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नज़रिया: 'दलित राष्ट्रपति से दलितों का नहीं होगा फ़ायदा'

  • संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को कोई ख़ास अधिकार नहीं होते.
  • कुछ एक मामले को छोड़ दिया जाए तो जो सरकार चाहती है, उन्हें वो करना होता है.
  • भारतीय राष्ट्रपति की कमोबेश वही स्थिति होती है जो इंग्लैंड में महारानी की होती है.
  • कहने को वो मोनार्क हैं लेकिन उन्हें भी कोई अधिकार नहीं होते.

By ताहिर महमूद - संविधान मामलों के जानकार
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राष्ट्रपति चुनाव
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राष्ट्रपति चुनाव

गुरुवार को राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आ जाएंगे और दलितों की राजनीति के चलते देश को एक नया दलित राष्ट्रपति मिल जाएगा. लेकिन क्या इससे दलितों को कोई ख़ास फ़ायदा होगा?

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को कोई ख़ास अधिकार नहीं होते. कुछ एक मामले को छोड़ दिया जाए तो जो सरकार चाहती है, उन्हें वो करना होता है.

भारतीय राष्ट्रपति की कमोबेश वही स्थिति होती है जो इंग्लैंड में महारानी की होती है. कहने को वो मोनार्क हैं लेकिन उन्हें भी कोई अधिकार नहीं होते.

1950 में जब भारत में संविधान बना तो इंग्लैंड की ही तर्ज़ पर राष्ट्रपति के पद की अवधारणा की गई थी. यहां राजा महाराजा तो नहीं थे जो चाहते थे कि उन्हें यहां का मोनार्क घोषित किया जाए.

लेकिन जब आख़िर में संविधान बनकर तैयार हुआ तो इस पद को राष्ट्रपति कहा गया, जो सिर्फ़ नाम के ही होते हैं, उन्हें कोई अधिकार नहीं होता.

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राष्ट्रपति को हां करना ही पड़ता है

एक दलित के राष्ट्रपति बनने से दलितों को कोई फ़ायदा होगा ऐसा नहीं है, लेकिन ऐसा करने से पार्टी को दलितों के वोटों की शक्ल में फ़ायदा ज़रूर पहुंचेगा.

भारत के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन अपने कार्यकाल में काफ़ी प्रभावी माने जाते थे.

वो फॉरेन सर्विस से थे, भारत के राजनयिक रह चुके थे और अकादमिक क्षेत्र से भी थे तो उन्होंने अपनी आज़ादी दिखाने की कोशिश की थी.

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति सरकार को मशविरा दे सकते हैं, सरकार से पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं. लेकिन अगर सरकार इनकार कर दे तो उन्हें हस्ताक्षर करने ही होंगे.

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के आर नारायणन
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के आर नारायणन

नारायणन लंबे समय के लिए राजनयिक रह चुके थे तो उन्होंने अपना अलग स्टाइल रखा था लेकिन उसके कारण आगे के लिए कोई नज़ीर बनी हो ऐसा नहीं था.

लेकिन अब जो राष्ट्रपति बन कर आ रहे हैं यानी कोविंद से तो कोई उम्मीद ना ही रखी जाए.

कोविंद को कोई जानता नहीं, हमने भी उनका नाम नहीं सुना था, ना उनकी कोई भारी भरकम शख्सियत है नो कोई भारी क्वालिफ़िकेशन है. उन्हें तो वही करना है जो सरकार कहेगी.

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राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री में एक बार हुआ था मतभेद

भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू के बीच वैचारिक मतभेद हो गए थे.

क़ानून के एक रिसर्च इंस्टीस्यूट के उद्घाटन के वक़्त राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हम लोगों को आंखे बंद कर के ब्रिटेन के रिवाजों को नहीं अपनाना चाहिए बल्कि राष्ट्रपति के अपने अधिकार होने चाहिए.

लेकिन हमारे यहां नेहरू का व्यक्तित्व इतना मज़बूत था कि उन्होंने राजेंद्र प्रसाद को 10 साल तक राष्ट्रपति तो रखा लेकिन कभी उनकी कोई बात नहीं मानी गई.

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एक बार हिंदी या हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा रखा जाए इस पर वोटिंग हुई थी तो वोट आधे-आधे पड़े थे. उस मामले में राजेंद्र प्रसाद ने कास्टिंग वोट दिया था और हिंदी यहां की सरकारी ज़ुबान बन गई थी.

राष्ट्रपति का बाद में क्या होना है वो भी तो सरकार को ही डिसाइड करना होता है, तो ऐसे में राष्ट्रपति के लिए आसान नहीं होता सरकार से लड़ाई मोल लेना.

अब्दुल कलाम
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अब्दुल कलाम

पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बेहद क़ाबिल थे और हर बिल पर सरकार को मशविरा देते थे.

लेकिन सोनिया गांधी को एक महिला को राष्ट्रपति बना कर लाना था तो वो प्रतिभा पाटिल को ले आईं. उन्होंने कलाम को दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बनाया.

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राष्ट्रपति सरकार के विरुद्ध क्यों नहीं जाते?

भारत में संविधान के विरुद्ध भी सरकार कुछ कहती है तो राष्ट्रपति को उसे मानना होता है, इमरजेंसी के दौरान भी तो यही हुआ था.

इंदिरा गांधी ने जो कहा, वही माना गया. पार्टियां अधिकतर नेताओं को ही राष्ट्रपति बनाती हैं. डॉ राधाकृष्णन और ज़ाकिर हुसैन अकादमिक धारा से थे, कलाम भी अकादमिक थे.

मोदी और प्रणब मुखर्जी
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मोदी और प्रणब मुखर्जी

अब जो व्यक्ति आज आधी रात तक बीजेपी का सक्रिय सदस्य है और उसकी हर बात का समर्थन करता है कल राष्ट्रपति बनते ही उनकी सोच कैसे बदल जाएगी?

दलित ख़ुश होंगे की उनके समुदाय से कोई राष्ट्रपति बना लेकिन राष्ट्रपति अपने फ़ैसले से कोई फ़ायदा पहुंचाए ऐसा नहीं हो सकता.

राष्ट्रपति रातोंरात अपने विचार बदल कर न्यूट्रल हो जाएं, ये करना आसान नहीं होता. ये करना तो अपनी पर्सनैलिटी पर निर्भर करता है.

ज्ञानी ज़ैल सिंह को देखें तो वो इंदिरा गांधी की हर बात पर हां करते थे.

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इंदिरा गांधी
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इंदिरा गांधी

इस बार जो एक नई और गंभीर बात होने जा रही है वो ये है कि इस बार राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति दोनों ही सत्तारूढ़ पार्टी के नेता ही होंगे.

पहले तो उपरष्ट्रपति दूसरी पार्टी के होते थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा. तो ऐसे में कुछ भी हो जाए तो कम है.

(बीबीसी संवाददाता हरिता कांडपाल से बातचीत पर आधारित.)

BBC Hindi
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English summary
Opinion: 'Dalit will not benefit from Dalit president'.
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