
Anti-hijab protests: हिजाब को लेकर अलग मापदंड क्यों?

Anti-hijab protests: ईरान के अटॉर्नी जनरल द्वारा मॉरल पुलिस को खत्म करने के निर्णय की घोषणा का पूरी दुनिया में स्वागत हुआ है, क्योंकि ईरान की युवतियों के हिजाब विरोधी आंदोलन को पूरी दुनिया की महिलाओं का साथ मिल रहा था। भारत में भी महिलाओं का एक बड़ा वर्ग ईरानी महिलाओं के समर्थन में था किन्तु यहीं एक बड़ा विरोधाभास देखने को मिला।
यह वही वर्ग है जो भारत में कट्टरपंथियों द्वारा मुस्लिम लड़कियों पर हिजाब थोपने का हिमायती है किन्तु ईरानी महिलाओं की हिजाब विरोधी मुहिम को वह महिला अधिकारों की लड़ाई बताता है। इन्हीं लोगों ने कर्नाटक के हुबली में स्कूली बच्चियों के हिजाब मामले को उनकी धार्मिक स्वतंत्रता से जोड़ा था किन्तु ईरान के परिपेक्ष्य में यही लोग मुस्लिम महिलाओं की अभियक्ति और जीने की स्वतंत्रता का राग अलापने लगी। इसके पीछे उनके एजेंडे से पहले जानते हैं ईरान और मॉरैलिटी पुलिसिंग के बारे में।
1970 से पहले और बाद का ईरान
1970 के दशक में ईरान महिलाओं के मुद्दों को लेकर काफी मुखर था और यहाँ खुलापन भी था। ईरान के विश्वविद्यालय में लड़कियों की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से अधिक थी। इससे पूर्व 1936 में रजा शाह ने ईरान में कश्फ-ए-हिजाब लागू किया अर्थात यदि कोई महिला ईरान में हिजाब पहनती थी तो पुलिस उसे उतार देती थी। हालांकि शाह रजा के बेटे मोहम्मद रजा ने जब शासन संभाला तो उसने कश्फ-ए-हिजाब पर रोक लगा दी। किन्तु उसने महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की स्वतंत्रता दे दी।
इसके बाद महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ और वे संसद के लिए चुनी जाने लगीं। ईरान के पर्सनल लॉ में व्यापक सुधार हुये ताकि महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्राप्त हो। इसके अंतर्गत लड़कियों की शादी की उम्र 13 से बढ़ाकर 18 साल की गई और गर्भपात एक कानूनी अधिकार बना।
1979 में इस्लामिक क्रांति के बाद शाह रजा पहलवी के देश छोड़कर जाने और शियाओं के धार्मिक नेता अयातोल्लाह रुहोल्लाह खोमैनी को ईरान का सुप्रीम लीडर बनाने से ईरान इस्लामिक रिपब्लिक बन गया। महिलाओं के अधिकारों को खोमैनी ने काफी कम कर दिया। शिक्षित ईरानी महिलाएं देश छोड़कर पश्चिम की ओर जाने लगीं और जो बच गईं उनकी जिंदगी कट्टरपंथियों द्वारा तय की जाने लगी।
क्या है मॉरल पुलिस जिसे खत्म किया गया?
ईरान की मॉरल पुलिस, जिसे 'गश्त-ए-इरशाद' कहा जाता है, उन लोगों, खासतौर पर महिलाओं, के खिलाफ सख्त कार्रवाई करती है जो देश के इस्लामिक कानून के हिसाब से कपड़े नहीं पहनते अथवा किसी भी तौर पर शरिया कानून को तोड़ते हैं। 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अहमदीनेजाद ने इसकी शुरुआत की थी। जून, 2013 में राष्ट्रपति हसन रूहानी ने लिबास को लेकर कुछ राहत देते हुए महिलाओं को ढीली जींस और कलरफुल हिजाब पहनने की मंजूरी दी थी।
हालांकि जुलाई, 2022 में राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने सख्ती से पुराना कानून लागू कर दिया और महिलाओं पर मॉरल पुलिसिंग की गाज गिरने लगी। हिजाब की जांच के लिये मॉरल पुलिस में महिलाएं भी शामिल होती हैं जिससे यह साबित होता है कि वहाँ इस्लामिक कानून लागू करवाना महत्वपूर्ण है।
अब ईरान में आगे क्या?
ईरान में भले ही मॉरल पुलिसिंग खत्म की जा रही हो किन्तु इससे वहां की महिलाओं के आंदोलन को जीत मिली हो, ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। ईरान की सरकार चुन-चुन कर प्रदर्शनकारियों पर मुक़दमे लाद रही है। चूँकि ईरान इस्लामिक देश है अतः वहाँ के कड़े कानून को देखते हुए प्रदर्शनकारियों को सजा-ए-मौत तक दी जा सकती है।
ईरान रिवोलुश्नरी गार्ड ने जिस बर्बरता से हिजाब विरोधी आंदोलन को दबाया था, उससे अभी यह मामला और भड़केगा। सारी दुनिया की निगाह वहां की महिलाओं पर होगी और हमें हमारे देश में वामपंथी गिरोह की गतिविधियों पर नजर रखना होगा क्योंकि आने वाले समय में भारत में वो पुनः हिजाब का मुद्दा गरमाने की साजिश रच सकते हैं।
भारत के लिबरल हिजाब के पक्ष में
दुनिया के किसी अन्य देश में किसी मजहब, पंथ अथवा समुदाय का पर्सनल लॉ बोर्ड नहीं है किन्तु भारत में कांग्रेसी-वामी षड्यंत्र के तहत देश की अस्मिता से सौदा कर इसे ढोने को मजबूर किया जा रहा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भारत में इस्लामिक कानूनों को लागू करवाने में जुटा हुआ है। यही कारण है कि जब कर्नाटक के हुबली में एक स्कूल में मुस्लिम बच्चियों से हिजाब उतरवाया गया तो मुस्लिम पर्सलन लॉ बोर्ड तुरंत उनके समर्थन में उतरा और इस मामूली घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया।
आश्चर्य तो तब हुआ जब महिला अधिकारों की हिमायती वामपंथी महिला समूहों ने भी इस घटना को जीने की स्वतंत्रता से जोड़ते हुए हिजाब को महिला की पसंद बता दिया। दरअसल, इस गैंग को वास्तव में महिला मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है। इसकी आड़ में उसे वोट बैंक की राजनीति करने का अवसर मिल गया।
भारत की कई ऐसी वामपंथी फेमिनिस्ट हैं जिन्होंने कर्नाटक के हिजाब मामले में इस्लामिक कट्टरपंथियों का साथ दिया, वहीं ईरान में हिजाब विरोधी आंदोलन कर रही युवतियों के समर्थन में भी दिखना चाहती हैं। अब एक ही मुद्दे पर अपनी सहूलियत के आधार पर अलग-अलग स्टैंड लेना क्या अनैतिक मानसिकता नहीं है?
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)