
Films and Faith: धार्मिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों से धर्म को फायदा या नुकसान ?
अभी हाल में ही ओम राउत की फिल्म आदिपुरुष का टीजर रिलीज हुआ था। फिल्म मुख्य रूप से रामायण पर आधारित है। लेकिन उन्नत होती तकनीकी के सहारे फिल्म में जिस तरह के प्रयोग किये गये हैं उसका सोशल मीडिया पर खूब मजाक उड़ा और आलोचना भी हुई। स्वाभाविक है बदलते समय के साथ फिल्म इंडस्ट्री भी बदल रही है और पौराणिक तथा धार्मिक विषयों पर फिल्में बनाने का चलन शुरु हो रहा है। लेकिन क्या ये फिल्मकार ऐसे विषयों के साथ न्याय कर पा रहे हैं?

हिंदी, तेलुगू और कन्नड़ फिल्मों में तो पौराणिक विषयों पर फिल्म बनाने की बाढ़ सी आ गई है। ऐसे में उन्हें जो भी विषय मिल रहा है, उन पर धड़ाधड़ एक के बाद एक फिल्म बनाए जा रहे हैं। कुछ फिल्में देशभक्ति की हैं तो कुछ धार्मिक। लेकिन फिल्मों के रिलीज के बाद उन पर सवाल उठते हैं। ऐसे में ये मुद्दा अहम हो जाता है कि पैसे कमाने के इरादे से धार्मिक विषयों पर फिल्म बनाकर कहीं धर्म का नुकसान तो नहीं हो रहा है? हालिया आईं रामसेतु, थैंक गॉड, ब्रह्मास्त्र, अखंडा, कार्तिकेय 2 और पृथ्वीराज चौहान जैसी फिल्में तो यही बताती हैं।
'अखंडा' पिछले साल दिसम्बर में तेलुगू में रिलीज हुई थी। बाला कृष्णा की ये मूवी 200 करोड़ रुपए कमा चुकी है। उनके डबल रोल वाली इस फिल्म की कहानी है कि दो भाइयों में से एक भाई को एक साधु ले जाता है। वो बच्चा शिव को समर्पित होकर एक गुफा में तपस्या कर तमाम शक्तियां प्राप्त कर लेता है। जब उसके समाजसेवी भाई को खनन माफिया जेल की सलाखों के पीछे भेज देता है, और परिवार की हत्या करने के लिए गुंडों की फौज छोड़ देता है, तो अखंडा आता है और हर किसी को मौत की नींद सुला देता है। इसमें सीधे सीधे उसे भगवान का दूत दिखाया जाता है। कई चमत्कार दिखाए जाते हैं।
फिल्म में दिखाया जाता है कि भाई की बेटी दरअसल शिव की अवतार है, उसको बचाने अखंडा की एंट्री होती है। खनन माफिया का बॉस एक बड़ा साधु निकलता है, जिसका गुरु एक तांत्रिक होता है। एक डीएम और उसके समाजसेवी पति की जो आधुनिक लड़ाई दिखाई जा रही थी, वो एकदम से पौराणिक हो जाती है। समझ नहीं आता कि साधु और तांत्रिक को खदानों की मोहमाया से क्या लेना देना था? जरूरत से ज्यादा चमत्कार इस मूवी को आधुनिक तथ्य और तर्क की लड़ाई में हिंदुत्व विरोधियों के हाथों मजाक का औजार बना देते हैं।
आम धर्मपरायण व राष्ट्रवादी जनता के लिए ये फिल्म भगवान में उनकी आस्था को और मजबूत कर सकती है, लेकिन आज नव हिंदुत्ववादी युवा साइंस और तर्क के दायरे में हर बात को परख रहा है। संस्कृति के तौर पर इन पढ़े लिखे करोड़ों युवाओं ने हिंदुत्व के मार्ग को समझा है लेकिन वो फिल्मी चमत्कार को नमस्कार करने से बचते हैं। कई लोग ऐसे मिले जो अखंडा में दिखाए गए चमत्कारों को सस्ते स्पेशल इफैक्ट्स बताकर हंसते हैं।
तेलुगू सिनेमा से इतर हिन्दी सिनेमा की ओर आयें तो यहां हाल और बुरा है। रणवीर कपूर और आलिया भट्ट की 'ब्रह्मास्त्र' तो सस्ते कॉमिक चरित्र जितनी आकर्षण भी नहीं पैदा कर सकी। जो हल्के स्तर की कहानी दर्शकों को ब्रह्मास्त्र के बनने और उसके टूटने की बताई गई है, वो गले नहीं उतरती। कहीं से भी नहीं लगता कि निर्देशक ने भारतीय वेद पुराणों या उपनिषदों से कुछ लिया है। थोड़ी सी भी रिसर्च करने की जहमत शायद ही उठाई हो।
फिल्म में न जाने किस किस नाम के तो अस्त्र बनाये गये हैं। जो नाम मिला उसी के नाम पर अस्त्र का नाम रखते चले गये। एक अस्त्र का नाम तो 'नंदियास्त्र' है। हीरो पर आग असर नहीं करती, उसका नाम शिवा रखा गया है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन विलेन का नाम 'जुनून' रखने की क्या जरुरत थी? फिर उसके गुंडों के नाम 'जोश' और 'रफ्तार' भी तो कहीं से हिंदी पौराणिक नाम नहीं लगते। कुल मिलाकर हिंदूवादी, राष्ट्रवादी जनता की भावनाओं से खेलने के लिए पौराणिक विषय लिया और फिर उसको कॉमिक्स की तरह बना दिया। जरा सोचिए नई पीढ़ी पर इसके जरिए क्या संदेश जाएगा?
ताजा आई अक्षय कुमार की 'रामसेतु' को लीजिए। आम दर्शकों के लिए अक्षय का रामसेतु के नीचे रोबोट सूट पहनकर जाना, वहां से नल-नील वाला पत्थर लेकर आना, शानदार सिनेमेटोग्राफी, श्रीलंका में रावण से जुड़ी जगहों की खोज, काफी रोमांचक हो सकती है। ओह माई गॉड की तरह आखिर में अंजनि पुत्र हनुमान के चमत्कार भी डाल दिए गए हैं। लेकिन यही कहानी वो खुद की खोज के बताए नासा के साइंस चैनल की 2017 की रिपोर्ट के साथ दिखाते तो शायद ज्यादा आधिकारिक मानी जाती। अब सोशल मीडिया पर तमाम लोग इसका मजाक उड़ा रहे हैं कि ऐसा कैसे हो गया? हालांकि कई बातें इनमें से वैज्ञानिक या पुरातात्विक रूप से साबित भी हो चुकी हैं।
अगर आपने 2006 में आई विवेक ओबेरॉय और सनी देओल की मूवी 'नक्शा' देखी हो तो आपको कहानी कुछ कुछ उसी लाइन पर लगेगी। नक्शा में दोनों हीरो महाभारत कालीन योद्धा कर्ण के कवच और कुंडल ढूढने निकलते हैं। साउथ में हालिया रिलीज कार्तिकेय 2 की भी कुछ इसी तरह की कहानी है, जिसमें किसी महामारी से निपटने का उपाय श्री कृष्ण के कड़े पर लिखा है। वह हजारों सालों से किसी सुरक्षित जगह पर छुपाया गया है। इसके लिए वो द्वारका से लेकर गोवर्धन पर्वत तक की खाक छानते हैं और फिर हिमालयों की। कुल मिलाकर हिंदुत्व को ऐसी फर्जी, गैर ऐतिहासिक कथाओं की जरुरत ही नहीं, जो उनके मूल आराध्य के इर्द गिर्द रची गई हो, लेकिन पहले से प्रचलित ना हो। केवल पैसों के फायदे के चक्कर में वो जनमानस में ऐसी मनगढ़ंत कहानियां ले जा रहे हैं।
अजय देवगन की 'थैंक गॉड' भी मनोरंजन के लिहाज से काफी अच्छी मूवी है। चित्रगुप्त और यमदूत जैसी अवधारणाओं को जेनरेशन नेक्स्ट के अंदाज में पेश कर दिया गया है, लेकिन एक डायलॉग में अजय देवगन सिद्धार्थ मल्होत्रा को ज्ञान देते देते यह कह जाते हैं कि पत्थर को खुश करने के चक्कर में तुम उस बूढ़ी औरत को भूल गए। 'पत्थर को खुश करने' वाला डायलॉग किसी भी हिंदूवादी को अच्छा कैसे लग सकता है? कौन हिंदूवादी इसे सच मान लेगा कि किसी शहरी मंदिर में किसी बूढी महिला को चार दिन तक खाना भी नहीं मिलेगा और वो भूख से तड़पकर मंदिर में मर जाएगी? ऐसे में चित्रगुप्त को महान ताकतवर औऱ पाप पुण्य का सिद्धांत विदेशी काली-सफेद बॉल में कॉपी करने के बावजूद ये मूवी हिंदुत्व का फायदा कम नुकसान ज्यादा करती है।
केवल धार्मिक आराध्य देवों को लेकर ही नहीं, ऐसे ऐतिहासिक पात्रों को लेकर भी फिल्में बन रही हैं, जिन्होंने विदेशियों ले लड़ने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन यहां भी फिल्मकार चूकते हैं। आज की हिंदुत्ववादी पीढ़ी को भी कई विदेशी इतिहासकारों, वामपंथी इतिहासकारों द्वारा सम्पादित किए गए ग्रंथों या किताबों का इतिहास अब फिल्मों के रूप में नहीं देखना है। पृथ्वीराज रासो भी कई बार संशोधित हो चुका है, मूल रूप में है नहीं, तो फिर वही कहानी कैसे स्वीकार कर लेंगे ये नव हिंदुत्ववादी, जो चमत्कारों पर नहीं बल्कि वैज्ञानिक, पुरातात्विक तथ्यों पर भरोसा करते हैं।
आदिपुरुष
के
टीजर
पर
आग
बबूला
रामायण
के
राम,
बोले-
क्रिएटिव
लिबर्टी
के
नाम
पर
धर्म
का
मजाक
ना
बनाएं
उम्मीद है कि राष्ट्रवादी विषयों पर फिल्में बना रहे फिल्मकार इन नव हिंदुत्ववादियों की सोच और नई खोजपूर्ण दृष्टि का आगे से ध्यान रखेंगे, जो सच जानना चाहती है। सच बताकर सामने वाले के झूठ का पर्दाफाश करना चाहती है। ऐसे में अगर आपके पास कोई काल्पनिक कहानी भी है, तो भी आप एक अच्छी राष्ट्रवादी मूवी बना सकते हैं। इसके लिए बाहुबली सीरीज से सबक लिया जा सकता है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)