सिनेमा में भी दलित हाशिए पर
स्वतंत्रता
संग्राम
में
दलितों
का
योगदान
फिल्म
'एकलव्य'
में
अमिताभ
बच्चन
और
संजय
दत्त
के
चरित्र
जातीय
दुर्भावना
को
व्यक्त
करते
हैं।
यहां
यह
तथ्य
भी
उल्लेखनीय
हे
कि
पीरिएड
फिल्मों
के
दौर
में
जब
गांधी,
नेहरू,
सुभाष
चंद्र
बोस
जैसे
स्वाधीनता
संग्राम
सेनानियों
पर
एक
से
ज्यादा
फिल्में
बनी
हैं,
वहीं
अभी
तक
किसी
फिल्मकार
ने
दलित
स्वतंत्रता
संग्राम
सेनानियों
को
अपनी
फिल्म
में
स्थान
नहीं
दिया।
हालांकि
'लगान"
और
'1942
ए
लव
स्टोरी"
तथा
'मंगल
पाण्डे"
में
क्रमश:
कचरा
और
सफाई
कर्मी
के
रूप
में
दलित
पात्रों
की
छोटी
परन्तु
उल्लेखनीय
भूमिका
दिखायी
गयी
है।
कहने
का
मतलब
है
कि
जिस
तरह
इतिहास
में
दलित
नजरिया
अभी
भी
अनुपस्थित
है
बावजूद
इसके
कि
सब
आर्ल्टन
स्टडीज
के
कई
वाल्यूम
आ
चुके
हैं,
उसी
तरह
सिनेमा
में
भी
दलित
हाशिए
पर
ही
हैं
जबकि
डीसी
डिनकर
ने
अपनी
पुस्तक
'स्वतंत्रता
आन्दोलन
में
अछूतों
का
योगदान"
में
400
से
अधिक
दलित
स्वाधीनता
संग्राम
सेनानियों
का
विवरण
दिया
है।
हिन्दी
सिनेमा
बनाम
सवर्ण
सिनेमा
हिन्दी
सिनेमा
द्वारा
जातीय
प्रश्न
की
उपेक्षा
के
पीछे
जो
कारण
नजर
आता
है,
वह
यह
है
कि
सिनेमा
एक
महंगा
कला
माध्यम
है
और
जाहिरा
तौर
पर
उसमें
पूंजी
लगाने
वालों
के
वर्गहितों
की
उपेक्षा
सम्भव
नहीं
है।
हिन्दुस्तान
में
जाहिरा
तौर
पर
यह
पूंजीपति
वर्ग
सवर्ण
है
और
सचेत
अथवा
अचेत
तौर
पर
जातीय
श्रेष्ठता
की
भावना
से
ग्रस्त
भी
है।
इसलिए
सम्भवत:
ऐसे
कथानक
नही
चुने
जाते।
दूसरे
फिल्म
बनाने
वाले
लेखक,
निर्देशक,
निर्माता
और
कलाकार
भी
ज्यादातर
सवर्ण
समाज
एवं
उच्च
आय
वर्ग
के
ही
हैं।
इस
कारण
भी
पिछड़ों
और
दलितों
के
प्रश्न
हिन्दी
सिनेमा
में
शिद्दत
से
नही
स्थान
पा
सके।
हालांकि स्थिति थोड़ी बदल रही है, इसका संकेत 'वेलकम टू सज्जनपुर", 'बिल्लू बारबर" (जहां सहनायक नाई है), 'स्लमडाग करोड़पति", 'लक्की ओए लक्की" जैसी फिल्में हैं जिनमें मुख्य पात्र दलित, पिछड़े अथवा अल्पसंख्यक हैं।
[लेखक जाने-माने सिनेमा विश्लेषक और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं।]
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