शाहजहाँ ने किस तरह बनवाया आगरा का ताज महल?
शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज़ महल की याद में आगरा में यमुना के तट पर ताज महल बनवाया था. शाहजहाँ के 430वें जन्मदिन पर रेहान फ़ज़ल बता रहे हैं ताज महल के बनने की कहानी
शाहजहाँ का क़द दरमियानी था लेकिन वो गठीले बदन और चौड़े कंधों के मालिक थे. जब तक वो सिर्फ़ शहज़ादे थे उन्होंने अपने पिता जहाँगीर और दादा अकबर की तरह सिर्फ़ मूछें रखीं लेकिन जब वो बादशाह बने तो उन्होंने दाढ़ी रखनी शुरू कर दी.
शाहजहाँ की शख़्सियत का एक हिस्सा मुग़ल शान और वैभव को दर्शाने के लिए बनाया गया था. शाहजहाँ को अपने पिता जहाँगीर की तरह मूड स्विंग्स नहीं होते थे. वो मृदुभाषी और विनम्र थे और हमेशा औपचारिक भाषा में बात करते थे.
मुग़लों पर एक क़िताब 'एम्परर्स ऑफ़ द पीकॉक थ्रोन द सागा ऑफ़ द ग्रेट मुगल्स' लिखने वाले अबराहम इराली लिखते हैं, "शाहजहाँ के लिए आत्मनियंत्रण सबसे बड़ा गुण था. इसकी झलक शराब के प्रति उनके दृष्टिकोण से मिलती है. 24 साल की उम्र में पहली बार उन्होंने शराब का स्वाद चखा वो भी तब जब उनके पिता ने उसे चखने के लिए उन्हें मजबूर किया. अगले छह सालों तक उन्होंने कभी-कभार ही शराब चखी. साल 1620 में जब वो दक्षिण के अभियान पर निकले तो उन्होंने पूरी तरह से शराब छोड़ दी और अपनी शराब के पूरे भंडार को चंबल नदी में उड़ेल दिया."
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मुमताज़ महल को पूरी तरह समर्पित
शाहजहाँ एक परंपरावादी मुसलमान ज़रूर थे लेकिन वो संत या वैरागी नहीं थे. शान-ओ-शौक़त से उनका प्यार अपने पिता जहाँगीर से कम नहीं था. इतालवी इतिहासकार निकोलाओ मनूची लिखते हैं, "राजपाट से अपना ध्यान बंटाने के लिए शाहजहाँ संगीत और नृत्य का सहारा लिया करते थे. विभिन्न संगीत वाद्य और शेरो-शायरी सुनना उनकी आदत थी. वो खुद भी अच्छा ख़ासा गा लेते थे. उनके साथ गाने और नाचने वाली लड़कियों का एक समूह हमेशा चलता था जिन्हें कंचन नाम से पुकारा जाता था."
वैसे तो शाहजहाँ की अय्याशी के बहुत से किस्से मशहूर हैं लेकिन जब तक उनकी पत्नी मुमताज़ महल जीवित रहीं, वो पूरी तरह से उनके प्रति समर्पित थे, यहाँ तक कि उनकी दूसरी पत्नियों की उनके निजी जीवन में बहुत कम जगह थी.
शाहजहाँ के दरबारी इतिहासकार इनायत ख़ाँ अपनी किताब 'शाहजहाँनामा' में लिखते हैं, "दूसरी महिलाओं के प्रति शाहजहाँ की भावनाएं मुमताज़ महल के प्रति उनकी भावना का एक हज़ारवाँ हिस्सा भी नहीं थीं. चाहें वो महल में हों या बाहर, वो उनके बग़ैर नहीं रह सकते थे."
अंतिम क्षणों में मुमताज़ ने करवाया वादा
मुमताज़, जिनसे शाहजहाँ को बेपनाह प्यार था, न सिर्फ़ बला की खूबसूरत थीं बल्कि वो राजपाट में भी उन पर उसी तरह निर्भर रहा करते थे जैसे जहाँगीर नूरजहाँ पर. कहा जता है कि शाहजहाँ के गद्दी सँभालने के चार वर्ष के अंदर ही मुमताज़ का निधन हो गया वरना मुग़ल सिंहासन पर उनका प्रभाव कहीं और अधिक दिखाई देता.
इनायत ख़ाँ लिखते हैं, "अंतिम क्षणों में जब मुमताज़ बहुत कमज़ोर हो गईं थीं. उन्होंने बादशाह से एक वादा करवाया कि वो किसी और महिला से संतान नहीं पैदा करेंगे. उन्होंने कहा कि उन्होंने सपने में एक ऐसा सुंदर महल और बाग़ देखा जैसा इस दुनिया में कहीं नहीं है. मेरी आपसे गुज़ारिश है कि आप मेरी याद में वैसा ही एक मक़बरा बनवाएं."
मुमताज़ ने 17 जून, 1631 को बुरहानपुर में अंतिम साँस ली. अपने 14वें बच्चे को जन्म देते समय उनकी प्रसव पीड़ा 30 घंटों तक चली थी.
इससे पहले शाहजहाँ ने ज़रूरतमंदों को इस उम्मीद में पैसे बँटवाए कि शायद ख़ुदा उनकी पत्नी को बचा ले, लेकिन तमाम डॉक्टरों और हकीमों की कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका.
शाहजहाँ की दाढ़ी अचानक सफ़ेद हुई
इनायत ख़ाँ लिखते हैं "शाहजहाँ पर इस मौत का बहुत बुरा असर हुआ. वो इतने ग़मज़दा थे कि पूरे एक हफ़्ते तक न वो अपने कक्ष से बाहर आए और न ही उन्होंने राजपाट के किसी काम में हिस्सा लिया. उन्होंने संगीत सुनना, गाना और अच्छे कपड़े पहनना सब कुछ छोड़ दिया. अगले दो सालों तक और उसके बाद हर बुधवार को जिस दिन मुमताज़ का निधन हुआ था, उन्होंने सिर्फ़ सफ़ेद कपड़े ही पहने. लगातार रोने की वजह से उनकी आँखें कमज़ोर हो गईं और उन्हें चश्मा पहनने के लिए मजबूर होना पड़ा."
"इस घटना से पहले उनकी दाढ़ी और मूछों में इक्का-दुक्का ही सफ़ेद बाल हुआ करते थे जिन्हें वो अपने हाथ से तोड़ कर फेंका करते थे. लेकिन कुछ दिनों के भीतर उनकी एक तिहाई दाढ़ी सफ़ेद हो गई. एक समय पर उन्होंने राजगद्दी छोड़ने का भी मन बनाया लेकिन फिर उन्होंने ये सोच कर ऐसा नहीं किया कि बादशाहत एक पवित्र ज़िम्मेदारी है जिसे निजी परेशानी के कारण नहीं छोड़ा जा सकता."
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मुमताज़ महल को तीन बार दफ़नाया गया
मुमताज़ महल को पहले बुरहानपुर में तापी नदी के किनारे एक बाग़ में दफ़नाया गया. छह महीने बाद उनके पार्थिव शरीर को वहाँ से निकाल कर 15 वर्षीय शहज़ादे शाह शुजा की देखरेख में आगरा लाया गया जहाँ 8 जनवरी, 1632 को उन्हें यमुना के किनारे दोबारा दफ़नाया गया. लेकिन ये भी उनका अंतिम विश्रामस्थल नहीं था.
वहीं पर शाहजहाँ ने उनका मक़बरा बनवाया जिसे उन्होंने 'रउज़ा-ए-मुनव्वरा' का नाम दिया जिसे बाद में ताज महल कहा जाने लगा. मीर अब्दुल करीम और मकरमत ख़ाँ को इस मक़बरे को बनवाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.
मुकम्मत ख़ाँ जहाँगीर के शासनकाल में दक्षिणी ईरान के शीराज़ शहर से भारत आए थे. शाहजहाँ ने उन्हें अपना निर्माण मंत्री बनाया. वर्ष 1641 में उन्हें दिल्ली का गवर्नर बनाया गया. उनको ही नए शहर शाहजहानाबाद में लाल किला बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.
ताजमहल को 1560 के दशक में दिल्ली में बने हुमायूँ के मक़बरे की तर्ज़ पर बनाया गया था. इसके लिए 42 एकड़ ज़मीन चुनी गई थी. उसकी चारों मीनारें 139 फ़ीट ऊँची थीं और सबके ऊपर एक छतरी लगाई गई थी.
मकराना से लाया गया संगमरमर
ताजमहल बनवाने का फ़ैसला करने के बाद शाहजहाँ की पहली चुनौती थी इस मकबरे के लिए जगह चुनना.
ताजमहल पर क़िताब लिखने वाले डायना और माइकल प्रेस्टन लिखते हैं, "शाहजहाँ का पहला मापदंड था कि ताजमहल की जगह शाँत और आगरा शहर से दूर होनी चाहिए. दूसरा मापदंड था कि ये इमारत इतनी बड़ी हो कि इसे दूर से देखा जा सके और तीसरा ये कि ये यमुना नदी के पास हो ताकि इसके बाग़ों की सिंचाई के लिए पानी कम न पड़े. शाहजहाँ ये भी चाहते थे कि ताज महल आगरा के किले से दिखाई दे जहाँ वो रहा करते थे. शाहजहाँ ने इसके लिए आगरा किले से डेढ़ मील दूर की जगह चुनी."
ताजमहल के निर्माण का काम जनवरी 1632 में शुरू हुआ था. तब तक शाहजहाँ दक्षिण में ही थे.
उस समय भारत यात्रा पर आए पीटर मंडी ने अपनी किताब 'ट्रेवेल्स ऑफ़ पीटर मंडी इन यूरोप एंड एशिया' में लिखा, "सबसे पहले उस इलाक़े को साफ़ कर सारी ज़मीन को बराबर किया गया. इसके बाद हज़ारों मज़दूरों ने दिन रात काम कर भवन की गहरी नींव खोदी. इस बात का ख़ास ध्यान रखा गया कि नज़दीक में बहने वाली यमुना नदी का पानी उसमें रिस कर न आ पाए और जून और सितंबर के बीच यमुना नदी में आने वाली बाढ़ का पानी ताज महल को नुकसान न पहुंचा सके. इसके बाद पहले 970 फ़ीट लंबा और 364 फ़ीट चौड़ा चबूतरा बनाया गया जिसपर फिर मकबरा बनवाया गया."
भवन में लगने वाला संगमरमर 200 मील दूर मकराना से लाया गया. एक पुर्तगाली आगंतुक सिबेस्टियाओ मेनरीक ने लिखा, "ताजमहल में इस्तेमाल किए गए संगमरमर के कुछ टुकड़े इतने बड़े थे कि उन्हें बैलों और लंबी सींगों वाले भैसों ने अपना बहुत पसीना बहा कर आगरा तक पहुंचाया था. उन्हें ख़ास तौर से बनी बैलगाड़ियों में लाया गया था जिसे पच्चीस से तीस मवेशी खींचते थे."
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मज़दूरों के हाथ कटवाने का किस्सा सही नहीं
ताजमहल पर किताब 'ताजमहल पैशन एंड जीनियस एट द हार्ट ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर' के लेखक डायना और माइकल प्रेस्टन लिखते हैं, "ताजमहल को बनाने के लिए बाँस और लकड़ी की बल्लियों और ईटों का का एक मचान बनाया गया. जब काम पूरा हो गया तो शाहजहाँ को बताया गया कि ईटों के मचान को गिराने में पाँच साल का समय लग जाएगा. इस पर शाहजहाँ ने आदेश दिया कि गिराई गई सभी ईंटें उन मज़दूरों की हो जाएंगीं."
"नतीजा ये हुआ कि रातोंरात वो मचान गिरा दिया गया. ये एक मिथक है कि ताज महल को पूरी तरह बन जाने से पहले बाहरी नज़रों से बचाने के लिए उस मचान को बनाया गया था. इस कहानी में भी कोई दम नहीं है कि एक बार जब एक व्यक्ति ने दीवार के बाहर से ताज महल को बनते देख लिया था तो उसकी आँखें फोड़ दी गई थीं."
ताज महल का हर गाइड अभी भी वो किस्सा बताते नहीं थकता कि किस तरह शाहजहाँ ने ताज महल बनाने वाले हर मज़दूर के हाथ कटवा दिए थे ताकि वो दुनिया के इस आठवें आश्चर्य को दोबारा नहीं बनवा सके. लेकिन इस घटना के भी कोई साक्ष्य नहीं मिलते और न ही किसी इतिहासकार ने इसका ज़िक्र किया है.
शाहजहाँ की जीवनी 'शाहजहाँ द राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ द मुग़ल एम्परर' लिखने वाले फ़र्गुस निकोल लिखते हैं, "ताजमहल बनाने वाले अधिकतर मज़दूर कन्नौज के हिंदू थे. फूलों की नक्काशी करने वालों को पोखरा से बुलाया गया था. कश्मीर के राम लाल को बगीचे बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी."
ताज महल पर कुरान की आयतों और फूलों की नक्काशी
अमानत ख़ाँ को ताजमहल पर कुरान की आयतों की नक्काशी करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी. वो अकेले शख़्स थे जिन्हें शाहजहाँ ने ताज महल पर अपना नाम लिखने की इजाज़त दी थी.
कुरान के आयतों के अलावा ताज महल में फूलों की नक्काशी इतनी ज़बरदस्त थी की दो शताब्दी बाद रूसी लेखिका हेलेना ब्लावत्सकी ने लिखा, "ताज महल की दीवारों पर बनाए गए कुछ फूल इतने असली दिखते थे कि हाथ अपने आप उन्हें छूने के लिए बढ़ जाते थे कि वो असली तो नहीं हैं."
बहुमूल्य रत्नों को दीवारों पर जड़ा गया
ताज महल की इमारत में 40 अलग-अलग रत्नों को जड़ा गया था जिन्हें शाहजहाँ ने एशिया के अलग-अलग हिस्सों से मंगवाया था.
डायना और माइकल प्रेस्टन लिखते हैं, "हरे रंग के पत्थर जेड को सिल्क रूट से काशगर, चीन से लाया गया था. नीले रंग के पत्थर लैपीज़ लज़ूली को अफ़गानिस्तान की खानों से मंगवाया गया था. फ़िरोज़ा तिब्बत से लाए गए थे जबकि मूँगा को अरब और लाल सागर से मंगवाया गया था. पीले अंबर को ऊपरी बर्मा और माणिक को श्रीलंका से लाया गया था. लहसुनिया पत्थर को मिस्र में नील घाटी से मंगवाया गया था. नीलम को अशुभ माना जाता था इसलिए उनका इस्तेमाल नहीं के बराबर किया गया था."
ताज महल बनवाने में लगे थे चार करोड़ रुपए
शाहजहाँ के समय के इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने ताज महल के बनने की कीमत 50 लाख रुपए बताई है. लेकिन दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि ये कीमत सिर्फ़ मज़दूरों को दिए जाने वाले वेतन की है और इसमें भवन में लगने वाले सामान के मूल्य को शामिल नहीं किया गया है.
बाद में मिले दस्तावेज़ों के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने ताज महल के बनने की कीमत 4 करोड़ रुपए आँकी है. भवन के निर्माण का सारा पैसा सरकारी ख़ज़ाने और आगरा प्रांत के ख़ज़ाने से दिया गया. आने वाले समय में ताज महल के रखरखाव के लिए शाहजहाँ ने आदेश दिया था कि आगरा के आसपास के तीस गावों से मिलने वाली मालगुज़ारी का इस्तेमाल इस काम में किया जाए.
शाहजहाँ को मुमताज़ महल की कब्र के बग़ल में दफ़नाया गया
जब 1659 में शाहजहाँ के बेटे औरंगज़ेब ने अपने पिता को गद्दी से उतारकर उन्हें कैद कर दिया तो कुछ दिनों बाद वो बीमार पड़ गए. जब उन्हें ये लगने लगा कि अब उनके पास पहुत अधिक समय नहीं बचा है तो उन्होंने इच्छा प्रकट की कि उन्हें उस छज्जे पर रखा जाए जहाँ से वो हर समय ताज महल को देख सकें.
उसी छज्जे पर कश्मीरी शॉल में लिपटे हुए शाहजहाँ ने 21 जनवरी, 1666 को इस दुनिया को अलविदा कहा. उस समय उनकी बेटी जहाँ आरा उनके साथ थीं. उनके पार्थिव शरीर को संदल की लकड़ी से बने ताबूत में लिटाया गया.
उनकी बेटी चाहती थीं कि राजकीय ढंग से अंतिम संस्कार किया जाए लेकिन औरंगज़ेब ने उनकी इस इच्छा का सम्मान नहीं किया. उन्हें चुपचाप कुरान की आयतों के उच्चारण के बीच ताज महल में उनकी पत्नी मुमताज़ महल की बग़ल में दफ़ना दिया गया.
अंग्रेज़ों के ज़माने में ताज महल की बेकदरी
मुग़लों के पतन के बाद 1803 में अंग्रेज़ जनरल लेक का आगरा पर कब्ज़ा हो गया. इसके साथ ही ताज महल की दीवारों में जड़े मूल्यवान रत्न, कालीनें और वॉल हैंगिग्स ग़ायब होने लगे.
अंग्रेज़ों ने ताज महल के अंदर स्थित मस्जिद को किराए पर उठा दिया और उसके चारों तरफ़ हनीमून कॉटेज बना दिए. मकबरे के चबूतरे पर सैनिक बैंड बजाया जाने लगा और ताज महल के बगीचे में पिकनिक पार्टियाँ होने लगीं.
इस दौरान ये अफ़वाह भी उड़ी कि 1830 के दौरान ब्रिटिश गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक ने ताज महल को गिरा कर उसका संगमरमर नीलाम करने के बारे में सोचा.
1857 के विद्रोह के दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने कुछ मुग़ल इमारतों को नुकसान पहुंचाया. उनमें से एक था मुमताज़ महल के पिता आसफ़ ख़ाँ का महल. लेकिन ताज महल किसी तरह सुरक्षित बचा रहा. बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश वॉयसराय लॉर्ड कर्ज़न ने ताज महल की मरम्मत में गहरी रुचि दिखाई.
1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान नज़दीक के हवाई ठिकाने पर पाकिस्तानी हवाई हमले की आशंका को देखते हुए भारत सरकार ने ताज महल को ढकने के लिए काले रंग का विशालकाय कपड़ा सिलवाया ताकि उसे चाँदनी रात में ऊपर से नहीं देखा जा सके.
ये कपड़ा वर्ष 1995 तक तो सुरक्षित रहा. लेकिन जब उसे चूहों ने जगह-जगह से कुतर दिया, तो उसे नष्ट कर दिया गया.
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