल नाम भर सुना है, ऐसी पुस्तकों को पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि उन पर जो आक्षेप कभी तथाकथित नारीवादी तो कभी दलित चिन्तक लगाते रहे हैं, उनमें से कोई सत्य ही नहीं है। देवदत्त पट्टनायक जैसे लोग आजकल की पीढ़ी को जो उल्टा-सीधा सिखाते हैं, उससे बचने का मौक़ा भी मिल जाएगा।
फिल्मों के बदले अगर साहित्य की बात करें तो रामकथा पर "अभ्युदय" लिखने के लिए विख्यात नरेंद्र कोहली जी याद आते हैं। एक चर्चा के दौरान जब उनसे श्रीराम के विषय में पूछा गया तो उन्होंने पत्रकार से वापस पूछा कि पहले ये बताओ कि किसके राम के बारे में पूछ रहे हो? वाल्मीकि के राम अलग थे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे, जबकि तुलसीदास के राम भिन्न थे, वो मनुष्य से ऊपर - अवतार थे।
आधुनिक काल में अगर आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखित "वयं रक्षामः" पढ़ें तो वहाँ रावण का चरित्र जैसे गढ़ा गया है, वो भी शायद शुद्धतावादियों को न पचे। शृंखला के रूप में राम कथा पर ही आधारित सुलभ अग्निहोत्री ने कई अलग अलग ग्रंथों के आधार पर अपने उपन्यास की रचना की है। वहाँ भी शुद्धतावादियों को कथा पचाने में दिक्कत होगी, लेकिन चूँकि वहाँ पौराणिक सन्दर्भ हैं, इसलिए विवाद के लिए जगह कम बचती है।
स्वयं नरेंद्र कोहली जी ने जो "अभ्युदय" लिखी, उसमें अवतार की दैविक शक्तियां नहीं दर्शायी गयी हैं। वो वैज्ञानिक तरीके से घटनाओं को समझाने का प्रयास करते दिखते हैं। आचार्य विद्यानिवास मिश्र के लेखन में लोक संस्कृति में जो राम दिखते हैं उसकी बात होती है, शुद्धतावादियों के राम वहाँ भी नहीं मिलेंगे।
हाल में अंग्रेजी में राम कथा के आधार पर अमिश ने अंग्रेजी में शृंखला लिखनी शुरू की। उनकी सीता पर आधारित खंड का नाम "सीता - द वारियर ऑफ मिथिला" है, यानि मिथिला की योद्धा के रूप में सीता को दर्शाया गया है। इस पुस्तक पर भी शुद्धतावादियों को आपत्ति रही है, लेकिन युवा पीढ़ी ने इसे हाथों हाथ लिया।
समय के साथ होने वाले बदलावों को ही नहीं, क्षेत्र के हिसाब से होने वाले बदलावों को स्वीकारना भी शुद्धतावादियों के लिए कठिन रहा है। उदाहरण के लिए कृतिवास रामायण (बांग्ला भाषा) में सात नहीं छह ही काण्ड हैं, इस पर भी शायद आपत्ति हो जाए।
सिर्फ वेशभूषा की ही बात कर लें तो सीता-राम-लक्ष्मण की जो मूर्तियाँ दक्षिण भारत में सदियों से उपलब्ध हैं, उन्हें देख लीजिये। उनमें राम-लक्ष्मण के मुकुट का प्रकार आमतौर पर फिल्मों में या उत्तर भारत में दिखाए जाने वाले मुकुट से सर्वथा भिन्न है। किसी को उस मुकुट पर भी आपत्ति हो सकती है।
कोई दूसरे ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें माता सीता की वेशभूषा पर आपत्ति हो जाये। संभवतः इसका कारण मैकोले मॉडल में पढ़ाई करना होता है।
कुछ दूसरे रिलिजन-मजहब अपने देवताओं को केवल एक ही स्वरुप में दर्शाते हैं, या उनका चित्र आदि बनाने को ही प्रतिबंधित रखते हैं। ऐसे में अलग-अलग संस्कृतियों में उनके अलग स्वरुप हो ही नहीं सकते। ब्रिटेन में मूर्ती बने तो भी गौर वर्ण होगी, अफ्रिका में बने तो भी गोरी ही होगी। ऐसी पद्दति में करीब डेढ़ दशक पढ़ाई करने के बाद भगवान सिंह की पुस्तक जैसे "अपने अपने राम" भी हो सकते हैं, ये सोच पाना ही कठिन है।
राम तो युग युगांतर के लिए हैं। उनका चरित्र अविचल है लेकिन उनके चरित्र पर बननेवाले चलचित्र उनके जैसे हों, ये जरूरी तो नहीं। दशहरे के मौके पर पूरे उत्तर भारत में गांव गांव रामलीला होती हैं। क्या हम कह सकते हैं कि सब जगह हर कलाकार बहुत उम्दा प्रदर्शन करते हैं? उनके कमजोर प्रदर्शन से हम ये तो नहीं कह सकते कि रामलीलाओं का मंचन ही बंद कर दिया जाना चाहिए। आदिपुरुष पर आपत्ति करनेवालों को भी इसे ऐसे ही देखना चाहिए।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)