अरब का अंधानुकरण और विश्वनीयता का बढ़ता संकट
उदयपुर और अमरावती में नबी निंदा के नाम पर हुई क्रूर और निर्मम हत्याओं का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मुस्लिम समाज पर पड़ने वाला है और भारत में उनके प्रति विश्वास का संकट अब गहराने की संभावना है। निर्दोष परिचित लोगों का मजहब के नाम पर गला काटकर चंद मुसलमानों ने पूरी कौम की विश्वसनीयता पर तलवार लटका दी है।
भारत का समाज बहुत अद्भुत है। यह किसी का विशिष्ट दर्जा स्वीकार नहीं करता। जिस राज्य में जो जाति या समुदाय इस विशिष्टताबोझ को धारण करती है, उसके खिलाफ सारा समाज एक हो जाता है। कुछ प्रदेशों में राजनीतिक व प्रशासनिक रूप से सर्वत्र हावी होने का प्रयास करने वाली जातियों का आप अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि इन जातियों के अहंकार ने ही इनको कोने में धकेल दिया है। जब आप अपनी जातीय या धार्मिक पहचान को सबसे ऊपर रखकर चलते हैं और उसी के नाम पर संगठित होकर हिंसा भी करते हैं तब पूरा का पूरा भारतीय समाज आपके खिलाफ खड़ा हो जाता है।
भारत का यह लोक मानस अपने मूल स्वभाव में अहिंसक है। किसी को पसंद करता है तो उसे अपने चित्त पर चढा लेता है। लेकिन किसी को नापसंद करता है तो उसे अपने चित्त से उतार भी देता है। वह प्रत्यक्ष रूप से कहीं हिंसा करता नहीं दिखेगा। बहुत गलत बोलता नहीं सुनाई देगा लेकिन चुपचाप ऐसे लोगों को अपने चित्त से उतार देता है जो बाकी सब पर हावी होने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों से वह कहता तो कुछ नहीं है लेकिन अपने आप को उनके साथ किसी भी प्रकार के व्यवहार से अलग कर लेता है।
फिर इस्लाम का मामला तो थोड़ा और पेचीदा है। इस्लाम भारत में पैदा हुआ मजहब नहीं है। इसकी भाषा, इसके कर्मकांड, इसकी मान्यताएं, इसका विश्वास, इसकी भेष भूषा, इसकी पूजा पद्धति कुछ भी भारत की भूमि से मेल नहीं खाता है। इसलिए वह सबके बीच रहकर भी सबसे अलग दिखता है। यह आम जन के लिए मेल जोल के रास्तों को पूरी तरह से बाधित कर देता है। आम आदमी का आपसी मेल-जोल मुख्य रूप से सांस्कृतिक होता है। हम किसी एक जगह रहते हैं। उस जगह पर जो भाषा मैं बोल रहा हूं वही भाषा आप बोल रहे हैं। जिस तरह के कपड़े मैं पहन रहा हूं उसी तरह के कपड़े आप पहन रहे हैं। जिस तरह का भोजन मैं कर रहा हूं, उसी तरह का भोजन आप कर रहे हैं, तब हमारे और आपके बीच सहज एक सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो जाता है। तब सिर्फ धार्मिक मान्यता कोई इतनी बड़ी बाधा नहीं होती कि आपस में मेल जोल के सारे रास्ते बंद हो जाए।
मुसलमानों के बीच भारतीय समाज में मेलजोल के ये कारण कोई तीन दशक पहले तक मौजूद थे। लेकिन बीते तीन दशकों में जैसे भीतर ही भीतर मुसलमानों में कोई बड़ा बदलाव आया है। नब्बे के दशक तक भारत के हर राज्य या क्षेत्र के मुसलमान वहां की भाषा, बोली, परिधान सबको अपनाते थे। इसलिए सिर्फ अलग मजहब कोई ऐसा कारण नहीं होता था कि बाकी समाज से मेलजोल में कोई बड़ी दिक्कत आये। लेकिन 1979 में हुई ईरान की कथित इस्लामी क्रांति का असर भारत में नब्बे के दशक के आखिर में होना शुरु हुआ और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में मानों हर मुसलमान सच्चे इस्लाम की खोज में भटकने लगा।
एकदम से हिजाब, बुर्का, अबया, बिना मूछ वाली दाढी, ऊंचे पाये वाला पाजामा आम बात हो गयी। उन्होंने स्थानीय भाषा की बजाय ऐसी उर्दू बोलना शुरु कर दिया जिसमें स्थानीय शब्द कम और अरबी फारसी के शब्दों की भरमार हो गयी। बाकी समाज को मुसलमानों के भीतर तेजी से होने वाले ये व्यावहारिक बदलाव सशंकित भी करने लगे और परेशान भी। जिन शहरों में आमतौर पर इक्का दुक्का महिलाएं बुर्के में दिखती थीं, अब वहां कोई मुस्लिम महिला बिना बुर्के के नहीं दिखती। हिजाब के रूप में एक बिल्कुल नया चलन शुरु हुआ जो देखते ही देखते हर मुस्लिम लड़की की इस्लामिक पहचान बन गया।
यह सब शून्य से तो निकला नहीं है। जरूर मुसलमानों के भीतर कोई ऐसा विमर्श चला है जिसके कारण ये ऊपरी बदलाव दिखने शुरु हुए। यह विमर्श आया ईरान और सऊदी अरब से। सच्चाई यही है कि बीते दो तीन दशकों में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अरब का प्रभाव बहुत तेजी से बढा है और अरबी पहनावे और जीवनशैली को इस्लाम बताकर प्रचारित किया गया है। जहां भी दस बीस घर मुसलमान हैं वहां मस्जिदें बनवाई जा रही हैं और उन्हें पांच वक्त नमाज का पाबंद किया जा रहा है। छोटे छोटे गांव और कस्बों तक मुसलमानों में सच्चे इस्लाम का यह नवजागरण पहुंच रहा है। इसके कारण अपने परिवेश में रचे बसे मुसलमान अपनी स्थानीय पहचान को छोड़कर अरबी पहचान धारण कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है ऐसा करके ही एक सच्चे मुसलमान बन सकते हैं।
ऐसे में बाकी भारतीय समाज का मुसलमानों में आ रहे इस बदलाव को लेकर आशंकित होना स्वाभाविक है। मुसलमानों को भले यह लगता है कि वो अपने मजहब को सही तरीके से फॉलो करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन बाकी समाज के लिए तो यह बिल्कुल किसी ऐसी नयी संस्कृति का पदार्पण है जिसका यहां से कोई संबंध ही नहीं है। भारत में हिन्दू मुसलमान का टकराव दशकों पुराना है लेकिन बीते दो तीन दशक में इसकी खाईं और चौड़ी हुई है। इसका मुख्य कारण मुसलमानों की जीवनशैली और व्यवहार में आया वही बदलाव है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। फिर सोशल मीडिया पर खाने में थूकने, हिन्दू लड़कियों के साथ धोखाधड़ी करके शादी करने और उन्हें इस्लाम कबूल करवाने वाली जानकारियों ने भी मुसलमानों की विश्वसनीयता को कमजोर ही किया है।
रिश्तों और संबंधों की ऐसी कमजोर दशा में जब संबंध पहले ही नाजुक दौर में हैं तब कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे की हत्या ने बाकी समाज को और अधिक शंका और भय से भर दिया है। इसका दुष्परिणाम क्या होगा, इसका अंदाज ठीक इस समय लगाना मुश्किल है, लेकिन जिस तरह से हरियाणा और राजस्थान में मुसलमानों के बहिष्कार को लेकर सामाजिक पंचायतें हुई हैं वो मुस्लिम कौम के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
अगर समाज ने मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार का रास्ता चुन लिया तो ऐसी वारदातों का सबसे बड़ा नुकसान मुस्लिम कौम को हो होगा। सिर्फ सरकारी योजनाओं से किसी जाति या वर्ग का भला न कभी हुआ है और न होगा। अंतत: सामाजिक संबंध ही किसी वर्ग, समुदाय या जाति को समाज में विश्वसनीय या अविश्वसनीय बनाते हैं। मुस्लिम विचारकों, आलिमों, मुफ्तियों, मौलानाओं को सोचना होगा कि इस्लाम के नाम पर अरबी सोच को लागू करके वो बड़ी गलती तो नहीं कर रहे?
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