Legislature vs Judiciary: न्यायपालिका और विधायिका के बीच क्यों होता है टकराव? क्या कहता है संविधान?
भारत संघ की विधायिका को संसद कहा जाता है और राज्यों की विधायिका को विधानमंडल/ विधानसभा कहते हैं।
Legislature vs Judiciary: साल 2016 में न्यायपालिका और सरकार के बीच जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर टकराव बहुत ज्यादा बढ़ गया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर सीधा हमला बोलते हुए सवाल किया है कि क्या वह पूरी न्यायपालिका को ठप कर देना चाहती है। आखिर क्यों न्यायपालिका और विधायिका का आपस में होता है टकराव?
शक्तियों को तीन अंगों में बांटा गया
हमारे संविधान में राज्य की शक्तियों को तीन अंगों में बांटा गया है- कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका (Executive, Legislature, Judiciary)। इन शक्तियों के अनुसार विधायिका का काम विधि (कानून) निर्माण करना, कार्यपालिका का काम विधियों का कार्यान्वयन (कानून को लागू करना) तथा न्यायपालिका को प्रशासन की देख-रेख, विवादों का फैसला और विधियों की व्याख्या करने का काम सौंपा गया है। इसके बावजूद विगत वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां देखा गया है कि न्यायपालिका और विधायिका में टकराव की स्थिति बन जाती है।
क्या है न्यायपालिका और विधायिका?
न्यायपालिका: भारत में जो न्यायपालिका है उसका मूल काम भारतीय संविधान में लिखे कानून का पालन करना और करवाना है और कानून का पालन न करने वालों को दंडित करने का अधिकार भी न्यायपालिका के पास है। भारत में 6 प्रकार के न्यायालय स्थापित किए गए हैं। वह 6 न्यायालय कुछ इस प्रकार हैं- उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट), उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट), जिला और अधीनस्थ न्यायालय, ट्रिब्यूनल, फास्ट ट्रैक कोर्ट और लोक अदालत।
विधायिका: भारत संघ की विधायिका को संसद कहा जाता है और राज्यों की विधायिका को विधानमंडल/ विधानसभा कहते हैं। बात देश की हो रही है तो इसकी विधायिका यानी संसद के दो सदन हैं- उच्च सदन राज्यसभा तथा निचला सदन लोकसभा कहलाता है।
आखिर क्यों होता है दोनों में टकराव
न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव की स्थिति भारत के इतिहास में कई बार बन चुकी है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973, यह देश का पहला केस कह सकते हैं जब न्यायपालिका और विधायिका आमने-सामने आ गए थे। तब साल 1972-73 के बीच 68 दिनों तक लगातार सुनवाई हुई और तभी केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। कोर्ट ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो।
दोनों में टकराव की स्थिति
वहीं साल 1994 में बोम्मई जजमेंट के बाद भी दोनों में टकराव की स्थिति बन गई थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगाया था। इस मामले में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संदर्भ में दिशा-निर्देश तय किए थे।
सदन के विशेषाधिकार का उल्लंघन
साल 1964 में जब केंद्र में जवाहर लाल नेहरू की सरकार थी, तब भी दोनों में जबरदस्त टकराव की स्थिति हो गई थी। दरअसल यूपी विधानसभा की अवमानना के लिए 'दंडित' एक सोशलिस्ट कार्यकर्ता केशव सिंह को हाईकोर्ट द्वारा जमानत दिया जाना इस टकराव का कारण बना था। विधानसभा ने कोर्ट की इस कार्यवाही को सदन के विशेषाधिकार का उल्लंघन माना था, जमानत देने वाले दोनों जजों और वकील को हिरासत में सदन के समक्ष उपस्थित किए जाने का आदेश दिया गया था। दोनों जजों ने विधानसभा के इस निर्णय को अलग-अलग याचिकाओं के जरिए हाईकोर्ट में चुनौती दी। तब न्यायिक इतिहास का संभवतः यह इकलौता मामला था जिसमें याचिकाकर्ता दोनों जजों को छोड़कर हाईकोर्ट के शेष सभी 28 जज मामले को सुनने के लिए एक साथ बैठे और विधानसभा के आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगाई।
न्यायपालिका और विधायिका आमने-सामने
वहीं इसके अलावा कॉलेजियम सिस्टम को लेकर, इमरजेंसी के समय, एक चुनी हुई सरकार के खिलाफ जजों का प्रेस कॉफ्रेंस करना, दोषसिद्ध हो चुके नेताओं का चुनाव लड़ने से रोकना, ऐसे कई मौके हैं जब-जब न्यायपालिका और विधायिका आमने-सामने आ चुकी है।
क्या कहता है संविधान?
संविधान के मुताबिक न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच की लाइन स्पष्ट तौर पर खींची गई है। विधायिका (संसद) का मूल कार्य कानून बनाना है। सभी विधायी प्रस्तावों को विधेयकों के रूप में संसद के समक्ष लाना होता है। एक विधेयक मसौदे में एक संविधि है और तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि इसे संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति और भारत के राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो जाए।
'कानून के शासन' की रक्षा
वहीं न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह 'कानून के शासन' की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करे। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले। तकनीकी रूप से संविधान में किसी को ज्यादा बड़ा अथवा छोटा नहीं बताया गया है।
प्रमुख मूलभूत तत्व
वहीं बात संविधान की करें तो इसकी सरंचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व भी बताए गए हैं। जिनमें अनुच्छेद 368 के तहत संसोधन नहीं किया जा सकता है। जैसे- संविधान की सर्वोच्चता, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा, गणराज्यात्मक और लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार, संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र, राष्ट्र की एकता एवं अखंडता, संसदीय प्रणाली, व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा, मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन, न्याय तक प्रभावकारी पहुंच, एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश।
न्यायपालिका और विधायिका पर जब बोले उपराष्ट्रपति
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने बीते दिनों कॉलेजियम सिस्टम पर चिंता जताते हुए कहा था कि संसद द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द करना एक गंभीर मुद्दा है। संसद अगर कोई कानून पारित करती है तो वह लोगों की इच्छा को दर्शाता है। ऐसा उदाहरण दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता, जहां न्यायालय ने जनता की संसद द्वारा सर्वसम्मति से बनाई व्यवस्था को मानने से इंकार कर दिया हो। उपराष्ट्रपति ने कहा कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका द्वारा एक दूसरे के क्षेत्र में कोई भी घुसपैठ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हो, शासन की गाड़ी को अस्थिर करने की क्षमता रखती है।
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