Climate Change Health Effects: मानव मन को बीमार करता जलवायु परिवर्तन
विभिन्न स्वास्थ्य संगठनों और शोधकर्ताओं ने पहले भी चेताया है कि जलवायु में तीव्र परिवर्तन मानसिक स्वास्थ्य और मनोसामाजिक वेल्फेयर के लिए खतरा बन गया है।
Climate Change Health Effects: जलवायु परिवर्तन पहले से ही लोगों के स्वास्थ्य को असंख्य तरीकों से प्रभावित कर रहा है, जिसमें हीट वेव्स, तूफान और बाढ़, जूनोज (पशुओं से मानव में फैलने वाले रोगाणु) में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। ये सभी स्वास्थ्य समस्याएं जिनके लक्षण प्रत्यक्ष होते हैं, उन्हें तो लोग पहचान लेते हैं और उपचार के प्रयास करते हैं। किन्तु इस ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु परिवर्तन के चलते एक बड़ा गंभीर दुष्परिणाम इंसानों पर पड़ रहा है। यह आसानी से पहचाना जाने वाला भी नहीं है। वह है मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट है कि प्रति वर्ष कम से कम 150,000 मौतों के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है। यदि स्थिति नहीं बदली तो यह संख्या 2030 तक दोगुनी हो सकती है।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ हो रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग का मानव स्वास्थ्य की स्थिति पर विशेषकर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अत्यधिक दुष्प्रभाव होना अवश्यंभावी है। अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में, तापमान में वृद्धि मच्छरों की खतरनाक वृद्धि के लिए भी जिम्मेदार है। इससे मलेरिया, डेंगू और अन्य कीट-जनित संक्रमणों का खतरा बढ़ चुका है।
2006 में, यूनाइटेड किंगडम लीजियोनेयर्स रोगों के प्रकोप से त्रस्त था। यह फेफड़ों का बैक्टीरियल संक्रमण है। जिसके लिए वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग से अप्रत्याशित तौर पर बदलते मौसम को ही जिम्मेदार बताया है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से यूरोप में कीट जनित बीमारियों में भी वृद्धि हो रही है। मच्छर जनित मलेरिया के मामलों में अजरबैजान, ताजिकिस्तान और टर्की जैसे देश खतरे के क्षेत्र में चिन्हित हैं।
वर्तमान में भौतिकतावाद से प्रेरित दुनिया मांग और आपूर्ति (डिमांड और सप्लाई) के एक दुष्चक्र में घूम रही है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण और प्रभाव दोनों है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आम इंसान बाजार का उपभोक्ता नज़र आता है किन्तु व्यापक दृष्टि से देखें तो वह स्वयं में आज उत्पाद बन गया है।
बाजारवाद के बाईप्रोडक्ट आम नागरिकों को ही कंज्यूम कर रहे हैं। आज स्वास्थ्य विकारों की भरमार है, जिसके कारण वेलनेस, न्यूट्रीशन बाजार का आर्थिक विस्तार 6 ट्रिलियन यूएस डॉलर से अधिक का हो चुका है, जो 5.5% की वृद्धि दर से प्रतिवर्ष फैल रहा है। इसमें आवश्यक दवाएं और मेडिकल उपकरण का बाजार सम्मिलित नहीं है।
इन सारे स्वास्थ्य विश्लेषणों के मूल में ग्लोबल वार्मिंग को मुख्य कारक माना जाता रहा है। अब यह समझने की जरूरत है कि ग्लोबल वार्मिंग है क्या, जिसने मानव जीवन के लिए इतना संकट खड़ा कर दिया है।
ग्लोबल वार्मिंग से तात्पर्य पृथ्वी के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों (जैसे कार्बन डाइऑक्साइड) की अधिकता से होने वाले प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में है, जो जैव विविधता को प्रभावित करती है। यह मानव जीवन के लिए गंभीर स्वास्थ्य संकट भी पैदा करती है। इसके दुष्प्रभाव से बचाव के लिए हम मनुष्यों ने जो उपाय निकाले हैं, वो हास्यास्पद रूप से इस ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में सहयोगी हो रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग और मानसिक विकार
हालांकि, जलवायु परिवर्तन से जुड़े मानसिक विकारों पर मनोचिकित्सकीय अध्ययनों में अभी हमारे पास पर्याप्त शोध नहीं हैं किन्तु जो भी शोध परिणाम हैं वे मानव जीवन के लिए चिंताजनक ही हैं। मानसिक विकारों में अधिक देखी जाने वाली समस्याओं जैसे कि एंग्जायटी, सिज़ोफ्रेनिया, मूड डिस्ऑर्डर, अवसाद, आक्रामक व्यवहार, आत्महत्या, निराशा आदि का जलवायु परिवर्तन और अप्रत्याशित मौसम से संबंधित घटनाओं के अंतर्संबंध जानने के लिए विभिन्न शोध किए भी गए हैं।
चिकित्सा विज्ञान और शोध के लिए यह एक नया विषय है, जिसमें सेकेंडरी डेटा की बहुत कमी है। सबकुछ प्राथमिक डेटा संकलन के आधार पर ही जाँचा जा रहा है। ऐसे शोध के परिणाम में यह दिखाया गया है कि जलवायु परिवर्तन अलग-अलग समय में मानसिक स्वास्थ्य पर अलग तरीके से प्रभाव डालता है। यह मानव मन - मस्तिष्क पर जटिल प्रक्रिया के तहत कार्य करता है।
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव के कई घटक और आयाम हैं। ये सारे नए प्रकार के टर्म हैं, जिन्हें व्यक्त करने के लिए कई नए शब्दों को गढ़ा गया है। जैसे - इको एंग्जायटी, इको गिल्ट, इको सायकॉलॉजी, ईकोलॉजिकल ग्रीफ, सोलेस्टेल्जिआ, बायोस्फेरिक कंसर्न इत्यादि। इन सभी टर्म का सीधा अर्थ है- पर्यावरण प्रदूषण से पैदा होनेवाले दुःख, चिंता, अवसाद आदि जैसी मानसिक समस्याएं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, अल्पकालिक या दीर्घकालिक दोनों ही हो रहे हैं। इसके तीक्ष्ण संवेगी प्रभाव का लक्षण ट्रॉमॅटिक स्ट्रेस के समान दिखाई दे सकता है। जिसमें विशिष्ट मनोवैज्ञानिक पैटर्न हो सकते हैं। जो अगली पीढी के मन और बुद्धि पर भी असर डाल सकते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देने वाली एक महत्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड में 2005 से अभी तक 9 प्रतिशत और 1950 के मुकाबले 31 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के एक अंतर सरकारी पैनल की विशेष रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया पहले से ही लगभग एक डिग्री सेल्सियस गर्म हो चुकी है। विश्व के औद्योगिक विकास को इस बात की चेतावनी और सलाह दी गई कि वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिए तत्काल कार्य किया जाना चाहिए। यदि उसमें दो डिग्री की वृद्धि हुई तो दुनिया भर में अभूतपूर्व तापमान वृद्धि, पानी की कमी और भोजन की कमी हो जाएगी।
हम सभी सामान्य रूप से भी यह जानते हैं कि अत्यधिक गर्मी हमारे शरीर के हर हिस्से को प्रभावित करती है। जो थकावट, हीट स्ट्रोक, एंग्जायटी, दिमाग की कार्य क्षमता, चैतन्यता और यहां तक कि हृदय और फेफड़ों की बीमारी के चलते अप्राकृतिक मृत्यु का कारण बन सकता है। देश भर में, जलवायु संकट की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को तेजी से पहचाना जा रहा है। लोगों को इस बदलाव के प्रति सतर्क करने के लिए मेडिकल स्टाफ-डॉक्टर, नर्स, फार्मासिस्ट, मेडिकल छात्रों आदि को जागरुकता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
वायु प्रदूषण के सम्बंध में सूक्ष्म कण पीएम 2.5 का उल्लेख आजकल बहुत सुनने को मिलता है। इसका अधिकांश भाग जीवाश्म ईंधन के जलने से जुड़ा है जो ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में मदद करता है। जब हम इन कणों में सांस लेते हैं, तो वे हमारे श्वसन तंत्र को प्रभावित करते हैं और फेफड़ों की एल्वियोली नामक छोटी वायु थैली में बैठ जाते हैं। इससे सूजन और अस्थमा के लक्षण बिगड़ जाते हैं।
इस तरह के पर्यावरणीय बदलावों का दुष्प्रभाव सिर्फ बुजुर्ग और बीमार लोगों के लिए गंभीर साबित नहीं हो रहे, यह स्थिति एक स्वस्थ व्यक्ति को भी शारीरिक और मानसिक रूप से अचानक बीमार कर सकने में समर्थ हैं।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)