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बाबासाहब अंबेडकर ने विजयादशमी के दिन ही क्यों अपनाया बौद्ध धर्म?

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विजयादशमी सनातन संस्कृति का महत्वपूर्ण त्यौहार है। बुराई पर अच्छाई और रावण पर राम की जीत के पर्व के रूप में प्रसिद्ध विजयादशमी के दिन आधुनिक भारतीय इतिहास की भी दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई हैं।

vijayadashami 2022 Ambedkar became Buddhist on Vijay Dashmi

भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर भारतीय जनता पार्टी के उभार और सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ी भूमिका में इस अहम दिवस को नए ऐतिहासिक संदर्भों में लोग जान चुके हैं। यहां याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि इसी दिन 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी। इसके ठीक 31 साल बाद इसी त्यौहार के दिन नागपुर में ही दूसरी महत्वपूर्ण घटना घटी।

विजयादशमी के पवित्र दिन अंबेडकर बौद्ध बने

विजया दशमी के दिन 1956 में बाबा साहब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। यह संयोग है या कुछ और, देश के ठीक मध्य केंद्र के रूप में स्वीकार्य नागपुर में एक ही त्यौहार के दिन भारतीय राज समाज पर गहरा असर डालने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना होती है, तो बीसवीं सदी के सबसे अहम भारतीय व्यक्तित्व भीमराव अंबेडकर की जिंदगी में बदलाव आता है।

अंबेडकर की जिंदगी से जुड़े इस महत्वपूर्ण सनातनी तथ्य को कम लोग समझते हैं। भीमराव अंबेडकर जब भी चर्चा में आते हैं, उनकी शख्सियत को सनानत संस्कृति विरोधी बताने की एक वर्ग द्वारा होड़ मच जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में बाबा साहब के व्यक्तित्व का गलत आकलन किया जाता है।

वसंत मनु ने अंबेडकर की जीवनी लिखी है। इस जीवनी के मुताबिक, बाबा साहब ने बौद्ध धर्म को अंगीकार करने के लिए ज्योतिषीय गणना के मुताबिक 1956 की विजया दशमी का पवित्र दिन चुना था। बाबा साहब के बौद्ध धर्म अंगीकार करने के बाद भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति और दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने कहा था, "आप सही मायने में हिंदू हो गए।"

राधाकृष्णन के इस कथन से साफ है कि बाबा साहब ने हिंदुत्व या सनातन संस्कृति की आलोचना नहीं की। बल्कि राष्ट्रीयता की संस्कृति के सर्वाधिक नजदीक रहने के लिए बौद्ध धर्म चुना था।

धर्मांतरण के लिए नागपुर का चयन क्यों?

हिंदुत्व विरोधी वृतांतों में यह तर्क दिया जाता है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म हिंदुत्व से नाराजगी के चलते अपनाया था। सनातन विरोधी ताकतें यह भी बताते नहीं अघाती कि अंबेडकर ने मतांतर के लिए नागपुर का चयन इसलिए किया, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना यहीं हुई और यही उसका मुख्यालय है। यह सवाल 1956 में भी उठा था। इसका भान अंबेडकर को भी था, इसलिए धर्मान्तरण के समय उन्होंने जो भाषण दिया था, उसकी शुरूआत ही बाबा साहब ने इसी मुद्दे को लेकर की थी।

उन्होंने तब बताया था कि नागपुर का चयन उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि वह शास्त्रीय रूप से शुद्ध है। इस मौके पर बाबासाहब ने अपने दूसरे दिन के भाषण में कहा था कि चूंकि बौद्धधर्म के प्रसार का सम्बन्ध नाग लोगों से रहा है, इसी वजह से दीक्षा विधि के लिए उन्होंने नागपुर को चुना है। उन्होंने कहा- 'कुछ लोग कहते हैं कि आरएसएस की बड़ी पलटन नागपुर में होने के कारण, जानबूझकर उनकी छाती पर हमने यह सभा इस शहर में ली है, पर यह सत्य नहीं है।'

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ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर बाबा साहब ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को क्यों अपनाया? बाबा साहब ने अरसा पहले ही धर्मांतरण का सोच लिया था। इसकी घोषणा उन्होंने 1935 में की थी।

जब उन्होंने ऐसी घोषणा की तो उनके पास ईसाई मिशनरियों और इस्लामी ताकतों का आवागमन शुरू हो गया था। अंबेडकर को इस्लाम अपनाने के लिए हैदराबाद के निजाम मुंबई में उन दिनों छह करोड़ रूपए लेकर घूमते रहे। लेकिन अंबेडकर ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया।

तब की जनगणना के मुताबिक भारत में अनुसूचित जाति-जनजाति की जनसंख्या करीब छह करोड़ थी। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि निजाम ने अंबेडकर को एक तरह से इस जनसंख्या की कीमत लगाई थी। लेकिन जब तक निजाम मुंबई में रहे, तब तक अंबेडकर घर से निकले ही नहीं।

हिन्दू धर्म नहीं अस्पृश्यता से आहत थे अंबेडकर

अंबेडकर दरअसल हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता और छूआछूत की भावना से आहत थे। वे धर्म से नाराज नहीं थे। बल्कि धर्म का सम्मान करते थे। उन्हें धर्म की बजाय समाज की कुरीतियों से नाराजगी थी।

धर्म के बारे में अंबेडकर के विचार को समझना हो तो 31 मई 1936 को मुंबई में दिए गए उनके भाषण को देखना चाहिए। इसमें उन्होंने कहा था, 'मैं धर्मभीरु नहीं हूँ । जो लोग मेरे सम्पर्क में आते हैं, उन्हें मालूम है कि धर्म के प्रति मेरे मन में कितनी श्रद्धा व प्रेम है।' स्पष्ट है कि उनकी कल्पना किसी उपासना-पद्धति की बजाय मनुष्य के आपसी व्यवहार, बन्धुता व नीतिसूत्र की आध्यात्मिक प्रेरणा से जुड़ी थी। उनका मानना था कि ऐसा बन्धुभाव, शील हिन्दू धर्म खो बैठा है।

अंबेडकर इसके बावजूद सनातन धर्म से एकदम निराश नहीं थे। इसे उनके इस कथन से समझा जा सकता है, 'कुछ लोगों को लगता है कि समाज को धर्म की आवश्यकता नहीं है। मैं उनके इस मत से सहमत नहीं हूँ। मेरा मत है कि समाज जीवन का व्यवहार धर्म की नींव पर अधिष्ठित होना ही चाहिए।' भारत के स्वाधीन होने के बाद तीन अक्टूबर 1954 को उन्होंने आकाशवाणी के जरिए देश को संबोधित किया था। इस संबोधन में भी उन्होंने बंधुत्व और मानवता को ही धर्म का पर्यायवाची साबित करने की कोशिश की थी।

अंबेडकर के बारे में अध्ययन करने वाले जानकार मानते हैं कि उनका यह भाषण दरअसल मुंबई के उनके भाषण और धर्म को लेकर उनकी सोच का ही विस्तार है। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अंबेडकर पर गहन अध्ययन किया है। ठेंगड़ी का भी आंकलन और निष्कर्ष कुछ ऐसा ही है।

साल 2015 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा' में ठेंगड़ी ने लिखा है '1935 तक बाबा साहब की यह धारणा दृढ़ थी कि हम हिन्दू समाज के अभिन्न अंग हैं। हिन्दू समाज से मिली निराशा के कारण उन्हें अपने व्यापक एकात्म हिन्दू समाज के ध्येय को एक ओर रखना पड़ा।'

सिख, इस्लाम और बौद्ध धर्म

बाबा साहब अंबेडकर ने जब धर्मांतरण का मत व्यक्त किया तो उन्हें सिख धर्म में लाने की कोशिश भी हुई। उनके जीवनीकारों के मुताबिक, वो 1938 में सिख धर्म अपनाने को तैयार हो गए थे। उनसे नासिक में श्री प्रधान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल मिलने आया था। उनसे बाबा साहब ने साफ कहा था कि वे सिख धर्म स्वीकार करने की सोच रहे हैं। तभी उन्होंने यह भी स्पष्ट किया, 'मैं इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करूँगा।'

इस्लाम को लेकर बाबा साहब की क्या सोच थी, इसे 11 जनवरी 1950 को मुम्बई में दिए उनके भाषण से समझा जा सकता है। यह भाषण उन्होंने अपने सम्मान समारोह में दिया था। तब बाबा साहब ने कहा था, 'यह कहकर पिछले 20 वर्षों से मेरी निन्दा की जा रही है कि मैं ब्रिटिशों का बगल-बच्चा हूँ, मुसलमानों की ओर मेरा झुकाव है। अब मुझे यह लगता है कि संविधान निर्माण के मेरे कार्य को देखकर हिन्दू मुझे अच्छी तरह जानेंगे व यह अनुभव करेंगे कि मेरे ऊपर लगाये गये आरोप किस कदर झूठे थे ।'

हिंदू कोड बिल पास होने के बाद एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था, 'मेरी आलोचना में यह कहा जाता है कि मैं हिन्दू धर्म का शत्रु हूँ, विध्वंसक हूँ। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा, जब लोग यह अनुभव करेंगे कि मैं हिन्दू समाज का उपकारकर्ता हूँ और तब वे मुझे धन्यवाद देंगे।'

बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के मुद्दे पर बाबा साहब ने जो कहा था, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था, 'बौद्धधर्म स्वीकार कर मैं इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूँ; क्योंकि बौद्धधर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है। मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परम्परा को धक्का न लगे।' उन्होंने आगे कहा था, 'स्पृश्य हिन्दुओं से कुछ मुद्दों पर मेरा झगड़ा है। पर अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए मैं अपने प्राण अर्पण करने में पीछे नहीं रहूंगा।'

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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