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स्वतंत्रता के बाद तिरंगे के सम्मान के लिए संघ का संघर्ष और बलिदान

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जवाहर लाल नेहरू सरकार की बहुसंख्यक वर्ग से अनदेखी और जम्मू-कश्मीर के विवादास्पद मुद्दे पर उनकी असंवेदनशीलता से दुखी होकर 1951 में प्रखर राष्ट्रभक्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया तथा तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवरकर (गुरूजी) के आशीर्वाद से 'भारतीय जनसंघ' नामक राष्ट्रीय विचार केन्द्रित दल का गठन किया। गुरूजी ने पं. दीनदयाल उपाध्याय सहित 11 अन्य स्वयंसेवक डॉ. मुखर्जी को दिए ताकि वे नए दल का कार्य सुचारू रूप से चला सकें।

RSS struggle and sacrifice for the Tricolor after independence

डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था। एक ही देश में दो झण्डे और दो विधान उन्हें पसंद नहीं थे और वे संसद सदस्य के रूप में अपने भाषणों में धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत किया करते थे।

अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालीन नेहरू सरकार को इस सम्बन्ध में चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे और जम्मू की प्रजा परिषद् पार्टी के साथ आन्दोलन छेड़ दिया।

अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 08 मई, 1953 को बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. बर्मन, वैद्य गुरुदत्त, टेकचंद सहित सैकड़ों कार्यकर्ता थे। कार्यकर्ता हाथों में तिरंगा लहराते हुए डॉ. मुखर्जी का उत्साह बढ़ा रहे थे। जम्मू की सीमा पर पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर दिया गया। 40 दिनों तक जेल में नजरबन्द रहने के पश्चात 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। डॉ. मुखर्जी की मृत्यु ने देश को झकझोर कर रख दिया। जनसंघ के संस्थापक ने तिरंगे की आन-बान-शान के लिए मृत्यु का वरण किया।

दो वर्ष बाद 1955 की घटना। भारत को स्वतंत्र हुए 08 वर्ष हो चुके थे किन्तु गोवा अभी भी परतंत्र था। नेहरू सरकार गोवा की मुक्ति हेतु सदा से उदासीन थी। इन परिस्थितियों में बाल गंगाधर तिलक के पुत्र जयवंत राव तिलक की अध्यक्षता में गोवा मुक्ति विमोचन समिति का पूना में गठन किया गया।

गोवा की मुक्ति हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने स्वयंसेवकों से आह्वान किया कि वे 15 अगस्त को गोवा की धरती पर तिरंगा फहराएं। उज्जैन से संघ प्रचारक राजाभाऊ महाकाल अपने समर्थकों के साथ पूना स्थित केसरी भवन पहुंचे जहाँ देशभर से संघ स्वयंसेवक एकत्रित हुए थे। यहीं आंदोलन की रूपरेखा बनाई गई और 14 अगस्त की रात में लगभग 400 सत्याग्रही गोवा की सीमा पर पहुंच गये।

योजनानुसार 15 अगस्त को प्रातः दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण प्रारम्भ होते ही सीमा से सत्याग्रहियों का कूच होना था। उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व राजाभाऊ कर रहे थे। सभी सत्याग्रही सरसोली पहुंचे जहाँ उन्हें रोकने के लिए पुर्तगालियों की फौज थी। संघ प्रचारक वसंतराव ओक के पीछे-पीछे सत्याग्रही गोवा की सीमा पार करने लगे। पुर्तगाली सैनिकों ने चेतावनी दी पर सत्याग्रही नहीं रुके।

संघ प्रचारक राजाभाऊ हाथ में तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे थे। इतने में ही पुर्तगाली सेना ने गोलियां चला दीं। इस गोलीबारी में वसंतराव ओक के पैर में गोली लगी। तीन-चार गोलियां खाने के बाद भी उन्होंने तिरंगा नहीं छोड़ा। इसी बीच पंजाब के सत्याग्रही हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी और वे गिर पड़े। उनके गिरने के तुरंत पश्चात सागर की बहन सत्याग्रही सहोदरा देवी ने तिरंगा अपने हाथों में थाम लिया। इस बहन की वीरता तो देखिये, बाएं हाथ पर गोली लगने के बाद इस बहन ने दाएं हाथ में तिरंगे को थाम लिया। एक और गोली लगने के बाद यह वीर बहन तिरंगे के लिए बलिदान हो गई।

भारत माँ की इस वीरांगना की वीरगति के तुरंत पश्चात उज्जैन के प्रचारक राजाभाऊ महाकाल ने भारत माता के उद्घोष के साथ तिरंगा लहरा दिया। पुलिस की ताबड़तोड़ गोलीबारी के कारण राजाभाऊ गिर गए। एक अन्य स्वयंसेवक सत्याग्रही ने तिरंगे को पकड़ा। इस पर भी राजाभाऊ बढ़ते रहे। अंततः पुर्तगाली सैनिकों ने उनके सिर को निशाना बनाते हुए गोली मार दी। इससे राजाभाऊ की आंख और सिर से रक्त के फव्वारे छूटने लगे और वे वहीं गिर पड़े।

साथ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को संभाला और उन्हें वहां से हटाकर चिकित्सालय में भर्ती कराया। उन्हें जब भी होश आता, वे पूछते कि सत्याग्रह कैसा चल रहा है? अन्य साथी कैसे हैं? गोवा स्वतन्त्र हुआ या नहीं? हालांकि चिकित्सकों के अथक प्रयासों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।

संघ प्रचारक राजाभाऊ तथा अन्य बलिदानियों के शव पूना लाये गये। वहीं उनका अंतिम संस्कार होना था जिसके कारण प्रशासन ने धारा 144 लगा दी किन्तु उनके बलिदान से आक्रोशित जनसैलाब तमाम प्रतिबन्धों को तोड़कर तिरंगा लेकर सड़कों पर उमड़ पड़ा। राजाभाऊ के मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने उन्हें मुखाग्नि दी।

राजाभाऊ की अस्थियाँ जब उज्जैन लाई गईं तो उज्जैनवासियों ने हाथी पर उनका चित्र तथा बग्घी में अस्थिकलश रखकर भव्य शोभायात्रा निकाली। पूरे राजकीय सम्मान के साथ उन अस्थियों को पवित्र क्षिप्रा नदी में विसर्जित किया गया। उज्जैन में निकली यह एक ऐसी ऐतिहासिक शवयात्रा थी जिसमें शामिल हजारों लोगों का कोई ओर-छोर ही नहीं था।

संघ प्रचारक राजाभाऊ भी तिरंगे की आन-बान-शान के लिए वीरगति को प्राप्त हुए। और संयोग देखिये कि राजाभाऊ का जन्म 26 जनवरी, 1923 को हुआ और मृत्यु का वरण उन्होंने 15 अगस्त, 1955 को किया। मानों साक्षात ईश्वर ने उन्हें इस कार्य के लिए चुना था। उनके बलिदान के 7 वर्ष बाद गोवा को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त हो सकी थी।

25 जून, 1975। इंदिरा गाँधी ने सत्ता के लालच में देश पर आपातकाल थोप दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लोकतंत्र और तिरंगे की अस्मिता को बचाने के लिए इंदिरा सरकार के विरुद्ध जनआन्दोलन छेड़ दिया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जब आन्दोलन उग्र हुआ तो इंदिरा सरकार ने दमनकारी चक्र चलाया। हजारों की संख्या में संघ के स्वयंसेवक जेल में डाल दिए गए। उन पर भयावह अमानवीय अत्याचार किये गए।

संघ के कई स्वयंसेवकों की जेल में ही पुलिस प्रताड़ना से मृत्यु हुई जिस पर माणिकचंद वाजपेयी (मामाजी) ने पुस्तक 'आपातकाल की संघर्षगाथा' लिखी जिसमें उन सभी स्वयंसेवकों के नाम-पते हैं जिनकी असमय मृत्यु का दोष निश्चित रूप से इंदिरा गाँधी को दिया जाना चाहिए। उन दिनों जो भी सड़कों पर झंडा लेकर निकलता, पुलिस उसे पीटकर जेल में डाल देती। इन पूरे दो वर्षों के दौरान संघ आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। आखिर एक समय आया कि इंदिरा गाँधी ने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल वापस लेने की घोषणा की। संघ ने यहाँ भी तिरंगे की आन-बान-शान के लिये कड़ा संघर्ष किया।

2002 में फ्लैग कोड में बदलाव के बाद हर वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को देशभर के संघ कार्यालयों में शान से तिरंगा फहराया जाता है। 2002 से पूर्व केंद्र सरकारों की उदासीनता ने फ्लैग कोड में बदलाव करने की नीयत ही नहीं दिखाई। पहले झंडारोहण के कार्यक्रमों में सरसंघचालक झंडा फहराते थे। बाद में सरकार्यवाह तथा सह-सरकार्यवाह भी प्रवास स्थान पर झंडावंदन करने लगे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'हर घर तिरंगा अभियान' को सफल बनाने के लिए संघ ने पूरे देश में तिरंगे बाँटने की योजना बनाई है। दिल्ली प्रांत में ही 20 लाख से अधिक झंडों का आर्डर दिया जा चुका है तथा 15 लाख झण्डे बनकर आ चुके हैं। संघ के स्वयंसेवक जनता को न केवल तिरंगा दे रहे हैं बल्कि उसका सही प्रयोग व सम्मान भी सिखा रहे हैं। इतने पर भी यदि कोई कहे कि संघ तिरंगे का सम्मान नहीं करता, तो इसे हास्यास्पद ही कहा जाएगा।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
RSS struggle and sacrifice for the Tricolor after independence
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