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इंडिया गेट से: बिहार, महाराष्ट्र और यूपी में दलित वोटर भाजपा के साथ क्यों?

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1970-80 के दशक में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मण बनियों की पार्टी माना जाता था। अयोध्या आन्दोलन के दौरान भाजपा ने अपनी छवि बदलने के लिए पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का पहला मुख्यमंत्री बनाया। फिर दलितों को आकर्षित करने के लिए मायावती को समर्थन देकर यूपी की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री बनाया।

BJP targets Dalit voters through state level alliances

दीर्घकालीन रणनीति के तहत भाजपा ने उतर प्रदेश में मायावती, बिहार में राम विलास पासवान और महाराष्ट्र में राम दास अठावले से समय समय पर चुनावी और राजनीतिक गठजोड़ किया। इन तीनों पार्टियों के उदय से पहले इन तीनों राज्यों में दलित वोट कांग्रेस का परंपरागत वोट था। भाजपा ने इन तीनों दलों के साथ सत्ता में हिस्सेदारी के आधार पर गठजोड़ किया था। मायावती को उतर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया तो रामविलास पासवान को केंद्र सरकार में मंत्री। 2014 में महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया टूटी तो राम दास अठावले गुट ने भाजपा से गठजोड़ किया। बदले में उन्हें भी केंद्र में मंत्री पद मिला।

इस बीच पिछले आठ सालों में दलितों को भी भाजपा को समझने का मौक़ा मिला, और अपने भ्रष्ट और परिवारवादी नेताओं की वजह से तीनों राज्यों का बड़ा दलित वर्ग भाजपा के साथ जुडा है। महाराष्ट्र में 9 प्रतिशत के आसपास दलित वोट है, इसका बड़ा हिस्सा विदर्भ में है। आरपीआई टूटती-जुडती-बिखरती रही है। इस समय भी तीन आरपीआई हैं। रामदास अठावले, प्रकाश आंबेडकर और योगेन्द्र कबाड़े की आरपीआई। इनमें से राम दास अठावले वाली आरपीआई भाजपा के साथ हैं और अठावले केंद्र में मंत्री हैं।

बिहार में दलित वोट और भाजपा

बिहार में जनता दल से अलग होने के बाद रामविलास पासवान ने अपनी लोकजनशक्ति पार्टी बनाई। भाजपा के साथ गठबंधन के चलते 2019 में लोक जन शक्ति पार्टी के सात सांसद जीत गए थे, जिनमे राम विलास पासवान, उनके भाई पशुपति नाथ और बेटा चिराग पासवान भी थे। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राम विलास पासवान का देहांत हो गया।

भाजपा का बिहार में नीतीश कुमार और राम विलास पासवान के साथ गठबंधन था लेकिन देहांत से पहले नीतीश कुमार और पासवान के संबंध बहुत खराब हो चुके थे। इसका नतीजा यह निकला कि चिराग पासवान को गठबंधन से अलग हो कर अकेले विधानसभा का चुनाव लड़ना पड़ा। उन्होंने 137 उम्मीदवार उतारे थे, इनमें ज्यादातर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के उम्मीदवारों के सामने थे।

चिराग पासवान ने भले ही नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाया, लेकिन उनकी पार्टी की हालत खस्ता हो गयी। उसका सिर्फ एक उम्मीदवार ही जीता, जो 9 उम्मीदवार दूसरे नबंर पर रहे उनमें से चार भाजपा के बागी थे और दो जेडीयू के बागी थे। वोट प्रतिशत भी घट कर सिर्फ 5.66 प्रतिशत रह गया। चुनाव के बाद चिराग के चाचा पशुपति पारस ने चार सांसद अपने साथ ले कर पार्टी को विभाजित कर दिया और मोदी सरकार में मंत्री बन गए।

अब समय का चक्र घूम चुका है, भाजपा को 2024 का लोकसभा चुनाव बिहार में अकेले लड़ना है और उसे दलित वोटों की जरूरत है जो पशुपति पारस नहीं दिला सकते। क्योंकि राम विलास पासवान की विरासत चिराग के पास है। चाचा भतीजे में समझौता होने की कोई संभावना नहीं दिखती। इसलिए भाजपा पशुपति पारस से पिंड छुडा कर चिराग पासवान से गठजोड़ करना चाहती है।

चिराग पासवान के अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा को फायदा हुआ था और जेडीयू को भारी नुक्सान हुआ था। नीतीश कुमार के मन में हमेशा यह खटास रही कि भारतीय जनता पार्टी ने चिराग पासवान के साथ मिल कर उन्हें नुकसान पहुंचाया। इसी खटास के चलते अब भाजपा-जेडीयू गठबंधन टूट चुका है। लालू यादव, नीतीश और कांग्रेस का महा गठबंधन दोबारा बन चुका है।

उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति

बिहार के बाद अब यूपी की सियासत भी करवट लेती दिखाई देने लगी है। उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत दलित वोट हैं। इसी कारण मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहीं। 1995 में मायावती और मुलायम की ऐतिहासिक तकरार के बाद भाजपा ने उन्हें तब पहली बार मुख्यमंत्री बनाया था जब बसपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिराई थी। सरकार गिराने पर मुलायम सिंह के सपाई विधायकों और कार्यकर्ताओं ने मायावती के साथ मारपीट तक की थी। यह गेस्ट हाउस काण्ड के तौर पर मशहूर हुआ था।

गेस्ट हाउस काण्ड के 24 साल बाद मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव ने दलित-यादव महागठबंधन के लिए 2019 में मायावती के घर दस्तक दी थी। सपा-बसपा गठबंधन हो भी गया, जिसका बसपा को फायदा भी हुआ। जो बसपा 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं ले पाई थी, वह 2019 के लोकसभा चुनाव में दस सीटें ले गई। गठबंधन में कम सीटें लड़ने के बावजूद उसे 19.41 प्रतिशत वोट भी मिला था, जो सपा से भी डेढ़ प्रतिशत ज्यादा था। हालांकि वोट सिर्फ डेढ़ प्रतिशत कम था, लेकिन सपा को सीटें पांच ही मिलीं थी। इसके बावजूद मायावती ने यह कहते हुए गठबंधन तोड़ दिया कि सपा के वोट ट्रांसफर होते तो बसपा ज्यादा सीटें जीतती।

मायावती को सपा से गठबंधन तोड़ने के नुकसान का एहसास इसी साल हुए विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हुआ। सपा तो अकेले लड़कर 126 सीटें जीत गई, लेकिन बसपा सिर्फ एक सीट जीत सकी। यह इस बात का सबूत है कि बसपा का लगभग सारा दलित वोट भाजपा को ट्रांसफर हो चुका है। बसपा के पास अब मायावती की अपनी जाति का ही वोट बचा है, या थोड़ा बहुत मुस्लिम वोट। उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत दलित वोट है, लोकसभा चुनाव में मायावती को 19.41 प्रतिशत वोट मिला था, लेकिन विधानसभा चुनाव में घट कर सिर्फ 13 प्रतिशत रह गया। जबकि भाजपा को 41 प्रतिशत और सपा को 32 प्रतिशत वोट मिला है।

मात खाई मायावती अब अखिलेश यादव से दोबारा गठबंधन करना चाहती है ताकि 2019 की तरह 2024 में भी दलित- यादव- जाट-मुस्लिम एकजुट हो सके। लेकिन उन्हें समझना चाहिए किअब सर्व समाज की राजनीति भाजपा करती है और नरेन्द्र मोदी की गरीब कल्याण योजनाओं के कारण बड़ी संख्या में दलित भाजपा के साथ जुड़ चुके हैं जो अखिलेश के साथ गठबंधन करने के कारण मायावती के साथ भी जाने से परहेज करेंगे।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
BJP targets Dalit voters through state level alliances
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