जॉर्ज फ़्लॉयड: कुछ प्रदर्शन अचानक हिंसक क्यों हो जाते हैं?
अक्सर देखा गया है कि शांतिपूर्वक हो रहे प्रदर्शन अचानक हिंसा का रूप ले लेते हैं, आख़िर इसकी क्या वजहें हैं?
अमरीका के एक काले नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की पुलिस के हाथों हुई मौत के बाद भड़के अंसतोष को देखते हुए अमरीका के कई शहरों में कर्फ़्यू लगा हुआ है.
ज़्यादातर विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण ही रहे हैं लेकिन कई विरोध-प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारी पुलिस के साथ संघर्ष करते नज़र आए हैं. इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने पुलिस की कार जला दी, संपत्तियों में आग लगाई और दुकानों को लूटा.
नेशनल गार्ड ने 5000 सुरक्षाकर्मियों को 15 राज्यों और वॉशिंगटन डीसी में तैनात किया है.
विश्लेषकों ने मौजूदा हालात की तुलना 2011 में इंग्लैंड में भड़के उस दंगे से की है जिसमें पुलिस के हाथों मारे गए एक व्यक्ति को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शकारी उग्र हो गए थे और चार दिनों तक बड़े पैमाने पर लूट-खसोट और अराजकता देखने को मिली थी. कई इमारतों को आग के हवाले कर दिया गया था.
अब सवाल उठता है कि कुछ विरोध-प्रदर्शन इतनी तेज़ी से कैसे व्यापक पैमाने पर फैल जाते हैं और इतना उग्र रूप ले लेते हैं?
जातीय पहचान एक बड़ी वजह
कील यूनिवर्सिटी में क्राउड बिहैवियर और पब्लिक ऑर्डर के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर क्लिफॉर्ड स्टॉट का कहना है कि फ़्लॉयड की मौत जैसे मामले जल्दी तूल पकड़ लेते हैं क्योंकि ऐसे मामलों में व्यापक पैमाने पर लोग अपने अनुभवों से जुड़ाव महसूस करते हैं.
मसलन पुलिस और काले लोगों के बीच संबंधों का अनुभव कुछ ऐसा ही है.
वो आगे कहते हैं कि टकराव की गुंजाइश तब ज़्यादा होती है जब संरचनात्मकता ग़ैर-बराबरी हो.
प्रोफ़ेसर स्टॉट ने इंग्लैंड में 2011 में भड़के दंगे का व्यापक अध्ययन किया है और पाया है कि वहां दंगे इसलिए भड़के क्योंकि अलग-अलग शहरों में लोगों ने ख़ुद को एक जैसे हालात से गुज़रता पाया फिर चाहे वो नस्लीय आधार पर हो या फिर पुलिस को लेकर अपनी नापसंदीदगी के आधार पर हो.
पुलिस कैसे निपटती ऐसे हालात में?
विश्लेषकों का मानना है कि हिंसक प्रदर्शन की गुंजाइश तब कम होती है जब पुलिस का स्थानीय लोगों के साथ बेहतर संवाद रहता है लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि विरोध-प्रदर्शन के दौरान पुलिस कैसे प्रतिक्रिया देती है.
प्रोफ़ेसर स्टॉट कहते हैं, "दंगे की शुरुआत इस बात पर निर्भर करती है कि पुलिस ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए क्या क़दम उठाए हैं."
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि प्रदर्शनकारियों की एक बड़ी भीड़ में सिर्फ़ कुछ लोगों की पुलिस से तकरार की वजह से दंगे की शुरुआत हो सकती है.
हालांकि "पुलिस अक्सर पूरी भीड़ को एक तरह से ही देखती है" और अगर लोगों को लगा कि पुलिस का उनके ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल करना अन्यायपूर्ण है तो फिर 'हम बनाम वो' वाली मानसिकता बन जाती है."
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यूसीएलए में समाज विज्ञान के डीन डार्नेल हंट मानते हैं कि सप्ताहांत में 'अमरीकी पुलिस ने अपनी आक्रमकता बढ़ा दी' है.
"नेशनल गार्ड की तैनाती, रबर की गोली और आंसू गैस का इस्तेलाम पुलिस की वो रणनीति है जिसने पहले से ही तनावपूर्ण स्थिति को और बढ़ा दिया है."
दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी विरोध-प्रदर्शन के दौरान यही पैटर्न दिखता है. 2019 में हॉन्गकॉन्ग में सात महीने का सरकार विरोधी प्रदर्शन देखने को मिला था जो शुरू तो हुआ था शांतिपूर्ण तरीक़े से लेकिन ख़त्म हुआ बड़े पैमाने पर हिंसक गतिविधियों के साथ.
विरोध-प्रदर्शनों के हिंसक होने की अलग वजह
राइस यूनिवर्सिटी में ऑर्गेनाइज़ेशनल बिहैवियर के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर मैरलून मूजीमान कहते हैं कि नैतिकता के मनोविज्ञान से इस बात को समझने में मदद मिल सकती है कि कुछ विरोध-प्रदर्शन हिंसक रूप क्यों लेते हैं.
वो बताते हैं, "एक व्यक्ति की नैतिकता का जो बोध है वो इस बात के केंद्र में होता है कि वो ख़ुद को कैसे देखता है. इसलिए जब हम किसी चीज़ को अनैतिक की तरह देखते हैं तो यह एक तेज़ भवावेश पैदा करता है क्योंकि हमें लगता है कि हमें अपनी नैतिकता की समझ की रक्षा करनी है"
"यह उन तमाम चिंताओं पर हावी हो सकता है जो शांति बनाए रखने के लिए ज़रूरी होती है. क्योंकि आपको लगता है कि सिस्टम टूट रहा है और आप वास्तव में कुछ ऐसा असाधारण करने जा रहे हैं जो यह दिखाए कि यह स्वीकार्य नहीं है."
वो आगे कहते हैं कि यह किसी भी मामले में लागू हो सकता है. मसलन अगर कोई यह सोचता है कि गर्भपात कराना एक अनैतिक काम है तो फिर उसके लिए बहुत हद तक गर्भपात कराने वाले क्लिनिक को बम से उड़ा देना भी सही होगा.
वो कहते हैं कि शोध से पता चला है कि सोशल मीडिया जो इको चैंबर बनाता है वो भी हिंसा की तरफ़ आपको धकेलता है जब आपको यह एहसास होने लगे कि आपके साथ आपकी तरह के ही नैतिक विचार रखते हैं.
लूट और अराजकता अधिक केंद्रित हो सकते हैं
अमरीका में जो विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं उसमें सैकड़ों दुकानों को निशाना बनाया गया है. सप्ताहांत में लांस एंजेलेस और मिनीपोलिस में जमकर लूटपाट हुई है.
प्रोफ़ेसर स्टॉट का मानना है कि यह बहुत आसान है कहना कि दंगे और भीड़ की कोई समझ नहीं होती. ये सही नहीं है. जो लोग इसमें भाग लेते हैं वो इसे काफ़ी सुचारूपूर्ण और अर्थवान तरीक़े से अंजाम देते हैं.
"कुछ हद तक लूट अपनी ताक़त को दिखाना है. पुलिस के सामने काले लोग आम दिनों में बेबस महसूस करते होंगे इसलिए दंगे के वक़्त वो ख़ुद को पुलिस से ज़्यादा ताक़तवर समझ सकते हैं."
वो कहते हैं कि रिपोर्ट्स ये बताती हैं कि पिछले दंगे जो हुए हैं उनमें बड़े व्यापारिक संस्थानों को निशाना बनाया गया है. लूटने की मानसिकता अक्सर ग़ैर-बराबरी की उस भावना को दिखाती है जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में रहने से आती है.
हालांकि लूट की मानसिकता के पीछे वो दूसरी वजहों के होने से भी इनकार नहीं करते हैं. वो मानते हैं कि कई लोग अलग-अलग उद्देश्य के साथ इसमें शामिल हो सकते हैं. इनमें ग़रीबी झेल रहे लोग और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग भी हो सकते हैं.
इसीलिए किसी विरोध-प्रदर्शन में लूट-खसोट होता है किसी में नहीं.
अब हॉन्गकॉन्ग में ही देखिए. वहाँ प्रदर्शनकारियों ने दुकानों के शीशे तोड़े, पुलिस पर पेट्रोल बम फेंके, राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान किया लेकिन कोई लूट-खसोट नहीं की.
हॉन्गकॉन्ग के एजुकेशन यूनिवर्सिटी में पुलिसिंग और पब्लिक ऑर्डर के विशेषज्ञ लॉरेंस हो इस बारे में कहते हैं कि ऐसा इसलिए था क्योंकि ये विरोध-प्रदर्शन राजनीतिक मक़सद से प्रेरित थे और पुलिस पर ग़ुस्सा था ना कि सामाजिक भेदभाव की वजह से था.
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हिंसा को कैसे रोका जा सकता है?
विशेषज्ञों का मानना है कि क़ानून का पालन करते हुए प्रदर्शनकारियों को संवाद के ज़रिए हिंसक होने से रोका जा सकता है.
प्रोफ़ेसर स्टॉट कहते हैं, "अच्छी नीति यह है कि 'हम बनाम वो' की मानसिकता से बचा जाए और पुलिस उन तरीक़ों से बच सकती है जिसे लोग जायज़ नहीं मानते हैं."
डॉक्टर हो का भी मानना है, "संवाद सबसे बेहतर तरीक़ा है. लेकिन आजकल होने वाले विरोध-प्रदर्शनों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इनका कोई नेता नहीं है. अगर कोई नेतृत्व ही नहीं है तो फिर आप किससे बात करेंगे."
वो आगे कहते हैं कि आमतौर पर राजनेता चीज़ों को बेहतर या फिर ख़राब बना सकते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि वो कैसे संवाद कर रहे हैं और कैसे चीज़ों को संभालने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि, यह सच है कि दंगे एक बेहद जटिल मुद्दा है और समाज में गहरे व्याप्त तनाव का नतीजा है और इसका कोई आसान हल नहीं है.