नमक मज़दूरों की कहानी: जीना यहां, मरना यहां....
ये उन नमक बनाने वाले मज़दूरों की कहानी है, जो जीते जी नमक बनाते हैं और कई बार नमक में ही लिपटकर दफ़्न हो जाते हैं. ग्राउंड रिपोर्ट.
नमक मज़दूरों की ये पहली कहानी नहीं है और न ही अंतिम. जब तक पानी है, तब तक नमक है और इसकी कहानियां हैं. जब आप इस लाइन को पढ़ रहे हैं, आपके शरीर में भी लगभग 200 ग्राम 'नमक' है.
रोज़ लगभग आठ से 10 ग्राम यानी दो चम्मच नमक आप जब खाते हैं तो सोचा है कि ये नमक बनता कैसे है और इसे बनाने वाले लोग किस हाल में जी रहे हैं?
ये उन नमक मज़दूरों की कहानी है, जो जब तक ज़िंदा रहते हैं नमक के साथ जीते हैं और जब मर जाते हैं तो कई बार नमक में ही लिपट के दफ़्न हो जाते हैं. इन कुछ नमक मज़दूरों का पूरा शरीर चिता में जल जाता है पर वो सख्त हो चुके पैर कई बार नहीं जल पाते हैं जिससे नंगे पैर सालों साल चलकर वो आपके लिए नमक बनाते हैं.
गुजरात का कच्छ, इसी नमक की खेती के लिए दुनिया भर में जाना जाता है.
कच्छ के नक्शे को उल्टा करें तो एक कछुए जैसी आकृति दिखती है. कहते हैं कि इसी कछुए जैसी आकृति के कारण कच्छ का नाम कच्छ पड़ा. इन अगरिया किसानों की ज़िंदगी भी कछुए जैसी धीरे-धीरे बढ़ती है. सिर्फ़ एक लक्ष्य लिए...नमक.
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जो अपना घर छोड़कर तैयार करते हैं आपका नमक
दूर-दूर तक सिर्फ़ मैदान. कहीं मेड़ काटकर खेतों में पानी भरा है तो कहीं उजियारा दिखता है.
इन कुछ सफ़ेद हो चुके खेतों में खंपारा (एक तरह का नुकीला फावड़ा) चलाती औरतें, आदमी और बच्चे दिखते हैं. ये लोग साल के आठ महीने यही काम करते हैं.
कच्छ के जोगिनीनार इलाके में नमक के खेतों में मज़दूरी कर रहे ये अगरिया सुरेंद्रनगर ज़िले के पास खाराघोड़ा से आए हैं. इन लोगों का घर, गांव सुरेंद्रनगर ज़िले में है. वहां अपनी ज़मीन भी है. पर ये वो इलाक़ा है जहां ज़मीन होने के बावजूद ये लोग नमक की खेती नहीं कर पाते हैं.
इसकी एक बड़ी वजह लिटिल रण ऑफ़ कच्छ कहलाने वाले खाराघोड़ा में पानी की समस्या है. खाराघोड़ा में नमक की खेती अगर करनी है तो पानी की किल्लत, बड़े से मैदान में एक छोटी सी झुग्गी में नौ महीने और बाक़ी दुनिया से लगभग पूरी तरह से कट जाने जैसी चुनौतियां आकर खड़ी हो जाती हैं.
खाराघोड़ा, सुरेंद्रनगर के आस-पास गांवों में रहने वाले ये कुछ अगरिया बारिश का मौसम ख़त्म होते ही जोगिनीनार, गांधीधाम जैसी कई जगहों पर आ जाते हैं. यहां ये लोग सेठ यानी दूसरे की ज़मीन और वहीं बनाए एक कमरे में सपरिवार रहकर नमक निकालने की मज़दूरी करते हैं.
यहां एक टन नमक निकालने पर इन लोगों को लगभग 50 रुपये मिलते हैं. यानी जितने में आप एक या डेढ़ किलो नमक ख़रीदते हैं, उतने पैसों में ये अगरिया मज़दूर एक हज़ार किलो नमक निकालते हैं. एक मज़दूर परिवार एक सीज़न में ज़मीन और बारिश के आधार पर कई हज़ार टन नमक निकाल सकता है.
इसी काम के लिए अपनी ज़मीन पर नमक निकालने वालों को 200-250 रुपये मिलते हैं.
खाराघोड़ा के बाहर इन अगरिया लोगों का जीवन अपेक्षाकृत कुछ आसान तो हो जाता है पर ये नमक है, जो अपनी फितरत नहीं बदलता है.
1930 में महात्मा गांधी ने इसी गुजरात में नमक सत्याग्रह किया था. नमक बनाने पर अंग्रेज़ों की लगाई रोक और टैक्स के ख़िलाफ़ गांधी ने दांडी यात्रा की थी.
आज उस यात्रा वाली जगह से 100 किलोमीटर दूर कितने ही अगरिया नमक बना रहे हैं. बस वो उतना पैसा नहीं कमा पा रहे हैं, जितना नमक ठेकेदार या फिर एक दिन में एक हज़ार टन नमक पैक करने वाली रिफाइनरी के मालिक कमा रहे हैं.
नमक बनाने वालों और नमक पैक करके बेचने वालों के घर देखने पर कमाई का फ़र्क़ साफ़ समझ आता है.
नमक से होने वाली बाकी शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक दिक़्क़तें हर जगह वही हैं.
'पानी होता उधर तो क्यों आते इधर?'
बाल सफ़ेद, दाढ़ी सफ़ेद. देखने पर जोगिनीनार के भरतभाई की उम्र 45-46 की लगती है. उम्र पूछी तो पता चला- सिर्फ़ 31 साल.
आपकी उम्र इतनी तो नहीं लगती? जवाब मिला- सफ़ेद नमक में रहते-रहते सब सफ़ेद हो गया. भरतभाई अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ जोगिनीनार में एक सेठ के यहां काम करने अक्टूबर में आए हैं. सेठ ने रहने के लिए एक कमरा दिया है.
जब हम भरतभाई से बात कर रहे थे, उस वक़्त खेतों में भरतभाई की बेटी और पत्नी बालूबेन खेत में खंपारा चला रही थीं. गुजरात के अगरिया की सही हालत और संख्या समझने के लिए ये दृश्य समझना बहुत ज़रूरी है.
सरकार नमक बनाते जिस अगरिया को एक गिन रही होती है, वो असल में परिवार के चार या पांच लोगों समेत नमक बना रहा होता है. यानी गिनती होती है एक की पर नमक परिवार के कई लोग बना रहे होते हैं.
भरतभाई खाराघोड़ा में रुककर ही अपनी ज़मीन पर नमक क्यों नहीं बनाया? भरतभाई बोले, “उधर पानी होता तो इधर क्यों ही आते? उधर दिक़्क़त है तो ही तो आते हैं न इधर. सेठ रोज पैसा देता है और बाद में जब पूरा पैसा देता है न.... तो जो एडवांस देता है वो काट लेता है.”
भरतभाई की पत्नी बालूबेन से जब बात करनी चाही तो वो हँसने लगीं. बोलीं- इससे बात करो न, ये बोलेगा न. मैं क्या बोलूं?
कई सवालों को पूछने पर बालूबेन बोलती हैं, “इधर तो अब थोड़ा ठीक है. उधर खाराघोड़ा में तो पानी का बहुत दिक़्क़त था. इधर भी नमक बनाते हैं तो पैर, आंख तो जलता ही है न. माहवारी होता है या बुखार, खेत में जाकर काम तो करना पड़ेगा न. गोली खाकर जाते हैं. और क्या कर सकते हैं?”
“नमक में जिए, नमक में मरे...”
दिन के कई घंटे नमक में गुज़ारने के बाद इन मज़दूरों के पैर सख़्त हो जाते हैं. ये पैर कुछ मामलों में इतने सख़्त हो जाते हैं कि मरने के बाद जब शरीर जलाया जाता है तो सब जल जाता है, बस पैर नहीं जलते.
65 साल के नरसीभाई बताते हैं, “हम मर जावें तो हमारा पांव नहीं जलता है. नमक डालकर पांव को खड्डे में डालना पड़ता है या तो फिर अग्नि में दोबारा पांव को डालते हैं.”
मशीनों और जूतों के आने से ऐसे मामलों में कमी तो आई है. मगर दशकों से नमक का काम कर रहे अगरिया बुज़ुर्गों में ऐसे मंज़र की यादें पूछने पर ताज़ा हो जाती हैं.
सरकारी बूट और काला चश्मा
सरकार की ओर से इन किसानों को काला चश्मा और काले जूते दिए गए हैं. पर अगरिया बताते हैं कि ये जूते तीन या पांच साल पहले दिए गए थे और टूट गए थे. कई किसानों ने हमें अपने टूटे जूते लाकर दिखाए.
यही हाल काले चश्मे का भी नज़र आता है.
गुजरात के ज़्यादातर शहरों में जहां चुनाव से जुड़ी कुछ न कुछ चीज़ें या रैलियां, बैनर्स दिख ही जाते हैं, वहीं इन किसानों के आस-पास कोई बैनर या चुनावी प्रचार नहीं दिखता है.
पूछने पर कुछ अगरिया बताते हैं, “जो गाड़ी लेकर आ जाता है, हम चले जाते हैं वोट डालने. जो हमारा करेगा हम लोग तो उसी को वोट डालेंगे.”
मैं पूछता हूं कि कौन आप लोगों के लिए करता है? तो जवाब मिलता है- अभी तक कोई नहीं किया, अब देखो कौन करता है.
चुनाव आते हैं तो सरकार से क्या चाहते हैं?
नरसीभाई, भरतभाई समेत कई अगरिया किसान कहते हैं, “सरकार जूते देती है पर वो एक साल चलते हैं. चुनाव है तो बस यही कहेंगे कि सरकार हमको जूते, चश्मा दे दें तो थोड़ा आंखों में जलन कम हो.”
केंद्र और राज्य के बीच की लड़ाई
इंडियन सॉल्ट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन यानी ISMA के प्रेसीडेंट भरत सी रावल बीबीसी हिंदी से कहते हैं, “गुजरात में नमक का टर्नओवर क़रीब 5 हज़ार करोड़ का है. मोटे तौर पर लगभग 5 लाख लोग इसके काम से जुड़े हैं. अब इन लोगों की जो बुनियादी ज़रूरतें हैं, वो पूरा करना सरकार का काम है न कि इंडस्ट्री वालों का. अभी हमारी नमक इंडस्ट्री केंद्र और राज्य सरकार के बीच लटक रही है."
वे कहते हैं, "नमक केंद्र के अंतर्गत आता है और नमक पैदा करने वाली ज़मीन राज्य सरकार के अंतर्गत. नमक या इसे बनाने वाले लोग सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है.”
रावल के मुताबिक़, “भारत में सालाना 300-350 लाख टन नमक पैदा होता है. जैसी बारिश होती है, नमक का उत्पादन भी वैसे ही घटता और बढ़ता है. किस मज़दूर को कहां कितने रुपये मिल रहे हैं, ये कई चीज़ों पर निर्भर करता है. सरकार की ओर से नमक निकालने वालों की कोई न्यूनतम मज़दूरी सरकार की ओर से तय नहीं की गई है.”
बीबीसी हिंदी ने भारत की सॉल्ट कमीशनर से इस बारे में उनका पक्ष जानने की कोशिश की. मगर इस कहानी को लिखने तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है.
कुछ निजी संस्थाएं अगरिया लोगों के लिए काम करती दिखती हैं जो सोलर पैनल लगवाना हो, बच्चों की शिक्षा के लिए काम करना हो या फिर स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतज़ाम करना हो.
अगरिया बच्चों की पढ़ाई
गुजरात के किसी भी हिस्से में नमक बन रहा हो, तो इसका एक बड़ा असर अगरिया लोगों के बच्चों पर भी होता है. नमक बनाने का काम नौ महीने तक चलता है. जैसे ही अक्टूबर में ये काम शुरू होता है अगरिया अपने गांवों से निकलकर नमक बनाने वाले खेतों में आ जाते हैं. अगले नौ महीने वीरानी जगह के इन खेतों में ही बीतते हैं.
ऐसे में बच्चों का भी स्कूल छूटता है. नई जगह पर कुछ पढ़ाई तो हो पाती है पर सारी तारतम्यता टूट जाती है.
बच्चों के भविष्य पर नरसीभाई कहते हैं, “ज्यादा पैसा नहीं आएगा तो बच्चों को क्या पढ़ाएंगे. हमारी मजबूरी है. पेट के लिए काम तो करना पड़ता है न. हम नमक बनाते हैं पर हमारी परेशानी कोई देखे तो हमारा काम करावे न. हमारी परेशानी नहीं देखता कोई.”
तीन बच्चों की मां बालूबेन कहती हैं, “अब हम कर रहे हैं तो बच्चों को भी करना पड़ता है. हम पढ़ा तो रहे हैं पर ये काम भी सिखा रहे हैं.”
बालूबेन जहां परिवार संग नमक बना रही हैं, ठीक उसी के पीछे एक कच्चा कमरा बना हुआ है. इस कमरे में माननभाई बच्चों को गुजराती में पढ़ा रहे हैं.
दो बच्चों की शर्ट के पीछे फ़िल्म 'पुष्पा' के हीरो अल्लू अर्जुन की तस्वीर बनी हुई है. मैंने पूछा कि कोई डॉयलॉग आता है क्या? हाथों को ठुड्डी के नीचे लगाकर ये बच्चे साथ में बोलते हैं... झुकेगा नहीं.
मगर ये रील नहीं, रियल लाइफ है. जहां ज़रूरतें हर उम्र के लोगों को झुका देती हैं. इन बच्चों की पीढ़ियां, बाल मजदूरी क़ानून को धता बताते हुए, नमक के खेतों में झुककर काम करती आ रही हैं.
हमें इन नमक के खेतों में कई ऐसे लोग मिले, जिनके हाथ पैरों पर नमक का असर साफ़ देखा जा सकता है. ऐसे में इन अगरिया लोगों को सेहत से जुड़े क्या ख़तरे हैं और अगरिया लोगों से जुड़ी दिक़्क़तों का समाधान क्या है? अगरिया मज़दूरों के साथ काम कर चुके डॉक्टर राजेश महेश्वरी से हमने यही समझने की कोशिश की.
हम जब नमक के इन खेतों से लौट रहे थे, तब स्कूल से बच्चे निकलकर घरों और नमक के खेतों की ओर लौट रहे थे.
हज़ारों अगरिया लोगों की ज़िंदगी पास से देखें तो मन सवाल पूछता है कि देश ने जिसका बनाया नमक खाया, उसने आख़िर क्या पाया?
कच्छ की राजनीति
गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैं. कच्छ लोकसभा क्षेत्र में कुल छह विधानसभा सीटें आती हैं.
ये सीटें अबडासा, मांडवी, भुज, अंजार, गांधीधाम और रापर हैं.
2017 के चुनावों में कच्छ में बीजेपी छह में से चार सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस 2 सीटें जीत पाई थी.
इनमें से ज़्यादातर सीटों पर 2014 के बाद से बीजेपी मजबूत दिखी है. हालांकि 2007 से पहले अंजार, अबडासा, रापर जैसी सीटें कांग्रेस का पुराना गढ़ रही हैं.
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