Kesavananda Bharati Case: शांत समुद्र में धनखड़ का पत्थर
कांग्रेस, कम्युनिस्ट शोर मचा रहे हैं कि मोदी सेक्यूलरिज्म खत्म कर के भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। मोदी सरकार की ऐसी कोई मंशा तो दिखाई नहीं देती, लेकिन जगदीप धनखड़ ने शांत समुद्र में एक पत्थर तो फेंक दिया है।
Kesavananda Bharati Case: कभी सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रहे जगदीप धनखड़ अब उपराष्ट्रपति हैं, और इस नाते राज्यसभा के सभापति| अब ऐसा लगने लगा है कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें एक ख़ास मकसद से उपराष्ट्रपति बनाया है| जो काम अरुण जेटली नहीं कर सके थे, वह काम उन्हें जगदीप धनखड़ से करवाना है| और वह काम है पिछले 50 साल से बनी संसद पर सुप्रीमकोर्ट की सर्वोच्चता को खत्म करना|
मोदी सुप्रीमकोर्ट से तब से खार खाए हुए हैं, जबसे सुप्रीमकोर्ट ने संसद और विधानसभाओं से सर्वसम्मति से पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अस्वीकार करके जजों की नियुक्तियों का अधिकार खुद अपने हाथ में रखा था| प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सरकार का यह सबसे महत्वपूर्ण क़ानून था, जो जजों को नियुक्त करने के राष्ट्रपति के अधिकार को दुबारा पुर्स्थापित करता|
संविधान के अनुच्छेद 368 के प्रावधान को पूरा करते हुए संसद से यह बिल सर्वसम्मति से पास हुआ था, 16 विधानसभाओं ने इस बिल पर अपनी मोहर लगाई थी, राष्ट्रपति ने अपने दस्तखत करके बिल को क़ानून बना दिया था| लेकिन सात जजों की बेंच ने इस क़ानून को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि यह सरकार का न्यायपालिका में हस्तक्षेप है|
अरुण जेटली न्यायपालिका से टकराव नहीं चाहते थे, जिस कारण इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था| अरुण जेटली के रूख से मोदी सहमत नहीं थे, अरुण जेटली का रुख हमेशा जजों के साथ दोस्ती बनाए रखने का था। इससे पहले जब वर्ष 2000 में राम जेठमलानी विधि मंत्री थे, तो वह भी न्यायपालिका में कई सुधार करना चाहते थे, लेकिन तब भी न्यापालिका के साथ मिलकर अरुण जेटली रोड़ा बन गए थे|
उस समय सोली सोराबजी सोलिसीटर जनरल थे, वह भी न्यायपालिका के उतने ही प्रिय थे, जितने अरुण जेटली| दोनों ने अटल बिहारी वाजपेयी पर दबाव बना कर जेठमलानी को इस्तीफा देने के लिए कहा था। लेकिन जब जेठमलानी ने इस्तीफा नहीं दिया, तो अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी इज्जत बचाने के लिए उन्हें मन्त्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया था| तब वाजपेयी ने अरुण जेटली को ही विधि मंत्री बना कर न्यायपालिका से टकराव टाल दिया था|
नरेंद्र मोदी इस घटनाक्रम से परिचित थे, इसलिए मोदी ने जेटली को विधि मंत्री नहीं बनाया| कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के पीछे अरुण जेटली भी थे| मोदी सुप्रीमकोर्ट के न्यायिक नियुक्ति आयोग को अस्वीकार करने के फैसले से खफा थे। लेकिन उस समय कांग्रेस ने भी यू-टर्न लेकर सुप्रीमकोर्ट के फैसले का समर्थन कर दिया था, इसलिए मोदी ने चुप्पी साध ली थी|
मोदी को एक ऐसे आदमी की तलाश थी, जो क़ानून और तर्कों में अरुण जेटली के मुकाबले का हो और न्यायपालिका से टकराव की वैसी ही हिम्मत रखता हो, जैसी राम जेठमलानी की थी| जगदीप धनखड़ में उन्हें वह आदमी दिखाई दिया, इसलिए उन्होंने उन्हें उपराष्ट्रपति बनवा कर राज्यसभा के सभापति का पद सौंप दिया|
उपराष्ट्रपति बनते ही जजों की नियुक्तियों की कोलिजियम प्रणाली पर हमला करके जगदीप धनकड़ ने सुप्रीमकोर्ट से सीधा टकराव ले लिया है| जैसी की उम्मीद थी, सुप्रीमकोर्ट के जज उपराष्ट्रपति के हमले से तिलमिलाए हुए थे, क्योंकि सरकार अगर कोलिजियम प्रणाली खत्म करती है तो न्यायपालिका में चल रहे परिवारवाद और भ्रष्टाचार पर गहरी चोट लगेगी, इसलिए तीन जजों की बेंच ने सरकार को धमकाते हुए कहा कि उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों को जुबान संभाल कर बोलना चाहिए|
अब इसके बाद दो बातें हो सकती थीं। अगर जगदीप धनखड़ को न्यापालिका से टकराव लेने के पीछे मोदी की शह न होती, तो वह चुप्पी साध कर बैठ जाते| अगर मोदी के इशारे पर ही उन्होंने कोलिजियम के खिलाफ बयान दिया होता, तो वह दुबारा हमला करते| 11 जनवरी को देशभर की सभी विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में जगदीप धनखड़ ने पहले से भी ज्यादा जोरदार आवाज में न्यायपालिका की सर्वोच्चता पर सवाल उठा कर साबित कर दिया कि उनके पीछे नरेंद्र मोदी का हाथ है|
सरकार कोलेजियम प्रणाली को खत्म करके जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसी कोई प्रणाली स्थापित करना चाहती है| जगदीप धनखड़ क्योंकि क़ानून के अच्छे खासे जानकार हैं, सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ वकील रहे हैं, और ममता बनर्जी के साथ लगातार टकराव करते समय उन्होंने यह भी साबित किया कि वह जुझारू हैं|
न्यायपालिका पर अपने ताज़ा हमले में उन्होंने 1973 के केशवानंद भारती केस में सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर प्रहार किया है| यह फैसला सात जजों ने किया था, जबकि 13 जजों की संविधान पीठ के बाकी छह जज इस फैसले के खिलाफ थे| इस फैसले में कहा गया था कि ससंद को क़ानून बनाने, संविधान संशोधन करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह संविधान के बेसिक स्ट्रकचर को नहीं छेड़ सकती|
संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को संविधान में संशोधन का पूरा अधिकार दिया गया है, संविधान में इस तरह की कोई शर्त नहीं थी कि संसद क्या संशोधित नहीं कर सकती| संशोधनों को तीन भागों में विभक्त किया गया है और तीनों को संशोधित करने के लिए अलग अलग बहुमत का वर्णन है, लेकिन केशवानंद भारती फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने 7/6 के फैसले में कहा कि संसद को संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन का अधिकार नहीं|
क्या हैं वे मूल तत्व जिन्हें केशवानंद भारती केस में संसद के अधिकार से बाहर रखा गया| वे हैं: (1) संविधान की सर्वोच्चता (2) विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा (3) गणराज्यात्मक और लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार (4) संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र (5) राष्ट्र की एकता और अखण्डता (6) संसदीय प्रणाली (7) व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा (8) मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन (9) न्याय तक प्रभावकारी पहुँच और (10) एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश|
मोदी सरकार का इन दस मूल तत्वों में से किसी में भी बदलाव का कोई इरादा तो नहीं दिखता| फिर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने केशवानंद भारती केस के फैसले पर उंगली क्यों उठाई| वह इसलिए क्योंकि इस फैसले से सुप्रीमकोर्ट ने संसद के हाथ पाँव बांधकर संसद पर अपनी सर्वोच्चता कायम करने के बीज बोए थे| इसी से धीरे धीरे सुप्रीमकोर्ट विधायिका पर हावी होती गई| अब हम मोदी सरकार की ओर से संसद और आधी विधानसभाओं से पारित न्यायिक नियुक्ति आयोग के क़ानून को ही लें, यह क़ानून संविधान के अनुच्छेद 368 में विधायिका को मिले अधिकार के तहत ही बनाया गया था|
अनुच्छेद 368 के भाग तीन में जिन विषयों पर विधायिका को संशोधन का अधिकार दिया गया है, उनमें हाईकोर्टों और सुप्रीमकोर्ट के जजों की नियुक्तियों में संशोधन का अधिकार भी है| भाग तीन विषयों में संशोधन की शर्त यह है कि संसद से बहुमत से पास होने के अलावा आधी विधानसभाओं से भी पारित होना चाहिए| न्यायिक नियुक्ति आयोग का बिल संसद के दोनों सदनों और 16 विधानसभाओं से सर्वसम्मती से पास हुआ था, इसके बावजूद सुप्रीमकोर्ट ने उसे रद्द कर दिया|
जगदीप धनखड़ का कहना है कि केशवानंद भारती केस के फैसले के बाद विधायिका की सर्वोच्चता खत्म हो गई और सुप्रीमकोर्ट संसद के अधिकारों पर अतिक्रमण करती चली गई| इसलिए उन्होंने कहा कि वह फैसला गलत था| न्यायपालिका की बढ़ती दखलंदाजी से परेशान सभी राजनीतिक दलों को जगदीप धनखड़ के साथ खड़ा होना चाहिए क्योंकि उन्होंने विधायिका के अधिकारों पर न्यायपालिका के अतिक्रमण का मूल मुद्दा उठाया है। लेकिन कांग्रेस उनके विरोध में खड़ी हो गई है।
कांग्रेस मानती है कि विधायिका सर्वोच्च नहीं है, बल्कि संविधान सर्वोच्च है| इसमें किसी की असहमति नही होगी, लेकिन सवाल विधायिका और न्यायपालिका में से किसी की सर्वोच्चता का है| संविधान ने तो विधायिका को संशोधन के असीमित अधिकार दिए थे, जिसे न्यायपालिका ने केशवानंद भारती केस में मामूली बहुमत से फैसले से विधायिका से छीना था|
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