नेहरू की बरसीः धर्मनिरपेक्ष विरासत
नेहरू
और
धर्मनिरपेक्षता
देश
की
राजनीति
को
धर्मनिरपेक्ष
सोच
पर
चलाने
वाले
सबसे
बड़े
नेताओं
में
जवाहरलाल
नेहरू
का
नाम
सबसे
ऊपर
है।
उनके
इंतकाल
को
आज
45
वर्ष
हो
गए।
उनकी
45वीं
बरसी
के
मौके
पर
धर्मनिरपेक्षता
के
सबसे
बड़े
नेता
की
कुछ
उपलब्धियों
का
जिक्र
करना
देश
और
समाज
के
हित
में
होगा।
उनकी
पार्टी
में
आज
बड़े
पैमाने
पर
सांप्रदायिक
सोच
के
लोग
घुस
गए
हैं,
जवाहरलाल
नेहरू
के
वक्त
में
भी
थे।
पार्टी
के
अंदर
और
बाहर
की
सांप्रदायिक
ताकतों
से
लड़ने
के
लिए
जवाहरलाल
नेहरू
हमेशा
तैयार
रहे
और
शायद
इसीलिए
देश
को
सांप्रदायिकता
के
दलदल
से
बचा
लाने
में
कामयाब
रहे।
आज धर्मनिरपेक्ष, राजनीति का इम्तिहान हो रहा है और उसमें नेहरू के नातियों के बेटे आमने सामने हैं। धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमान राहुल गांधी के हाथ में है जबकि सांप्रदायिक ताकतों की सबसे बड़ी जमात़ आरएसएस वाले नेहरू के छोटे नाती स्व.संजय गांधी के बेटे का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस लेख का उद्देश्य राहुल गांधी को आगाह करना भी है कि धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई बहुत ही मुश्किल लड़ाई है। जवाहरलाल नेहरू के वक्त में आरएसएस के लोग कुछ नहीं थे, हिन्दू महासभा से खतरा था लेकिन देश की अमन पसंद बिरादरी के सामने सांप्रदायिक ताकतों की कोई हैसियत नहीं थी, लेकिन नेहरू कभी गाफिल नहीं रहे। हमेशा चौकन्ना रहे और सांप्रदायिकता की जड़ों में बराबर मठ्ठा डालते रहे।
सांप्रदायिक
ताकतों
से
संघर्ष
1951
में
ही
नेहरू
के
सामने
सांप्रदायिक
राजनीति
ने
सिर
उठाना
शुरु
कर
दिया
था।
पुरुषोत्तम
दास
टंडन
कांग्रेस
के
अध्यक्ष
थे
और
हिंदू
संप्रदायवादी
उनके
पीछे
लामबंद
हो
रहे
थे।
नेहरु
को
सांप्रदायिक
राजनीति
से
चिढ़
थी
लिहाजा
उन्होंने
यह
पक्का
इंतजाम
किया
कि
टंडन
को
ही
कांग्रेस
प्रमुख
के
पद
से
हटाया
जाय।
टंडन
के
हटने
के
बाद
नेहरु
ने
सांप्रदायिक
ताकातों
से
लड़ने
की
योजना
बनाई।
अपने
मित्र
और
पश्चिम
बंगाल
के
मुख्यमंत्री
बिधान
चंद्र
रॉय
को
जवाहरलाल
ने
17
अगस्त
1951
को
चिठ्ठी
लिखी
जिसमें
साफ
किया
अगर
कोई
व्यक्ति
किसी
दूसरे
पर
इसलिए
हाथ
उठाता
है
कि
उसका
धर्म
अलग
है
तो
यह
मुझे
बरदाश्त
नहीं।
इस
समस्या
से
मैं
अपनी
अंतिम
सांस
तक
लड़ता
रहूंगा।""
राहुल गांधी को भी सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए इसी तरह का हौसला रखना होगा। साथ ही यह ध्यान भी रखना होगा कि नेहरू के वक्त में सांप्रदायिक ताकतें बहुत कमजोर थीं जबकि आज कई राज्यों में उनकी सरकारें है आडवाणी-मोदी ब्रांड की सांप्रदायिकता है, नौकरशाही और न्यायपालिका में बड़े पैमाने पर आरएसएस के लोग घुस चुके है। उन दिनों ज्यादातर सांप्रदायिक राजनीतिक ताकतें कांग्रेस के अंदर ही थीं। राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद की सोच बहुत हद तक सांप्रदायिक थी। जवाहरलाल को अपने ही राष्ट्रपति को संविधान सम्मत आचरण के लिए मजबूर करना पड़ता था।
असहमतियां
एक दिलचस्प उदाहरण डा.राजेंद्र प्रसाद की ज़िद है कि वे फिर से बनाए गए सोमनाथ मंदिर का उदघाटन करने जाना चाहते थे। उदघाटन समारोह के मुख्य संयोजक केएम मुंशी थे जो नेहरू के साथ मंत्री थे। बड़ी मुश्किल से इस कार्यक्रम से भारत सरकार को अलग करने में कामयाबी मिली। हिंदू कोड बिल के मामले में भी डा.राजेंद्र प्रसाद का मध्यकालीन सोच वाला हिंदू सक्रिय हो गया था लेकिन नेहरू ने उन्हें संभाला और कानून को पास करवाया। लेकिन परेशान बहुत थे। अपने दोस्त एनजी अयंगर को उन्होंने 22 सितंबर 1951 के दिन चिठ्ठी लिखी, ''मुझे बहुत अफसोस है कि राष्ट्रपति अपनी मंत्रिपरिषद से ज्यादा अपने ज्योतिषियों पर विश्वास करते हैं। लेकिन मैं इन ज्योतिषियों के सामने समर्पण नहीं करूंगा।""
जवाहरलाल नेहरू ने इतिहास, धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन किया था। उनका मानना था कि हिंदू दर्शन तो बहुत ही सहनशील है लेकिन हिंदू धर्म में बहुत ही संकीर्णता आ गई है। उनको पता था कि भारत का भाग्य हिंदू दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। नेहरू ने 17 नवंबर 1953 को केएन काटजू को एक पत्र लिखा जो उनकी चिंताओं को ठीक तरह से उजागर करता है। नेहरू ने लिखा. ''अगर वर्तमान हिंदू दृष्टिकोण नहीं बदला जाता, तो मुझे डर है कि भारत के सामने बहुत मुसीबतें आने वाली हैं। हो सकता है कि मुस्लिम दृष्टिकोण और भी बदतर हो लेकिन उससे भारत के भविष्य पर उतना असर नहीं पड़ेगा।""
भावी
खतरे
की
चिंता
सांप्रदायिकता
पर
निर्णायक
हमला
बोलने
के
उद्देश्य
से
जवाहरलाल
ने
केंद्र
और
राज्य
सरकारों
के
अपने
साथियों
से
आग्रह
किया
कि
अगर
मुसलमानों
को
फौजी
और
सिविल
सेवाओं
में
अच्छी
संख्या
में
भरती
किया
जाय
तो
सांप्रदायिक
ताकतें
कमजोर
होंगी।
उन्होंने
20
सितंबर
1953
को
सभी
मुख्यमंत्रियों
को
चिट्ठी
लिखी
जिसमें
साफ
कहा
कि
अगर
मुसलमानों
की
संख्या
सरकारी
नौकरियों
में
बढ़ाई
जाय
तो
देश
का
हर
नागरिक
अपने
आप
को
देश
की
तरक्की
के
लिए
समर्पित
करेगा
और
उसका
भागीदार
होगा।
नेहरू
को
डर
था
कि
सांप्रदायिक
ताकतें
हमारे
रोजमर्रा
के
कामकाज
को
प्रभावित
कर
रही
हैं
उन्होंने
बार-बार
इन
ताकतों
को
उखाड़
फेंकने
की
बात
की।
सांप्रदायिकता
के
स्तर
और
संभावित
खतरे
के
बारे
में
नेहरू
को
लगभग
हमेशा
ही
सही
अंदाज
था।
26 अप्रैल 1954 के दिन प्रधानमंत्री ने सभी सीएम को चिठ्ठी लिखी जिसमें साफ कहा, ''मैं इस मामले को बढ़ा चढ़ा कर नहीं बताना चाहता। मुझे विश्वास है कि समस्या अभी इतनी भयानक नहीं है। लेकिन इन प्रवृत्तियों की मौजूदगी ही खतरनाक है। मुझे परेशानी तब होती है जब हमारे ज्यादातर साथी सांप्रदायिकता से लड़ाई को जरूरी महत्व नहीं देते।""
वैज्ञानिक
सोच
को
बढ़ावा
यह
नहीं
है
कि
नेहरू
के
साथी
उनकी
हर
बात
मानते
ही
थे।
मौका
लगते
ही
भाई
लोग
गोली
दे
जाते
थे।
मसलन
उत्तरप्रदेश
और
मध्यप्रदेश
में
ऐसे
सांप्रदायिक
सोच
बल्कि
कांग्रेसी
मुख्यमंत्री
थे
जो
उर्दू
को
तो
कम
महत्व
दे
रहे
थे
लेकिन
संस्कृत
की
शिक्षा
को
अनिवार्य
बना
रहे
थे।
जब
नेहरू
को
इस
बात
का
पता
चला
तो
उन्होंने
मध्यप्रदेश
के
मुख्यमंत्री
रविशंकर
शुक्ला
को
20
मार्च
1954
को
चिठ्ठी
लिखी।
उन्होंने
5
दिसंबर
1954
के
दिन
कांग्रेस
पार्टी
के
सभी
सदस्यों
को
एक
पत्र
लिखा
कि
अगर
अल्पसंख्यक
समुदाय
के
लोग
संगठित
होते
हैं
तो
उस
समस्या
को
सुलझाने
के
सैकड़ों
रास्ते
हैं
लेकिन
अगर
बहुसंख्यक
समुदाय
धार्मिक
आधार
पर
एकजुट
होता
है
तो
उसके
खतरे
बहुत
ज्यादा
हैं।
गौर करने की बात यह है कि यह बात नेहरू ने तब कही थी जब अक्रामक हिंदुत्व का कोसों पता नहीं था। आरएसएस की कोई ताकत नहीं थी, हिंदू महासभा तबाह हो चुकी थी लेकिन नेहरू को मालूम था कि अगर बहुसंख्यक समुदाय धार्मिक आधार पर लामबंद होगा और अल्पसंख्यक समुदाय को अपमानित करना चाहे"" तो बहुत मुश्किल होगी। इसीलिए जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि धर्म निरपेक्ष ताकतें कमजोर न हों और कांग्रेस एक संगठन के रूप में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की अगुवाई करता रहे। ज़ाहिर है कि आज का जो हिंदू संप्रदायवाद है वह बहुत ही खतरनाक है। जवाहरलाल नेहरू को शायद इसका अंदाज रहा हो इसीलिए उन्होंने इससे लड़ने की तरकीबों पर विचार किया था। नेहरू मानते थे कि एक मजबूत राजनीतिक पार्टी सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला कर सकती है। इसके अलावा जवाहरलाल हर स्तर पर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को सक्रिय रहने की बात करते थे। साहित्य, कला, संस्कृति, भाषा, पत्रकारिता, सिनेमा आदि हर क्षेत्र में उन्होंने वैज्ञानिक सोच और धर्मनिरपेक्ष द़ृष्टिकोण की बात की थी।
विरासत
आज
सांप्रदायिक
ताकतें
कमजोर
होने
की
राह
पर
चल
पड़ी
हैं,
हो
सकता
है
सांप्रदायिक
राजनीति
तबाह
भी
हो
जाय
लेकिन
नौकरशाही,
मीडिया,
न्यायपालिका,
शिक्षा
आदि
क्षेत्रों
में
बैठे
सांप्रदायिक
लोग
अपना
काम
करते
रहेंगे।
जरूरत
इस
बात
की
है
कि
इन
ताकतों
की
शिनाख्त
की
जाय
और
इन्हें
जनतांत्रिक
तरीके
से
अलग-थलग
किया
जाय।
धर्मनिरपेक्षता
के
दर्शन
के
सबसे
बड़े
विचारक,
जवाहरलाल
नेहरू
के
प्रति
उनकी
बरसी
पर
इससे
बड़ी
श्रद्घांजलि
नहीं
हो
सकती।
इस
लड़ाई
का
नेतृत्व
कांग्रेस
और
समान
विचारधारा
वाली
पार्टियों
को
ही
करना
होगा।
यहां
यह
गौर
करने
की
बात
है
कि
धर्मनिरपेक्षता
की
लड़ाई
में
कम्युनिस्ट
पार्टियों
को
साथ
लेना
जरूरी
है
क्योंकि
उनके
संगठन
में
पढ़े-लिखे
लोगों
की
बड़ी
संख्या
है।
जिनका
कांग्रेस
आदि
पार्टियों
में
बहुत
अभाव
है।
दूसरी
महत्वपूर्ण
बात
यह
है
कि
कम्युनिस्टों
से
बढ़िया
बीजेपी
को
तबाह
करने
की
लड़ाई
कोई
नहीं
लड़
सकता
क्योंकि
वामपंथ
के
विकास
में
सांप्रदायिकता
सबसे
बड़ी
बाधा
है।
इसलिए
नेहरू
को
श्रद्घांजलि
देने
के
लिए
हमें
शपथ
लेनी
चाहिए
कि
हम
धर्म
निरपेक्षता
पर
आधारित
एक
मजबूत
भारत
का
निर्माण
करेंगे।
[शेष नारायण सिंह वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार हैं।]