रूस को पश्चिमी देशों ने मारी लंगड़ी, लेकिन भारत और चीन के दोनों हाथ में लड्डू
जी-7 और सहयोगी देशों ने कहा है कि रूस को अब 60 डॉलर प्रति बैरल से कम क़ीमत पर तेल बेचना होगा, लेकिन रूस ने कहा कि उसे ये फ़ैसला मंज़ूर नहीं.
- जी-7, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया का रूस के कच्चे तेल पर प्राइस कैप लगाने का एलान
- रूस को अब 60 डॉलर प्रति बैरल से कम पर कच्चा तेल बेचना होगा
- रूस ने कहा- उसे ये फ़ैसला मंज़ूर नहीं, यूरोपीय देशों को तेल नहीं देगा
- रूस के इस फ़ैसले से भारत और चीन को और फ़ायदा हो सकता है
- इस फ़ैसले से शुरू में क़ीमतें बढ़ सकती हैं, लेकिन आगे गिरावट के आसार
जी-7, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया की ओर से रूस के कच्चे तेल पर प्राइस कैप लगाने और ओपेक प्लस देशों की ओर से उत्पादन न बढ़ाने के फ़ैसले से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम में फिर तेज़ी दिखाई देने लगी है.
इन फ़ैसलों की वजह से सोमवार को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम में तुरंत बढ़ोतरी देखने को मिली और ये 0.6 फ़ीसदी बढ़ कर 86 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गया.
दरअसल यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद सप्लाई चेन की परेशानियों की वजह से कच्चे तेल के दाम में तेज़ इज़ाफ़ा हुआ था. लेकिन हाल के दिनों में क्रूड फ़्यूचर के दामों में गिरावट आई है.
इसकी एक वजह कच्चे तेल के सबसे बड़े उपभोक्ता देश चीन में कोरोना की वजह से लगा लॉकडाउन है. इस लॉकडाउन की वजह से चीन में औद्योगिक गतिविधियाँ धीमी पड़ गई हैं और तेल की खपत कम हो गई है.
यूरोप और अमेरिका की अर्थव्यवस्था की गिरावट ने भी तेल की खपत पर असर डाला है. यही वजह है कि हाल के दिनों में इसके दाम गिरे हैं.
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद कच्चे तेल की क़ीमत 139 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गई थी. ये पिछले 14 साल का सर्वोच्च स्तर था. लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट शुरू हो गई और ये गिरते-गिरते 88 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गई.
लेकिन पिछले दो दिनों में दो नए फ़ैसलों ने तेल के दाम को लेकर एक बार फिर चिंता पैदा कर दी है.
पहले जी-7, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया ने रूस के तेल के दाम पर 60 डॉलर प्रति बैरल का प्राइस कैप लगाने का एलान किया. रूस ने इस फ़ैसले का विरोध किया है.
इसके बाद रूस की सदस्यता वाले ओपेक प्लस के 23 देशों ने कच्चे तेल के उत्पादन को जस का तस रखने का फ़ैसला किया है.
ओपेक प्लस देशों ने नवंबर से हर दिन तेल का उत्पादन 20 लाख बैरल घटाने का फ़ैसला किया था ताकि इसके गिरते हुए दाम को संभाला जा सके.
ओपेक प्लस देशों को लग रहा है कि इस समय उत्पादन बढ़ाया गया तो कच्चे तेल के दाम घटेंगे और उन्हें भारी घाटा होगा.
ग्लोबल अर्थव्यवस्था में सुस्ती की वजह से वो पहले ही अपने तेल की मांग में गिरावट को लेकर आशंका में थे.
अक्तूबर में लिया गया उत्पादन में कटौती का फ़ैसला इसी का नतीजा था.
लेकिन अब जी-7 और सहयोगी देशों की ओर से रूसी तेल पर प्राइस कैप लगाने और ओपेक प्लस के उत्पादन न बढ़ाने के फ़ैसले से हालात तेज़ी से बदल सकते हैं.
इन दोनों फ़ैसलों से भारत समेत उन तमाम देशों के सामने नई चुनौती खड़ी हो सकती है जो अपनी ज़रूरत का ज़्यादातर तेल आयात करते हैं. भारत अपनी खपत का 80 फ़ीसदी तेल बाहर से मंगाता है.
प्राइस कैप लगाने का फ़ैसला
पिछले सप्ताह जी-7 और ऑस्ट्रेलिया ने एक बयान जारी कर कहा कि सोमवार या इसके तुरंत बाद से रूस का तेल 60 डॉलर प्रति बैरल से ज़्यादा पर नहीं ख़रीदा जाएगा.
उनका कहना था कि यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस के वित्तीय संसाधनों को सीमित करने के लिए यह क़दम उठाया जा रहा है.
रूस की कमाई के सबसे बड़े स्रोत तेल और गैस की क़ीमतों को नियंत्रित किए बग़ैर यूक्रेन में उसे काबू करना मुश्किल है.
इस प्राइस कैप का मतलब है कि जी-7 देशों और ईयू के टैंकरों, इंश्योरेंस कंपनियों और क्रेडिट संस्थानों के ज़रिए जो तेल मंगाया जाएगा, वो 60 डॉलर प्रति बैरल से नीचे की क़ीमत का होगा.
भले ही रूस फ़िलहाल ये कह रहा है कि वो 60 डॉलर प्रति बैरल से कम क़ीमत पर अपना तेल नहीं बेचेगा. लेकिन उसके सामने अपने इस इरादे पर टिकना मुश्किल हो सकता है क्योंकि ज़्यादातर शिपिंग और इंश्योरेंस कंपनियाँ जी-7 देशों में ही हैं.
रूस ने कहा है कि वो इस तरह के फ़ैसले करने वाले देशों को अपना तेल और गैस नहीं बेचेगा.
नॉर्वे की एनर्जी कंसल्टेंसी रिस्टेड एनर्जी के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट जॉर्ज लियोन ने बीबीसी टुडे प्रोग्राम से कहा, ''इस फ़ैसले से तेल की क़ीमतें बढ़ सकती हैं. रूस अपने इस फ़ैसले को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है कि वो प्राइस कैप समझौते पर दस्तख़त करने वाले किसी भी देश को कच्चा तेल नहीं बेचेगा.''
उन्होंने कहा, ''तेल की क़ीमतों में हलचल दिख सकती है. इसलिए आने वाले कुछ हफ़्तों में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में तेज़ी दिखाई दे सकती है.''
लेकिन क्या दुनिया के मौजूदा आर्थिक और जियोपॉलिटिकल (भू-राजनीतिक) हालात में तेल के दाम में दिख रही ये बढ़ोतरी आगे बरक़रार रहेगी?
क्या रूस, जी-7 समेत यूरोपीय देशों को तेल सप्लाई न करने के अपने फ़ैसले पर टिका रहेगा?
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जी-7 का ये क़दम रूस के लिए कितनी बड़ी मुसीबत
रूस ने भले ही कहा है कि वह प्राइस कैप लगाने वाले देश को तेल और गैस की सप्लाई नहीं करेगा. लेकिन अपने फ़ैसले पर कब तक टिका रहेगा ये कहना कठिन है.
दरअसल पश्चिमी देशों के प्रतिबंध के बाद उसने चीन और भारत समेत कई देशों को निर्यात बढ़ाया है. भारत रूस से सस्ते में तेल ख़रीद रहा है.
भारत के तेल आयात में रूसी सप्लाई की हिस्सेदारी बढ़ कर 22 फ़ीसदी से ज़्यादा हो गई है. इराक़ की हिस्सेदारी 20.5 और सऊदी अरब की हिस्सेदारी 16 फ़ीसदी है.
ऊर्जा और अंतरराष्ट्रीय तेल मार्केट के विशेषज्ञ अरविंद मिश्रा बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहते हैं, ''यूक्रेन पर हमले के बाद पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों ने रूसी अर्थव्यवस्था को काफ़ी कमज़ोर कर दिया है. इसलिए घटी हुई दरों पर भी तेल बेचना उसकी मजबूरी होगी. इतनी जल्दी रूस और वैकल्पिक मार्केट नहीं ढूँढ सकता.''
रूस इस वक्त ग्लोबल मार्केट में तेल का सबसे बड़ा सप्लायर है. कच्चे तेल की सप्लाई के मामले में भी यह सऊदी अरब के बाद दूसरा बड़ा खिलाड़ी है.
लेकिन पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों ने उसे पहले से मुश्किल में डाल रखा है. अब जी-7 देशों के प्राइस कैप और दूसरे नियमों से उसका तेल कारोबार और दबाव में आ गया है.
जी-7 के नियमों के मुताबिक़, रूसी तेल ढोने वाले टैंकर को इंश्योरेंस और री-इश्योरेंस मुहैया कराने वाली जी-7 और यूरोपीय संघ के देशों की कंपनियाँ 60 डॉलर प्रति बैरल से अधिक क़ीमत वाला तेल ले जाने वाले रूसी कार्गों को फ़ाइनेंस नहीं कर सकेंगी.
अरविंद मिश्रा कहते हैं, ''तेल के अंतरराष्ट्रीय कारोबार में इंश्योरेंस एक बड़ी भूमिका निभाता है और ज़्यादातर इंश्योरेंस कंपनियाँ पश्चिमी देशों के पास हैं. इसलिए रूस चाहकर भी नए ग्राहक नहीं खोज सकता. ये स्थिति रूस के हाथ बांध रही है.''
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क्या भारत और चीन को और सस्ता तेल मिल सकता है?
क्या जी-7 के प्राइस कैप के बाद भारत को रूस से और सस्ता तेल मिल सकता है. क्या भारत को रूस और ज़्यादा डिस्काउंट पर तेल बेच सकता है या फिर रुपए में भुगतान की सुविधा दे सकता है.
आईआईएफएल सिक्योरिटीज़ के वाइस प्रेसिडेंट और कमोडिटी मार्केट एक्सपर्ट अनुज गुप्ता का कहना है, ''भारत के दोनों हाथों में लड्डू है. भारत पहले से ही रूस से डिस्काउंट पर तेल ख़रीद रहा है. प्राइस कैप लागू हुआ तो उसे और फ़ायदा मिल सकता है.''
हालाँकि अरविंद मिश्रा कहते हैं, ''अगर भारत को रूस से और सस्ते में तेल मिलने लगे, तो भी वह इसका ज़्यादा फ़ायदा नहीं उठा पाएगा क्योंकि भारत कोविड के वक़्त से ही सस्ता तेल ख़रीद कर अपनी भंडारण क्षमता का पूरा इस्तेमाल कर चुका है. अब इसे बढ़ाना मुश्किल लगता है.''
भारत इस वक़्त रूस की इस स्थिति से फ़ायदा उठाने का उतना इच्छुक भी नहीं दिखता क्योंकि भारत के पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी कई बार कह चुके हैं कि भारत जी-7 के प्राइस कैप को मंज़ूर करने के दबाव में नहीं है.
विशेषज्ञों के मुताबिक़ चीन में भी ऐसे ही हालात हैं. चीन लगातार रूस से तेल ख़रीद कर स्टोर कर रहा है. चीनी अर्थव्यवस्था फ़िलहाल कोविड प्रतिबंधों से जूझ रही है. मांग में गिरावट की वजह से तेल की खपत में फ़िलहाल बढ़ोतरी की भी संभावना नहीं है.
विशेषज्ञों के मुताबिक़ इस समय रूस का तेल और सस्ता होने पर भी भारत और चीन उससे ज़्यादा तेल नहीं ख़रीदेंगे, क्योंकि इन देशों के सऊदी अरब और यूएई जैसे तेल निर्यातकों के साथ भी लॉन्ग टर्म कॉन्ट्रैक्ट हैं. भारत-चीन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते.
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आगे क्या होगा?
जी-7 और ओपेक प्लस देशों के फ़ैसलों से फ़िलहाल तेल की क़ीमतों में थोड़े वक़्त के लिए बढ़ोतरी हो सकती है, लेकिन क़ीमतें बढ़ेंगी, इसकी संभावना कम ही है.
बीबीसी हिंदी ने जिन विशेषज्ञों से बात की है उनका मानना है कि चीन की कमज़ोर अर्थव्यवस्था, यूरोप में गैस की ऊँची क़ीमतें और महंगे डॉलर की वजह से फ़िलहाल कच्चे तेल की क़ीमतों में इज़ाफ़ा होता नहीं दिखता.
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के मुताबिक़ 2022 की चौथी तिमाही में दुनिया भर में तेल की ख़पत में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में खासी गिरावट दर्ज की जा सकती है.
इसलिए तेल की क़ीमतों में अभी आग लगने के आसार नहीं दिखते.
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