इंडिया गेट से: विपक्ष की राजनीति का संकेत देती पांच घटनाएं
देश की राजनीति में बड़ी तेजी से उथल पुथल हो रही है। पिछले एक हफ्ते में ही पांच बड़ी घटनाएं हुई। इन पाँचों घटनाओं का ताल्लुक डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से है। पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया कि इतनी पहले लोकसभा चुनावों की जोड़तोड़ शुरू हो जाए। पहले जान लेते हैं कि ये पांच घटनाएं क्या हैं और फिर समझते हैं कि इन पाँचों घटनाओं का भविष्य की राजनीति पर क्या असर होगा। पहली घटना यह है कि नीतिश कुमार की तरफ से एलान हुआ है कि वह लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और यूपी की फूलपुर सीट से लड़ेंगे। हालांकि सीट मिर्जापुर या अंबेडकर नगर भी हो सकती है।
दूसरी घटना यह हुई कि अरविन्द केजरीवाल ने विपक्षी एकता में शामिल होने से इनकार कर दिया है। उन्होंने कहा कि वह इस तरह की जोड़तोड़ की राजनीति में विश्वास नहीं रखते। तीसरी घटना यह हुई कि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करने की बात कही है। उन्होंने नीतीश कुमार की दावेदारी को यह कह कर रिजेक्ट कर दिया कि उन्हें बिहार के बाहर कौन जानता है।
चौथी घटना यह हुई कि ममता बनर्जी ने आरएसएस की तारीफ़ करने के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी तारीफ़ की है। उन्होंने कहा कि वह यह नहीं मानती कि नरेंद्र मोदी सीबीआई और ईडी का दुरूपयोग कर रहे हैं। भाजपा के कुछ बड़े नेता सीबीआई और ईडी का दुरूपयोग करवा रहे हैं। उनका इशारा अमित शाह की और था। पांचवी घटना यह हुई है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के इच्छुक शशि थरूर को बुला कर सोनिया गांधी ने बात की है।
इन सभी पांचों घटनाओं का ताल्लुक राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से है। हम एक एक कर इन्हें समझने की कोशिश करते हैं। सब से पहले नीतीश कुमार की बात करते हैं। राहुल गांधी की भारत यात्रा 2 अक्टूबर से शुरू होनी थी, लेकिन जब नीतीश कुमार विपक्षी नेताओं से मेल मुलाकातें कर खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने लगे तो राहुल गांधी की भारत यात्रा सितंबर महीने में ही शुरू करवा दी गई। ताकि चुनाव आते आते उन की राष्ट्रीय पहचान को विपक्ष नजरअंदाज न कर सके।
नीतीश कुमार ने जब यह देखा कि राहुल गांधी की भारत यात्रा का भविष्य की राजनीति पर असर होगा तो विपक्षी एकता की बात करते करते अचानक उन्होंने यूपी से लोकसभा का चुनाव लड़ने का एलान करके खुद को पीएम पद का दावेदार घोषित कर लिया। पहले वह कह रहे थे कि सब मिल कर चुनाव लड़ें, प्रधानमंत्री के बारे में फैसला चुनाव नतीजों के बाद करेंगे। उनका यह फैसला इस संकेत के बाद आया कि कांग्रेस राहुल गांधी को आगे रख कर ही चुनाव लड़ेगी।
अब हम दूसरी घटना पर बात करते हैं। अरविन्द केजरीवाल ने नीतीश कुमार से मुलाक़ात के बाद यह कहते हुए विपक्षी एकता का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया कि वह जोड़तोड़ की राजनीति में विशवास नहीं रखते। वह लंबे समय से कोशिश कर रहे थे विपक्ष उन्हें सामने रख कर लोकसभा का चुनाव लडे। लेकिन केजरीवाल का अब तक विस्तार कांग्रेस की कीमत पर हुआ है।
दिल्ली , गोवा और पंजाब में कांग्रेस को नुकसान पहुँचाने के बाद अब वह गुजरात और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जड़ों में मठ्ठा डालने जा रहे हैं। इसलिए कांग्रेस ने उनसे किसी तरह का तालमेल करने से ही इनकार कर दिया। नीतीश कुमार, शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी उन्हें भारतीय राजनीति में गंभीर नेता मानने से इनकार कर दिया। इसलिए केजरीवाल ने अकेला चल कर आम आदमी पार्टी को आगे बढाने का फैसला किया है। केजरीवाल का लक्ष्य गुजरात और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को पीछे करके प्रमुख विपक्षी दल बनना हो गया है।
तीसरी घटना यह हुई है कि उमर अब्दुल्ला ने राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की बात कही है। उन्होंने नीतीश कुमार, ममता बनर्जी या केजरीवाल को नरेंद्र मोदी का विकल्प मानने से इंकार कर दिया। उनका यह बयान समूचे विपक्ष को संदेश है कि अगर वे सच में नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करना चाहते हैं, तो उन्हें कांग्रेस के पीछे लामबंद होना पड़ेगा, क्योंकि वही एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है, जिस का ग्राफ गिरने के बावजूद अभी भी वह विपक्षी दलों में सब से ज्यादा प्रभाव रखने वाली पार्टी है।
उनसे सवाल यह पूछा गया था कि वह राहुल गांधी, नीतीश कुमार या केजरीवाल में से किसे विपक्ष की तरफ से प्रोजेक्ट किए जाने का समर्थन करेंगे। हाँ, वह इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि प्रधानमंत्री का फैसला चुनाव बाद की स्थिति पर छोड़ दिया जाए, लेकिन अगर किसी को प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ना है, तो वह राहुल गांधी हैं, नीतीश कुमार को तो उन्होंने पूरी तरह रिजेक्ट कर दिया।
चौथी घटना में ममता बनर्जी ने आरएसएस की तारीफ़ के बाद नरेंद्र मोदी की तारीफ़ की है। 19 सितंबर को विधानसभा में सीबीआई और ईडी के खिलाफ प्रस्ताव पास किए जाते वक्त ममता ने नरेंद्र मोदी की तारीफ़ की। यह आश्चर्यजनक है क्योंकि बंगाल में भाजपा प्रमुख विपक्षी दल है, और कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा था कि वह नीतीश कुमार और अखिलेश यादव के साथ मिल कर लोकसभा में भाजपा की सौ सीटें घटाने की क्षमता रखती हैं।
ममता के रुख में परिवर्तन के दो बड़े कारण हैं । पहला यह है कि कांग्रेस ने ममता बनर्जी को विपक्ष के चेहरे के तौर पर मान्यता देने से इनकार कर दिया है। भारत यात्रा के दौरान ही जयराम रमेश ने कोलकात्ता जाकर ममता की कड़ी आलोचना की है। दूसरा कारण यह है कि ममता बनर्जी का भतीजा अभिषेक बनर्जी सीबीआई और ईडी के राडार पर है। ममता इससे डरी हुई हैं। क्योंकि सीबीआई और ईडी एक एक कर उनकी सरकार के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार को उजागर कर रही हैं। इसलिए ममता बीच का रास्ता अपना रही हैं।
पांचवीं घटना है शशि थरूर की सोनिया गांधी से मुलाक़ात। खबर यह आई है कि उन्होंने सोनिया गांधी से कहा कि वह अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते हैं, इस पर सोनिया गांधी ने उन्हें कहा कि यह उनकी मर्जी है। अगर सिर्फ इतना ही है तो इसका मतलब है कि सोनिया गांधी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। लेकिन राहुल गांधी को भारत यात्रा पर भेजने से एक बात तो स्पष्ट है कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को स्थापित करने की कोशिश अभी छोडी नहीं है। सिर्फ रणनीति में बदलाव किया है।
बदलाव यह है कि राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की बजाए जननेता बनाया जाए, ताकि नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में जनता से ही आवाज उठे, जिससे बाकी सभी दावेदार खामोश हो जाएं। ऐसा सोनिया गांधी अशोक गहलोत जैसे किसी वफादार को पार्टी अध्यक्ष पद की कुर्सी पर बिठा कर भी कर सकती हैं। शशि थरूर अगर अशोक गहलोत के मुकाबले पर चुनाव लड़ते हैं, तो रणनीति के हिसाब से यह अच्छा ही है, क्योंकि फिर गहलोत गांधी परिवार के थोपे हुए अध्यक्ष नहीं माने जाएंगे, बल्कि जीते हुए अध्यक्ष माने जाएंगे।
इसलिए सोनिया गांधी की यह रणनीति है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो। जनता को विकल्प का संदेश देने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद राहुल गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता और अधीर रंजन चौधरी को कोई और जिम्मेदारी दी जा सकती है। वैसे भी अधीर रंजन चौधरी अभी बंगाल प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं। तो सोनिया गांधी भले ही बीमार हैं, भले ही 75 साल की हो चुकी हैं, लेकिन उनका लक्ष्य लोकसभा चुनावों से पहले पहले विपक्षी नेताओं को राहुल गांधी के पक्ष में लामबंद करना है, और वह उसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं।
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