Caste Census in Bihar: जाति जनगणना के बहाने राजनीतिक तिकड़म साधने की कोशिश
पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की अगुवाई में बिहार में जाति जनगणना शुरु हो गयी है। सवाल है कि क्या इससे वह राजनीतिक गणित सधेगा जिसकी उम्मीद नीतीश और तेजस्वी कर रहे हैं?
Caste Census in Bihar: गरीबी, बेरोजगारी, बाढ़, अपराध, पलायन, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन... आम जन-जीवन की दर्जनों ऐसी प्रत्यक्ष समस्याएं बिहार में दशकों से कायम हैं। समाज के हर वर्ग से हमेशा इन समस्याओं को दूर करने की मांग उठती रहती हैं। लेकिन इसके लिए किसी भी सरकार ने कोई विशेष या क्रांतिकारी योजना कभी नहीं बनाई। दूसरी ओर राज्य में किस जाति के लोगों की संख्या कितनी है, इसकी डायरी बनाने के लिए राज्य सरकार ने 500 करोड़ रुपए के बजट से जातीय जनगणना का विशेष कार्यक्रम शुरू किया है। ढाई लाख से अधिक अधिकारी-कर्मचारी द्वारा दो चरणों में यह कार्य किया जाएगा, जिसे मई 2023 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
सरकार का कहना है कि इससे आम लोगों के लिए विकास योजना बनाने में मदद मिलेगी और सभी को इसका लाभ मिलेगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शब्दों में, ''जाति आधारित गणना शुरू हो गई है। जाति आधारित गणना लोगों की तरक्की और उनके आर्थिक विकास के लिए जरूरी है। सभी जाति, धर्म के लोगों की स्थिति अच्छी होगी तभी राज्य आगे बढ़ेगा।'' सरकार के मुख्य घटक दल, राजद के नेता और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का कहना है कि ''जाति आधारित जनगणना सरकार को साइंटिफिक तरीके से विकास के काम करने में सक्षम बनाएगी। गरीबों के लाभ के लिए जाति आधारित जनगणना हो रही है। राज्य में सभी घरों की गणना की जाएगी। जनगणना में जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के बारे में जानकारी ली जाएगी।''
इन दोनों शीर्ष नेताओं के दावों की रोशनी में देखने पर जातीय जनगणना की यह योजना पूरी तरह गैर-राजनीतिक प्रतीत होती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? अधिकतर राजनीतिक विश्लेषक इन दावों से इत्तेफाक नहीं रखते। राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक डॉ ए के वर्मा कहते हैं, ''चूंकि जातिगत जनगणना के आंकड़े विधिक दस्तावेज नहीं होते, इसलिए उसके द्वारा किसी को अपनी जाति या जाति-समूह प्रमाणित करने का कानूनी आधार नहीं मिलेगा। जातिगत जनगणना से नागरिकों को कोई प्रभावी लाभ नहीं मिलेगा, केवल 'ओबीसी' पर जातिगत राजनीति करने वाले दलों को चुनावी लाभ मिल सकता है।''
उधर सत्तारुढ़ दलों के तमाम नेताओं द्वारा कहा जा रहा है कि जातियों का सटीक डेटा रहने पर सरकार बजट प्रावधान कर विकास योजना बनाएगी। अगर मान भी लिया जाए कि सरकार ऐसा करेगी तो भी यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि ऐसी योजनाओं के कार्यान्वयन का मैकेनिज्म क्या होगा? जाहिर है कि बुनियादी ढांचा मसलन सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की संरचना जाति के आधार पर हो नहीं सकती। तो फिर सरकारी अनुदान, आरक्षण, विशेष सहायता, सुविधा आदि के जरिए ही जाति आधारित लाभ पहुंचाने का विकल्प शेष रह जाता है। इसमें भी तरह-तरह की तकनीकी और व्यवहारिक जटिलताएं हैं।
एक ही जाति की कई उप-जातियां हैं और तदनुसार उनकी सामाजिक स्थितियां (तुलनात्मक पिछड़ापन या अगड़ापन) हैं। शायद यही कारण है कि दक्षिण में कर्नाटक आदि कुछेक राज्यों में जातीय जनगणना के बाद भी इसका कोई सार्थक इस्तेमाल नहीं हो सका। इतना ही नहीं, जातीय जनगणना की राह में तकनीकी पेच भी कम नहीं हैं। आंकड़ों को एकत्र कर विश्लेषित करना भी एक चुनौती है। गौरतलब है कि मनमोहन सरकार द्वारा 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक जनगणना हुई, उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं हो सके।
देश में पिछली जातिगत जनगणना 1931 में हुई, जिसमें 4,147 जातियां चिह्नित की गई थीं, किंतु 2011 की जनगणना में 46 लाख से अधिक जातियों/ उपजातियों को दर्ज किया गया। जाहिर है जातियों/उप-जातियों की संख्या में यह बढ़ोतरी बिहार में भी हुई होगी। इसे किस प्रकार श्रेणीबद्ध किया जाएगा? इसका तार्किक जवाब अनुपलब्ध है। जातिगत जनगणना में लोगों से केवल उसकी जाति या जाति-समूह पूछा जाएगा। उसे कोई दस्तावेज नहीं दिखाने पड़ेंगे। ऐसे में यह कैसे सुनिश्चित होगा कि आंकड़े सटीक हैं?
राज्य की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा राज्य से बाहर रहता है। सर्वेक्षण में उन्हें कैसे शामिल किया जाएगा? इसका सत्यापन कैसे होगा कि किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा अनुपस्थित लोगों के विषय में दी गई जानकारी सत्य है? संवैधानिक रूप से जाति की अवधारणा सिर्फ हिंदुओं पर लागू होती है, लेकिन बिहार में मुस्लिमों में कई जातियां हैं। कसब, चिक, डफली, धोबी, धुनियां, नट, नालबंद, पमारिया, भतिआर, लालबेगी, अंसारी, जुलाहा, रंगरेज, कुंजरा, दर्जी आदि पहले से बिहार में 'ओबीसी' में शामिल हैं। अगर सरकार जातीय आधार पर मुस्लिमों के लिए विशेष सुविधा की सिफारिश करती है तो क्या यह संवैधानिक संकट का कारण नहीं बनेगा?
चूंकि सत्तारुढ़ दल जद-यू और राजद के दोनों शीर्ष नेता नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव लंबे समय से जातीय जनगणना की पैरवी कर रहे हैं, इसलिए यह कहना गलत होगा कि ये इन सब व्यवहारिक जटिलताओं से अनभिज्ञ होंगे। तो सवाल उठता है कि इन सब तकनीकी विसंगतियों के बावजूद जातीय गणना के लिए इतनी तत्परता क्यों दिखा रहे हैं? इसका जवाब तलाशने के लिए इस कदम के राजनीतिक निहितार्थ को समझना होगा।
दरअसल, बिहार की राजनीति पिछले तीन दशकों से कमोबेश जातीय अस्मिता के इर्द-गिर्द ही चल रही है। परंतु राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर भाजपा के उभार, सामाजिक-आर्थिक स्थिति में आए बदलाव और हिंदुत्व को लेकर आम हिंदुओं की चेतना में हो रहे परिवर्तन से राज्य में जातीय राजनीति धीरे-धीरे कुंद हो रही है। इस कारण पिछड़ी जातियों के मजबूत वोट बैंक (करीब 55 प्रतिशत) के खिसकने का डर जद-यू और राजद दोनों को सता रहा है।
इसलिए कई राजनीतिक विश्लेषक जातीय गणना को जातीयता आधारित राजनीति को फिर से प्रखर करने की कवायद मान रहे हैं। विपक्षी दल भाजपा के स्थानीय नेताओं ने सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करना भी शुरू कर दिया है। नेता प्रतिपक्ष विजय कुमार सिन्हा कहते हैं, ''लालू प्रसाद के रास्ते पर चलकर नीतीश कुमार बिहार में जातीय उन्माद फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार में जिस तरह से शराबबंदी फेल हुई है, उसी तरह जातिगत जनगणना भी फेल हो जाएगी।''
कुल मिलाकर सरकार का यह कदम राजनीति-प्रेरित ही प्रतीत होती है। इस बात की प्रबल संभावना है कि राज्य में अति पिछड़ी जातियों की संख्या वर्तमान अनुमान से अधिक होगी। इसलिए इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि इनके लिए निर्धारित आरक्षण के कोटे में बढ़ोतरी की मांग की जाएगी और आगामी चुनावों में समर्थक दलों द्वारा इसे राज्य का प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाया जाएगा। लेकिन इस बात की भी प्रबल संभावना है कि यह कदम स्वयं पिछड़ी जातियों के अंदर कहीं भारी अंतर्कलह न उत्पन्न कर दें।
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राज्य की महज चंद पिछड़ी जातियां पिछड़ी जातियों की संपूर्ण राजनीतिक हिस्सेदारी पर काबिज हैं। अच्छी-खासी आबादी वाली कई पिछड़ी जातियों की राजनीतिक हिस्सेदारी अनुपातिक तौर पर बहुत कम है और कुछ जातियों की तो नगण्य-सी है। इसलिए सरकार का यह कदम आगे क्या रूप लेगा, कहना कठिन है। बहरहाल, एक ही बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि बिहार की राजनीति में जातीय विमर्श का अगला अध्याय आरंभ हो गया है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)