पश्चिम बंगाल में हिंसा-प्रतिहिंसा, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और चुनाव आयोग
कोलकाता।
पश्चिम
बंगाल
में
हिंसा
फिलहाल
सुर्खियों
में
है।
राज्य
में
हिंसा
के
साथ-साथ
प्रतिहिंसा
भी
है।
इस
हिंसा
और
प्रतिहिंसा
के
बीच
कोलकाता
विश्वविद्यालय
में
महान
समाज
सुधारक
पश्चिम
बंगाल
सहित
देश
के
अनेक
नायकों
में
से
एक
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
की
प्रतिमा
को
तोड़
दी
जाती
है।
पूरे
राज्य
खासकर
कोलकाता
में
जगह-जगह
हिंसा,
आगजनी,
तोड़फोड़
और
लाठीचार्ज
की
वारदातें
होती
हैं।
दो
प्रमुख
राजनीतिक
पार्टियां
केंद्र
में
सत्तासीन
भाजपा
और
राज्य
में
सत्ताधारी
टीएमसी
एक
दूसरे
पर
आरोप
लगाते
हैं
और
लोकतंत्र
पर
गहरे
संकट
की
बात
करते
हैं।
अन्य पार्टियां विशेषकर करीब तीन दशक तक राज्य में सत्ता में रही वामपंथी पार्टियां और देश पर लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस विरोध प्रदर्शन कर रही हैं और भाजपा-टीमसी की पूरे प्रदेश में हिंसा फैलाने की कोशिशों की आलोचना कर रही हैं। कोई कहे या न कहे, लेकिन यह सब कुछ मतदाताओं को अपने पक्ष में करने और अधिकाधिक सीटें जीतने की राजनीति के अलावा कुछ और नहीं लगता। अन्यथा कोई कारण नहीं कि राज्य को इस तरह हिंसा की भेंट चढ़ा दिया जाए। यह सब कुछ लोकसभा चुनावों के दौरान हो रहा है जिसकी चरम परिणति अंतिम चरण में सामने आई है।
इस
सबके
बीच,
उस
चुनाव
आयोग
का
कहीं
अता-पता
नहीं
चल
रहा
है
जिसके
जिम्मे
पूरा
चुनाव
होता
है।
इतना
ही
नहीं,
चुनाव
प्रक्रिया
के
दौरान
एक
तरह
से
सब
कुछ
चुनाव
आयोग
के
अधीन
आ
जाता
है।
लेकिन
यह
कुछ
ज्यादा
ही
आश्चर्यजनक
लगता
कि
चुनाव
आयोग
पर
कोई
बात
नहीं
कर
रहा
है।
भद्र
लोगों
का
राज्य
माने
जाने
वाले
पश्चिम
बंगाल
में
वैसे
राजनीतिक
हिंसा
कोई
नई
बात
नहीं
है।
इस
राज्य
में
अपनी
जड़ें
जमाने
के
पीछे
भी
उग्रता
और
हिंसा
का
सहारा
लिया
जाता
रहा
है
और
फिर
सत्ता
पर
काबिज
होने
के
बाद
भी
सत्ता
का
उपयोग
राजनीतिक
हिंसा
के
लिए
किया
जाता
रहा
है।
हर
समय
कारण
अलग-अलग
भले
ही
रहे
हों,
लेकिन
यह
राज्य
हमेशा
से
हिंसक
वारदातों
का
एक
तरह
से
पर्याय
रहा
है।
कभी इस राज्य में सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। तब उस सरकार ने नक्सलवाद के नाम पर किसानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की व्यापक स्तर पर हत्या को अंजाम दिया था। इसी के बाद वहां कम्युनिस्टों को व्यापक जगह मिली और वे कांग्रेस को सत्ता से हटाकर सरकार में आ गए और फिर करीब तीन दशक से ज्यादा समय तक उनका शासन बना रहा। इस दौरान राजनीतिक हिंसा और प्रतिहिंसा की जघन्यतम वारदातों को अंजाम दिया जाता रहा। तब राज्य में दो प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते कांग्रेस और वामपंथी।
तब कांग्रेस यह आरोप लगाती रहती थी कि कम्युनिस्ट और उनकी सरकार राजनीतिक कार्यकर्ताओं को विरोधियों को हिंसा के जरिये रोकते हैं। बाद में जब ममता बनर्जी ने कांग्रेस को छोड़कर खुद की पार्टी टीएमसी बनाई तो उन्होंने भी कम्युनिस्टों को सत्ता से बाहर करने के लिए जिन तरीकों को अख्तियार किया उनमें एक हिंसा भी था। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाएं लोग भूले नहीं होंगे जिसको लेकर पूरे देश में उस समय काफी बवाल मचता रहा है।
बाद में कम्युनिस्टों को चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा और टीएमसी की राज्य में सरकार में बनी और ममता बनर्जी मुख्यमंत्री। उसके बाद से हिंसा के आरोप कम्युनिस्टों की ओर से ममता और उनकी पार्टी व सरकार पर लगाए जाते रहे हैं। अब बीते कुछ वर्षों से भाजपा पश्चिम बंगाल में खुद का विस्तार करने में लगी हुई है। इसके साथ ही उसका और टीएमसी का राजनीतिक संघर्ष हिंसा-प्रतिहिंसा के रूप में आता रहा है। फिलहाल चुनाव के अंतिम चरण से पहले वह कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है और इसके साथ ही एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी बढ़ गया है।
लेकिन वर्तमान हिंसक वारदातों को केवल इसी रूप में लिया जाना शायद समग्रता में देखना नहीं होगा। यह हिंसा चुनावों के दौरान हो रही है जिसकी पृष्ठभूमि दोनों ही पक्षों की ओर से लगातार तैयार की जाती रही है क्योंकि दोनों की पूरी राजनीति करीब-करीब एक जैसी रही है। इस सबके बीचे जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है वह प्रख्यात समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा का तोड़ा जाना और विश्वविद्यालय में तोड़फोड़ की वारदात को अंजाम देना। यह सब किया भले ही चाहे जिसने हो, लेकिन इस तरह की वारदातें बताती हैं कि सत्ता के लिए राजनीतिक दल किस हद तक जा सकते हैं। निश्चित रूप से इस चुनाव के दौरान हर चरण में और सर्वाधिक हिंसा की वारदातें पश्चिम बंगाल में हुई हैं पर क्या इसके लिए केवल किसी एक को जिम्मेदार ठहराना उचित होगा।
कुछ इस तरह का संदेश देने की कोशिशें भी की जा रही हैं कि केवल पश्चिम बंगाल में ही हिंसा की वारदातें हो रही हैं। यह सही है कि पश्चिम बंगाल में हर चरण में हिंसक घटनाएं हुई हैं। लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अन्य राज्यों में चुनाव के दौरान हिंसक वारदातें नहीं हुईं। अगर क्रमवार देखा जाए तो पता चलता है कि पहले चरण में कुछ स्थानों पर छिटपुट हिंसक वारदातें हुई थीं। इनमें आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में आईडी विस्फोट में दो लोगों की मौत
की जानकारी मिली थी। आंध्र में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुई थीं जिसमें दो लोगों की मौत की जानकारियां सामने आई थीं। छत्तीसगढ़ में हिंसा की खबरें थीं। दूसरे चरण में बिहार के बांका में दोबारा मतदान की शिकायतों के बाद सुरक्षाकर्मियों की हवाई फायरिंग और लाठीचार्ज में छह लोगों के घायल होने की खबरें थीं। त्रिपुरा में छिटपुट हिंसक घटनाओं और कानून व्यवस्था की खराब स्थिति की शिकायतें की गई थीं।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने हमले किए थे। मुठभेड़ भी हुई थी जिसमें दो नक्सलियों को मार गिराया गया था। ओडिशा में एक भाजपा कार्यकर्ता की पीटकर हत्या कर दी गई थी। इसके अलावा भुवनेश्वर में भाजपा कार्यालय पर बम फेंके गए थे। कंधमाल में एक महिला पोलिंग सुपरवाइजर की माओवादियों ने हत्या कर दी थी। तीसरे चरण में जम्मू कश्मीर के अनंतनाग में एक पोलिंग एजेंट की पिटाई की खबर आई थी। चौथे चरण के दौरान राजस्थान में हुई हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और एक अन्य घायल हो गया था। जम्मू कश्मीर के श्रीनगर इलाके में हुई हिंसा में दो सुरक्षाकर्मी और दो मतदानकर्मी घायल हो गए थे। एक मतदान केंद्र पर हमले के बाद पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़े थे और आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े थे।
एक
मतदान
केंद्र
पर
बम
भी
फेंका
गया
था।
पांचवें
चरण
में
भी
पुलवामा
में
एक
बूथ
पर
ग्रेनेड
और
शोपियां
में
पेट्रोल
बम
फेंका
गया
था।
छठां
चरण
भी
हिंसा
से
अछूता
नहीं
था।
उत्तर
प्रदेश
के
भदोही
में
लोगों
ने
पुलिस
को
दौड़ा
लिया
था।
ये
लोग
एक
मतदाता
की
पिटाई
से
गुस्से
में
बताए
गए
थे।
बिहार
के
शिवहर
में
एक
बूथ
पर
पुलिसकर्मी
की
गोली
चलने
से
एक
मतदानकर्मी
घायल
हो
गया
था।
यह
अलग
बात
है
कि
अब
तक
के
सभी
चरणों
में
पश्चिम
बंगाल
में
लगातार
हिंसक
वारदातें
हुई
हैं,
लेकिन
देश
के
अन्य
हिस्सों
में
भी
ऐसा
हुआ
है।
इसीलिए
इस
पूरे
मामले
पर
चुनाव
आयोग
की
भूमिका
पर
भी
जरूर
नजर
डाली
जानी
चाहिए
जिसके
बारे
में
कहा
जा
रहा
है
कि
वह
मूकदर्शक
बना
हुआ
है।
क्या
इस
सबके
लिए
चुनाव
आयोग
को
भी
बराबर
का
जिम्मेदार
नहीं
कहा
जा
सकता
है
कि
जिसकी
जिम्मेदारी
स्वतंत्र,
निष्पक्ष
और
शांतिपूर्ण
चुनाव
संपन्न
कराने
की
होती
है।
इसीलिए
यह
भी
कहा
जा
रहा
है
कि
अगर
चुनाव
आयोग
ने
शुरू
से
ही
सख्ती
बरती
होती,
तो
इतनी
खराब
स्थितियां
शायद
नहीं
होतीं।