Swami Prasad Maurya: दल बदलुओं का नया नारा, जैसा दल वैसी विचारधारा
मौजूदा दौर में नेताओं की नैतिकता और वैचारिकी राजनीतिक दलों के विचार में तिरोहित हो गई है। नेता जिस दल में चला जाता है उसी दल की ढोल बजाने लगता है। चंद्रशेखर और स्वामी प्रसाद मौर्य ऐसे ही नेता हैं।
Swami Prasad Maurya: रामचरितमानस के ढोल गंवार शूद्र पशु नारी वाली चौपाई पर सवाल उठाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य असल में अपने दल का वैचारिक ढोल बजा रहे हैं। जब से उन्होंने समाजवादी पार्टी का राजनीतिक चोला पहना है, तब से वे प्रखर समाजवादी और हिंदुत्वविरोधी नजर आने लगे हैं। समाजवादी पार्टी से पहले जब वे भारतीय जनता पार्टी में थे तो हिंदुत्व के पैरोकार थे। सनातनी संस्कृति उन्हें दुनिया की महानतम संस्कृति लग रही थी। उसके पहले जब वे बहुजन समाज पार्टी में थे, उनकी नैतिकता वहां के सुप्रीमो के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। यह चलन सिर्फ स्वामी प्रसाद मौर्य तक ही सीमित नहीं है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए राजनीतिक पेड़ों पर उछल-कूद करने वाले हर राजनेता की स्थिति ऐसी ही है।
लेकिन क्या रामचरित मानस पर सवाल उठाने और उसे तमाम बहानों से लांछित करने की मौर्या या चंद्रशेखर की कोशिश के पीछे सिर्फ यही बात है? रामचरित मानस पर पहले सवाल उठाया बिहार के शिक्षा मंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के कथित पढ़े-लिखे नेता चंद्रशेखर ने। अब भी वे डंके की चोट पर रामचरितमानस और सनातनी संस्कृति पर सवाल उठा रहे हैं। यह संयोग है कि बिहार की राजनीति का प्रथम यादव परिवार माना जाने वाला लालू कुनबा उत्तर प्रदेश के प्रथम यादव परिवार का रिश्तेदार है। दोनों में कम से कम विचारधारा के स्तर पर सहज साम्यता है। लालू परिवार की नजर में उसके कार्यकर्ता चंद्रशेखर रामचरितमानस पर सवाल उठाकर कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं। खुलकर लालू परिवार ने उन्हें न तो अब तक टोका और ना ही ऐसी बयानबाजी से बाज आने के लिए ताकीद की है।
कुछ ऐसी ही स्थिति उत्तर प्रदेश के समाजवादी परिवार के नए अनुयायी स्वामी प्रसाद मौर्य की भी है। वे भी रामचरित मानस को गालियों का उपहार दे रहे हैं, उनके उकसावे में कुछ लोग उस मानस की प्रतियां जला चुके हैं, जिसे सदियों से भगवत् पुस्तक का देवदर्जा हासिल है। यह दर्जा सिर्फ सवर्ण परिवारों के पूजाघरों तक ही नहीं सिमटा है, बल्कि बृहत्तर हिंदू समाज तक इसका प्रसार है। दिलचस्प यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ऐसी बयानबाजी जब शुरू करते हैं तो लगता है कि उनके दलीय आका अखिलेश यादव उन्हें चेतावनी देंगे। क्योंकि उन्हें आनन-फानन में बुलावा मिलता है। लेकिन अखिलेश से मिलकर वे हंसते हुए बाहर निकलते हैं और फिर कुछ ही दिनों बाद एकबार फिर वे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव नामित कर दिए जाते हैं। साफ है कि रामचरित मानस पर सवाल उठाने का उन्हें इनाम भी मिलता है।
आजादी के आंदोलन के दौरान राजनीतिक दलों का एक उद्देश्य सामाजिक उत्थान भले ही रहा हो, लेकिन अब वह उद्देश्य सत्ता प्राप्ति तक सिमट गया है। सामाजिक उत्थान इस सत्ता प्राप्ति का अत्यंत लघु हिस्सा है। संसदीय लोकतंत्र में सत्ता हासिल होती है, ज्यादा वोट हासिल होने से। इसके लिए पूरे साल राजनीतिक दल अपने कार्यक्रमों के जरिए दो काम करते रहते हैं, पहला अपने पारंपरिक वोट बैंक को संभाले रखना और नया वोटबैंक तैयार करना। इसके लिए वे जातीय और धार्मिक गोलबंदी और बाड़ेबंदी में लगातार सक्रिय रहते हैं।
चंद्रशेखर की कुबोली हो या स्वामी प्रसाद मौर्य की गाली, दोनों राजनीति की इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं। दोनों का उद्देश्य है अपने अपने दलों के वोट बैंक को और ज्यादा व्यापक बनाना और उसमें नए-नए हिस्सों को शामिल करना। ऐसे में सवाल यह है कि दोनों दल और उनके ये दोनों वाचाल नेता किस तरह की गोलबंदी करना चाहते हैं?
दरअसल आज यह मान लिया गया है कि हिंदुत्व का पैरोकार और रखवाला सिर्फ और सिर्फ सवर्ण समाज है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, भूमिहार और बनिया समुदाय आते हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान से ही भारतीय समाज में ब्रिटिश सोच वाले कम्युनिज्म ने अपनी कोशिशों से यह नैरेटिव स्थापित कर दिया है कि इस देश में अतीत में जितना भी बुरा हुआ है, उसके वाहक सिर्फ और सिर्फ यही सवर्ण तबका ही रहा है। दिलचस्प यह है कि अपने निजी आर्थिक हितों के लिए समय-समय पर इन्हीं सवर्ण तबके के लोग भी इस नैरेटिव के बड़े पैरोकार रहे। याद कीजिए मंडलवाद के दौर को। उस दौर में सवर्ण समाज के खिलाफ बाकी सभी जातियों को गोलबंद करने में समाजवादी और वामपंथी राजनीति सफल रही थी।
लेकिन बाद में अपनी-अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते समाजवादी धारा के कुछ राजनीतिक नेता और दल अलग हुए और उन्होंने पिछड़े समाज में भी विभाजन किया। इसकी शुरूआत नीतीश कुमार ने बिहार से की। उन्होंने दलित नेताओं का असर कम करने के लिए दलितों में अति दलित और पिछड़े समाज की राजनीति में दरार डालने के लिए पिछड़ों मे अति पिछड़ों को अलग किया।
इसी फॉर्मूले को किंचित बदलाव के साथ भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रभाव बढ़ाने में किया। इसके बाद से उत्तर प्रदेश में अजेय समझा जाता रहा मुलायम कुनबा और बिहार का लालू परिवार राजनीति के मैदान में कमजोर पड़ने लगा। दोनों ही परिवारों को लगता है कि अगर एक बार फिर पिछड़ों के बीच खींची लकीर को अप्रभावी बना दिया जाय तो उनकी राजनीति सत्ता के मैदान में अक्षुण्ण बनी रह सकती है।
स्वामी प्रसाद मौर्य हों या चंद्रशेखर, दरअसल वे अपने-अपने दलों के मोहरे हैं। दोनों दलों को लगता है कि पिछड़ों के बीच खिंची राजनीतिक लकीर को मिटाया तभी जा सकता है, जब धर्म पर हमला किया जाए। जब ऐसा होगा तब प्रचलित नैरेटिव के मुताबिक सवर्ण समाज प्रतिरोध में खड़ा होगा और फिर इसके जवाब में पिछड़ी और दलित जातियों को सवर्णों के खिलाफ लामबंद करने में मदद मिलेगी। अगर एक बार ऐसा हो गया तो राजनीतिक राह आसान हो जाएगी।
लेकिन दल बदलकर सोच बदलने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य इकलौते नेता तो नहीं है। भाजपा की उत्तर प्रदेश की सरकार गिरवाकर एकदिनी मुख्यमंत्री रहे जगदम्बिका पाल पहले समाजवादी सोच के कांग्रेसी रहे, अब राष्ट्रवादी हैं। बहुजन समाज पार्टी में रहते वक्त भाजपा को ही कोसते रहे ब्रजेश पाठक अब भाजपा के कर्णधार हैं। सिद्धारमैया की राजनीति गैरकांग्रेसवाद से उफान चढ़ी, लेकिन अब वे उसी कांग्रेस का दक्षिण का चेहरा हैं। के चन्द्रशेखर राव कभी तेलुगू बिड्डा एनटी रामा राव के सहयोगी और कांग्रेस विरोधी थे, बाद में कांग्रेसी भये और अब अपनी पार्टी चला रहे हैं।
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बहरहाल, इन नेताओं के सामने एक मजबूरी और है। जब तक ऐसे दलबदलू नेता चर्चा में नहीं आयेंगे, दल की विचारधारा के ज्यादा समर्पित नहीं दिखेंगे, इन्हें महत्व नहीं मिलेगा। मसलन उदितराज तब तक भाजपा में रहे एक शब्द कभी धर्म के खिलाफ नहीं बोले, लेकिन जिस दिन लगा कि अब भाजपा टिकट भी नहीं देगी तो उन्हें हिन्दू समाज में जातिवाद दिख गया और भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी हो गयी।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)