संघ नहीं झेलना चाहता मोदी सरकार की एंटी इनकंबेंसी?
नई दिल्ली। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने बहुत बड़ा सवाल उठाया है- जब युद्ध नहीं तो सैनिकों की शहादत क्यों? किसी भी सरकार के लिए यह प्रश्न है। मोहन भागवत ने इसी के आगे कहा है कि “इसका मतलब है कि हम अपना काम नहीं कर रहे हैं। यहां दो प्रश्न विचारणीय हैं। एक जो मोहन भागवत ने उठाया है। और, दूसरा ये कि मोहन भागवत ने यह प्रश्न क्यों उठाया है?
आरएसएस का भाजपा को देखने का अपना नजरिया
पहला प्रश्न बहुत जायज है। सैनिकों की निरर्थक होती जा रही शहादत से जुड़ा है यह प्रश्न। केंद्र सरकार की नीतियों और उसकी अकर्मण्यता या असफलता को यह प्रश्न बहुतेरे सवालों से घेरता है। क्यों और कैसे, इस पर विचार करें हम लेकिन इससे पहले हमें इस सवाल का जवाब खोजना चाहिए कि आखिर क्यों मोहन भागवत ने मोदी सरकार पर सवाल उठाया है?
आरएसएस का बीजेपी और बीजेपी सरकार को देखने का अपना नजरिया है। वह खुद को मोदी सरकार का मेंटर मानता है। वह खुद को चाणक्य के ओहदे पर देखता है जो किसी घनानन्द को गद्दी से उतार भी सकता है और चंद्रगुप्त को सिंहासन पर बिठा भी सकता है।
अटल-आडवाणी या आडवाणी-मोदी के जाने-आने के पीछे रहा आरएसएस
याद करने की ज़रूरत 2004 को भी है जब फील गुड की हवा निकल जाने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके लिए गुजरात दंगे को जिम्मेदार ठहराया था और उसके बाद जब बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तो उसमें इस मुद्दे को उठाने नहीं दिया गया। वाजपेयी तभी से दरकिनार कर दिए गये। मगर, गुजरात दंगे में जली बीजेपी की सत्ता की हांडी को तब आरएसएस के चहेते एलके आडवाणी नया रूप नहीं दे सके। 2009 में भी वह पीएम इन वेटिंग ही रह गये। मगर, 2014 में आरएसएस ने लालकृष्ण आडवाणी को ही दरकिनार कर दिया और उन्हीं नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया जिनकी असफलता के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने आम चुनाव में अपनी सरकार के हारने की बात कही थी। मोदी के नेतृत्व में प्रचंड जीत के बाद पूरे देश में आरएसएस और बीजेपी की जड़ें मजबूत हुईं।
देश के 19 राज्यों में बीजेपी की सरकार है और हर जगह आरएसएस की सक्रियता भी। पूर्वोत्तर से लेकर वामपंथियों के गढ़ त्रिपुरा तक बीजेपी सरकार बनाने में आरएसएस की अथक मेहनत और रणनीति रही है।
2014 से 2019 आते-आते छलकने लगा है जनता का गुस्सा
2014 से 2019 आते-आते मोदी सरकार के प्रति लोगों में गुस्सा हर तबके में इतना बढ़ चुका है कि वह छलकने लगा है। वो छप्पन इंच का सीना, एक सिर के बदले 10 सिर लाने की बात...और आखिर में वही ढाक के तीन पात। लोगों में मोदी सरकार के प्रति गुस्से की वजह को बॉर्डर, सैनिक, पाकिस्तान, आतंकी जैसे संदर्भों में समझें तो कुछ घटनाओं पर गौर करना जरूरी है। सर्जिकल स्ट्राइक हुई, मगर पाकिस्तान डरने के बजाए सीमा पर सीज़फायर का उल्लंघन अधिक करने लगा। बीजेपी ने पीडीपी के साथ सरकार बनायी। हालात बिगड़ते चले गये। पत्थरबाज रिहा हुए, पत्थरबाजी रुकी नहीं। ऑपरेशन ऑल आउट चला। तीन सौ के करीब कश्मीरी युवक को आतंकी बताकर ढेर कर दिया गया। और, आतंकी हैं कि ख़त्म होते ही नहीं। स्थिति काबू में आती ही नहीं। सैनिकों की शहादत की घटनाएं इस तरह हो रही हैं मानो कोई हमारे सैनिकों का शिकार कर रहा हो।
बीजेपी और सरकार की रणनीति बनाता रहा है संघ
इसमें संदेह नहीं कि मोदी सरकार के हर फैसले में आरएसएस शामिल रहा है। चाहे वह पीडीपी के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार बनाने की बात हो या फिर सर्जिकल स्ट्राइक या ऐसे ही बड़े फैसले जो मोदी सरकार ने लिए। मगर, असल प्रश्न ये है कि अगर जनता का गुस्सा फूटा और मोदी सरकार सत्ता से बाहर हुई तो क्या आरएसएस जनता के गुस्से से बच पाएगी? इससे बचने का तरीका क्या हो?
एंटी इनकम्बेन्सी से मोदी सरकार बच नहीं सकती, लेकिन आरएसएस तो बच सकता है! मोहन भागवत इसी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। संघ को इसी से बचाने की कोशिश कर रहे हैं। वह खुद वैसे सवाल उठा रहे हैं जो पहले से जनता के मन में है। आखिर हम कश्मीर में क्यों अपने सैनिकों की आहूति दे रहे हैं?
हालांकि मोहन भागवत ने जो सवाल उठाया है उसकी व्यापकता और भी अधिक है। मगर, वे खुद भी उस व्यापकता में जाते कभी नहीं दिखे। इसलिए यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि इस सवाल की व्यापकता से उनका कुछ लेना-देना है। भागवत के बयान को इस तरह से भी कहा जा सकता है कि क्या जनता के बीच सैनिकों को तैनात करना जायज है? सेना का काम युद्ध लड़ना है। युद्ध अभी हो नहीं रहा है। फिर मारे क्यों जा रहे हैं सैनिक? सैनिक सीमा पर मारे जाते हैं, मगर हमारे सैनिक अपने देश के भीतर मारे जा रहे हैं। मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं, छिपकर किए जा रहे हमलों में मारे जा रहे हैं। क्या सैनिकों को पत्थर खाते देखा गया है? मगर, हमारे सैनिक पत्थर खाने को भी मजबूर हैं।
क्यों मजबूर होते चले गये सैनिक?
ऐसी ही मुश्किल परिस्थितियों में पैदा हुई वह घटना है जब सैनिक अपने ही देश के नौजवान को जीप के आगे बांधकर उसे सुरक्षा कवच के तौर पर इस्तेमाल करने को मजबूर हो जाते हैं। इस अमानवीय हरकत को भी परिस्थिति के आलोक में सेना को सही ठहराना पड़ता है। क्या किसी देश के सैनिक का अपने नागरिक के प्रति ऐसा व्यवहार होगा? अगर, जवाब जान बचाना है। तो ऐसी नौबत ही क्यों आयी? क्यों सैनिकों को सीमा के बजाए अपने ही नागरिकों के मुकाबले खड़ा कर दिया गया? अशांत राज्यों में नागरिकों के सामने सेना को खड़ा करने की प्रवृत्ति छोड़ने का मुद्दा उठाता है मोहन भागवत का सवाल। मगर, खुद मोहन भागवत शायद अपने सवाल को यह व्यापकता देना नहीं चाहते। मोहन भागवत के बयान से ये साफ हो चुका है कि नरेंद्र मोदी सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ बहुत गिर चुका है या यों कहें कि अलोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा हो चुका है। और, आरएसएस इस एंटी इनकम्बेन्सी को झेलने के लिए तैयार नहीं है।
कोलकाता में BJP के खिलाफ ममता की मेगा रैली, विपक्ष का शक्ति प्रदर्शन