यूपी की 'अजब' राजनीति में SP-RLD की 'गजब' रणनीति क्या है ? जानिए
लखनऊ, 31 जनवरी: राजनीति अपने आप में 'अजीब' चीज है और उसमें अगर यूपी की बात हो तो कहना ही क्या। यहां जातीय आधार पर समीकरण साधने की परंपरा हमेशा से रही है। लिहाजा, अब ऐसा नहीं हो तो इसका कोई कारण नहीं है। अंतर ये है कि अब तो पार्टियां ही जातियों पर आधारित बनने लगी हैं। जिस जाति का नेता, उसी जाति की पार्टी। दिलचस्प बात ये है कि डंके की चोट पर जातियों की राजनीति होती है और उसे सही ठहराने के लिए उल्टे-सीधे तर्कों की भी कमी नहीं होती। इस बार यूपी चुनाव में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी की खूब चर्चा हो रही है। 2017 में भी एक जोड़ी खूब चर्चित हुई थी। लेकिन, इस बार माहौल थोड़ा अलग है और किसान आंदोलन की वजह से दावा किया जा रहा है कि राष्ट्रीय लोक दल समर्थक जाटों के एक वर्ग में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी है। इसी का लाभ उठाने के लिए सपा और रालोद गठबंधन ने 'गजब' (GAJAB) समीकरण पर खूब माथा खपाया है।
जातीय समीकरण साधने की कोशिश
यूं तो पूरे भारत में बहुत कम ही इलाके ऐसे हैं, जहां चुनावों में जातियों की अहमियत नहीं होती। यूपी-बिहार तो इसके लिए हमेशा से बदनाम रहे हैं। इन राज्यों में कुछ भी कर लें, सत्ता की चाबी उसी पार्टी को मिलती है, जो जातीय गणित बिठाने में सफल होती हैं। कांग्रेस ने दशकों तक शासन किया तो इसकी वजह ये थी कि उसने ब्राह्मणों, दलितों और मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाए रखा। यह समीकरण तब टूटा, जब मंडल और कमंडल की राजनीति ने देश की सियासत का रंग ही बदल दिया। अगर यूपी की बात करें तो 1960 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह एंटी-कांग्रेस फ्रंट बना पाए तो उसका भी आधार यही जातीय समीकरण था। उनके पोते जयंत चौधरी इस बार भी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के साथ इसी जातीय समीकरण को साधने में लगे हुए हैं।
'अजगर' समीकरण क्या है ?
चौधरी चरण सिंह पहले कांग्रेस से अलग होकर यूपी के मुख्यमंत्री बने तो इसके पीछे वजह यह थी कि उन्होंने 'अजगर' फॉर्मूले को अमलीजामा पहनाने में सफलता पा ली थी। 'अजगर' यानी अहीर (यादव), जाट, गुर्जर और राजपूत। इस फॉर्मूले से कांग्रेस को तब मात दिया गया था, जब कश्मीर से लेकर अंडमान तक और कच्छ से लेकर अरुणाचल तक कांग्रेस ही कांग्रेस होती थी। मतलब चरण सिंह ने कांग्रेस के ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरण को अपने 'अजगर' समीकरण से समेट दिया, जो कि गैर-ब्राह्मण और गैर-दलित गठबंधन था। इनमें से जाट और गुर्जरों का मुख्य रूप से पश्चिमी यूपी में दबदबा है और यादवों की जनसंख्या तो पूरे यूपी में मौजूद है। सपा और रालोद ने इसी इरादे से नए फॉर्मूले पर काम किया है।
गठबंधन के लिए 'अजगर' फॉर्मूले में अड़चन
जब से उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव का दबदबा बढ़ा, उन्हें यादवों और मुसलमानों के अलावा बड़ी दादाद में राजपूतों का भी साथ मिला। कुछ हद तक ऐसा ही बिहार में लालू यादव के साथ भी हुआ था। इसलिए, जब-जब चुनावों के दौरान सपा और रालोद साथ आए हैं, ऐसा कहा जाने लगता है कि फिर से 'अजगर' फॉर्मूले पर काम करने की कोशिश हो रही है। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी की मौजूदगी और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री होने की वजह से अभी यह मुमकिन नहीं लग रहा है। क्योंकि, सीएम योगी खुद राजपूत हैं और माना जा रहा है कि अभी यह जाति उनकी वजह से भाजपा के साथ गोलबंद है।
यह 'गजब' समीकरण क्या है ?
लिहाजा, सपा-रालोद गठबंधन ने इस बार 'अजगर' की जगह 'गजब' (GAJAB) फॉर्मूले पर फोकस किया है। GAJAB यानी गुर्जर, अहीर, जाट और ब्राह्मण। समाजवादी पार्टी राजपूत वोटों के नुकसान की भरपाई ब्राह्मण वोटों से करने की उम्मीद पाले बैठी है। हालांकि, इसके लिए और पार्टियां भी लगी हुई हैं। सपा ने प्रबुद्ध सम्मेलन भी आयोजित करवाया है। गठबंध पूर्वांचल में ब्राह्मण वोटरों पर खास नजर रखे हुए है, जहां ब्राह्मण बनाम राजपूतों की राजनीति से उसे वोटों का फल मिलने की उम्मीद है। समाजवादी की सोच ये है कि उसके इस समीकरण में मुसलमान तो साथ होंगे ही, अगर भाजपा से आए अति-पिछड़े नेताओं की वजह से उनका वोट भी जुड़ गया तो उसका जनाधार बहुत बढ़ सकता है।
क्या ब्राह्मण छोड़ेंगे भाजपा का साथ ?
अखिलेश यादव ने जिस तरह से हरिशंकर तिवारी या राबरेली की ऊंचाहार सीट से विधायक मनोज पांडे के प्रचार को अहमियत दी है, उससे यही लगता है कि वह 'गजब' समीकरण पर पूरी फोकस कर रहे हैं। अब देखने वाली बात है कि लखीमपुर खीरी वाली घटना के बाद इन्होंने केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के खिलाफ जिस ढंग की मुहिम चलाई है, उसका इनके 'गजब' अभियान पर क्या असर पड़ता है?