कश्मीर घाटी से उखडे़ भारत की किसी को फिक्र नहीं!
भारत का मीडिया हो या सियासी जमातें हों अथवा खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले मानवतावादियों और मानवाधिकारवादियों की बहुरंगी बिरादरी, सबके सब जम्मू कश्मीर से जुडे़ विभिन्न सवालों को सही नजरिए से देखने में अक्सर चूक जाते हैं। ऐसा एकाध नहीं अपितु अधिकांश प्रश्नों और मसलों को लेकर हुआ है और हो रहा है।
उदाहरण के तौर पर जम्मू कश्मीर की समस्या को दिल्ली वाले हों या फिर श्रीनगर में बारी बारी राज्य का राजकाज थामने वाली कथित मुख्यधारा की पार्टियां, सबने केवल कश्मीर-केंद्रित नजरिए से ही देखा है। उनकी चिंताओं, चिंतन और शब्दावली से अक्सर यही लगता है मानों जम्मू कश्मीर का अर्थ केवल कश्मीर ही है। इस एकांगी सोच से फिर जम्मू वाले कितने ही आहत हों या लद्दाख वालों का दिल कितना ही जले, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। इस प्रक्रिया में भारत के प्रति अनुराग रखने वाले राज्य के नागरिकों की कीमत पर हम घाटी के भी सिर्फ एक अलगाववादी तबके की ही जी-हुजूरी और निरर्थक लल्लो-चप्पों में लगे रहे हैं, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है।
इसी तरह मानवाधिकारों के जुडे़ सवाल की भी बात है। सुरक्षा बलों के हाथों यदा-कदा मानवाधिकार के मोर्चे पर कोई चूक होती है तो देश के कथित बुद्धिजीवियों का एक तबका आसमान सिर पर उठा लेता है। इस प्रक्रिया में इनमें से कुछ हमारी फौज को बदनाम करने की पाकिस्तानी और अलगाववादी साजिशों के तहत लगाए जाने वाले निराधार आरोपों के सुर में सुर मिलाने भी पंहुच जाते हैं ताकि दुनिया में उनकी पहचान बडे़ मानवाधिकार रक्षकों के रूप में होने लगे। इसी फैशन की डगर पकड़ कर राष्टीय अल्पसंख्यक आयोग के मुखिया सरीखे अहम संवैधानिक पद पर बैठे हुए वजाहत हबीबुल्लाह जैसे लोग जनरल वीके सिंह को कोसने के चक्कर में भारतीय सेना को कटघरे में घसीटने का आपत्तिजनक काम भी कर जाते हैं।
इसी एकांगी सोच का परिणाम है कि कश्मीर घाटी से 1989-90 में निकाल बाहर किए गए कश्मीरी पंडितों का दर्द न बेरहम कश्मीर वादी के शासकों को समझ में आता है और न ही वह दिल्ली के सियासी गलियारों में किसी को सुनाई देता है। कश्मीरी पंडित दिल्ली दरबार से लेकर श्रीनगर सरकार तक किसी के एजेंडे में नहीं हैं, इसका अनुमान लगाने के लिए यह जानना काफी रहेगा कि घाटी से पंडितों के निष्कासन का दिन यानि 19 जनवरी ऐसे निकल गया मानों आया ही न हो। 1990 में इस दिन कश्मीर घाटी पर मानों धर्मांध पाकिस्तानी तत्वों का कब्जा हो गया था।
हिंदुओं के नरसंहार की एक के बाद एक हुई घटनाओं के सहारे इसकी भूमिका भले ही काफी समय से बनाई जा रही थी मगर इस दिन मस्जिदों से खुल्लेआम घाटी के हिंदुओं के लिए अल्टीमेटम जारी हो रहे थे कि जो जिंदा रहना चाहते हैं वे चंद घंटों के भीतर घाटी खाली कर जाएं। गली मोहल्ले इस आशय के पोस्टरों से पाट दिए गए थे। इन धमकियों में जिस घिनौनी भाषा और शब्दावली को उपयोग हो रहा था, उसका वर्णन करना भी यहां संभव नहीं। संभव है कि धर्मस्थलों पर देश के दुश्मन काबिज हो गए हों, मगर घाटी के स्थानीय समुदाय के बहुसंख्यक लोग भी अपने हिंदु भाइयों के बचाव के लिए आगे नहीं आ रहे थे।
उनकी मौन सहमति ने सह-अस्तित्व और कश्मीरियत के सेकुलर चरित्र को चिंदी-चिंदी कर दिया था। आज भी उस दौर को याद कर कश्मीरी पंडितों की पुरानी पीढ़ी के लोग भीतर तक कांप उठते हैं। कुरेदने पर ज्ञात होता है कि उन्हें पाकिस्तानी तत्वों के अत्याचारों से कहीं अधिक आज तक यह बात सालती है कि उनके वह मुस्लिम पड़ौसी और भाई-बंधु भी साथ नहीं खड़े हुए जिनके साथ एकाध बरस का नहीं पीढ़ियों का नाता था। लिहाजा, 19 जनवरी को शुरू हुए निष्कासन के इस कुचक्र के चंद घंटों के भीतर लाखों कश्मीरी पंडितों को विवश होकर अपना सबकुछ छोड़ कर शरणार्थी होना पड़ा था। उस दिन के बाद आज तक उन्होंने जो जो झेला-सहा-भुगता, उसकी कल्पना मात्र पत्थरों को पिंघला सकती है। मगर कोई पिघलने को राजी नहीं है तो इस देश की शासन व्यवस्था जो दर्द और दर्द में भेद करती है। जिसके लिए मानवाधिकारों की भी जाति और संप्रदाय होते हैं। ऐसा न होता तो 19 जनवरी को दिल्ली या श्रीनगर या जम्मू के सियासी गलियारों से कोई तो आवाज कश्मीरी पंडितों के पक्ष में उठती। और यह आवाज उठी होती तो हमें और आपकों भी कहीं सुनाई देती।
फिर भी किसी को कोई भ्रम हो तो बीते चंद रोज के देश के छोटे- बडे़ अखबार खंगाल कर देखे जा सकते हैं। उनके मुख-पृष्ठों से लेकर संपादकीय पन्नों तक पर आपको कहीं कश्मीरी पंडितों का जिक्र देखने पढ़ने को नहीं मिलेगा। भारत के बु़िद्धजीवी वर्ग की संवेदनहीनता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा?
सच
बात
तो
यह
है
कि
यह
मसला
केवल
एक
समुदाय
विशेष
के
नरसंहार
और
उसको
उसकी
जड़ों
से
निर्मूल
करने
का
नहीं
है।
दरअसल
यह
कश्मीर
घाटी
से
भारत
के
उन्मूलन
का
मामला
है।
कश्मीरी
पंडितों
को
घाटी
से
निकाल
कर
पाकिस्तान
और
पाक-परस्त
तत्वों
ने
यह
सुनिश्चित
करने
का
कार्य
किया
कि
वहां
भारत
माता
की
जय
बोलने
वाले
और
तिरंगा
उठाने
वालों
की
संख्या
को
सिकोड़
कर
न्यूनतम
कर
दिया
जाए।
अपनी
इस
साजिश
में
वे
काफी
हद
तक
कामयाब
भी
हुए
हैं।
मगर
निष्कासन
दिवस,
जिसे
कि
कश्मीरी
पंडित
होलोकॉस्ट
डे
के
रूप
में
भी
मनाते
हैं,
आज
भी
हमारे
राष्टीय
एजेंडा
पर
नहीं
है।
क्या
इस
दिन
समूचे
देश
को
आत्मनिरीक्षण
करने
की
आवश्यकता
नहीं
थी?
भारत
ने
अगर
कश्मीरी
पंडितों
के
साथ
न्याय
नहीं
किया
तो
क्या
यह
खुद
भारत
और
उसकी
अस्मिता
के
साथ
अन्याय
नहीं
हुआ?
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर की सरकार और केंद्र सरकार कभी कभार संकेत मात्र के लिए ही सही, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी की बात छेड़ती रहती हैं। मगर इसके लिए जो ठोस जमीनी उपाय होने चाहिएं, वह करने की गंभीरता आज तक किसी स्तर पर नजर नहीं आई। पंडित घाटी में लौट आएं, यह आवाहन करना काफी नहीं हो सकता। इसके लिए जमीन पर उनके मनोनुकूल स्थितियां बनाना आवश्यक है। दो पीढी या इससे भी अधिक समय से बाहर रह रहे पंडितों के मनों में घर वापसी के लिए जिस किस्म का विश्वास पैदा करना है, उसे अर्जित करना योजनाओं,पैकेजों और कागजी कार्रवाइयों से कहीं बड़ा काम है।
वापस लौटने के लिए उन्हें सुरक्षा और रोजगार की गारंटी भी चाहिए। वे अपनी भूमि, मकान, दूकान और बागान वापस मांगे तो सरकार क्या दिलवाने की स्थिति में है? ध्वस्त कर दिए गए पंडितों के सैंकड़ों धर्मस्थलों की पवित्रता की बहाली की सरकार की क्या तैयारी है? वापस लौटने से पूर्व आहत पंडित अगर यह कहें कि उनके निष्कासन के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान कर सरकार उन्हें दंडित करने का दम दिखाए तो भी क्या गलत होगा ? पंडितों की वापसी हो, इसका ठकोसला करते हुए देशघाती गीलानियों और मीरवायजों को भी यदा कदा सुना जाता है।
मगर
इन्हें
कश्मीरी
पंडितों
के
लिए
अलग
से
बस्तियां
बसाए
जाने
पर
आपत्ति
है।
इनका
कहना
है
कि
जिन्हंे
लौटना
है
वे
अपने
पुराने
गली-मोहल्लों
में
लौंटे।
अब
इन
सांप्रदायिक
तत्वों
से
कोई
पूछे
कि
बीसियां
बरस
पहले
जला
दिए
गए
अथवा
कब्जा
लिए
गए
आशियानों
में
कोई
भला
कैसे
लौट
सकता
है?
फिर
यह
सवाल
भी
गलत
नहीं
है
कि
जिन
गली-मोहल्लों
के
बाशिंदों
ने
मौन
रह
कर
पंडितों
को
उखड़ने-उजड़ने
दिया
था,
उन्हीं
के
बीच
एकाएक
भला
कोई
कैसे
आकर
बसे?
लिहाजा,
सारी
प्रक्रिया
में
जटिलताएं
बहुत
हैं।
अलगाववादियों
की
मंशा
पंडितों
लौटने
देने
की
नहीं
हैं
और
सरकारों
के
पास
संकल्प
और
इच्छाशक्ति
का
घनघोर
अभाव
है।
अब
यह
शेष
भारत
को
देखना
और
सोचना
है
कि
घाटी
से
उखड़ा
और
दर
दर
की
ठोकरें
खा
रहा
यह
भारत
फिर
से
घाटी
में
अपनी
जड़ों
से
जाकर
कैसे
जुड़े।
निष्कासन
दिवस
पर
देश
कश्मीर
समस्या
के
इस
आयाम
पर
चर्चा
ही
कर
लेता
तो
बड़ी
बात
हो
जाती।
मगर
ऐसा
नहीं
हुआ,
यह
खेद
का
विषय
है।
-लेखक
कश्मीर
मामलों
के
अध्येता
हैं।