19 अगस्त 1942 को ही अंग्रेजों से आजाद हो गया था बलिया
19 अगस्त 1942 को ही अंग्रेजों से आजाद हो गया था बलिया
लाल पगड़ी तब अंग्रेज सरकार के पुलिस के सिपाहियों की पहचान हुआ करती थी। उस समय बलिया में एक नारा बहुत प्रचलित हुआ।
"एक दो, लाल पगड़ी फेंक दो,"
"एक दो तीन, लाल पगड़ी छीन,"
"एक दो तीन चार, लाल पगड़ी फाड़ डाल।"
इस नारे ने बलिया में ऐसा माहौल बनाया कि 15 अगस्त 1947 से पांच वर्ष पहले ही 19 अगस्त 1942 को बलिया जिला अंग्रेजों के शासन से आजाद हो गया था। हालांकि यह आजादी महज 6 दिन की रही और अंग्रेज अधिकारियों ने दोबारा बलिया पर कब्जा कर लिया लेकिन इन 6 दिनों की आजादी ने बलिया के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय लिख दिया था।
दरअसल, 9 अगस्त 1942 को मुंबई में भारत के तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजी सरकार के खिलाफ जो दावानल भारतीय दिलों में उबल पड़ा था, उसकी तपिश बलिया तक अगले ही दिन पहुंच गई थी। इसके खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए। सुराजी लोगों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।लेकिन यह आंदोलन निर्णायक तब हुआ, जब 18 अगस्त को बलिया के पूर्वी छोर पर स्थित बैरिया थाने पर वहीं के नजदीक स्थित बाबा लक्ष्मण दास हाईस्कूल और मिडिल स्कूल के छात्रों ने तिरंगा फहराने की सोची।
नारायण गढ़ निवासी कौशल कुमार सिंह की अगुआई में छात्रों का दल तिरंगा फहराने चला तो थानेदार ने अनुमति दे दी। लेकिन उसके मन में अंग्रेजी दासतां का कीड़ा छुपा हुआ था। उसने तिरंगा फहराने जाते हुए छात्रों पर गोलियां बरसा दीं। जिसमें कौशल कुमार सिंह और पदुमदेव पांडे समेत 19 छात्र शहीद हुए।
अपने नौनिहालों की इस नृशंस हत्या से द्वाबा इलाका विचलित हो गया। गंगा के किनारे का गरम खून थाने की तरफ दौड़ पड़ा। लोग पागलों की तरह थाने की तरफ बढ़ चले। उन्मादी भीड़ देख बैरिया थाने की पुलिस के हाथ-पांव फूल गए और वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़ भाग चली। मकई और अरहर के खेतों के बीच से सिपाही और थानेदार भागते रहे और पीछे-पीछे दौड़ती भीड़ ने रास्ते में पड़ने वाले थानों मसलन सहतवार आदि को लूट लिया और वहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शान तिरंगा फहरा दिया।
देखते ही देखते यह क्रांति इतनी तेज हो गई कि पूरे जिले में अंग्रेज अफसरों को भागना पड़ा। बलिया के एसडीएम स्मिथ के अत्याचारों से लोग पहले से ही परेशान थे। बलिया में 9 अगस्त 1942 को ही राधा मोहन सिंह, परमात्मा नंद सिंह और रामनरेश सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। चित्तू पांडेय, राजेश्वर तिवारी, शिवपूजन सिंह, महानंद मिश्र, विश्वनाथ चौबे, ठाकुर जगन्नाथ सिंह, तारकेश्वर पांडेय, युसूफ कुरैशी को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था। छात्रों के नेता तारकेश्वर पांडेय की अगुआई में पूरे बलिया में इन गिरफ्तारियों के खिलाफ प्रदर्शन हुआ और हड़ताल रखी गई। इन गिरफ्तारियों ने आग में घी का काम किया और क्षेत्रीय जनता सड़कों पर उतर आई।
11 अगस्त को प्रात: बलिया शहर के मध्य स्थित ओक्डेनगंज में विश्वनाथ मर्दाना के नेतृत्व में हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने जुलूस निकाला। सभा को पं. रामअनंत पांडेय ने संबोधित किया जिन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। वैसे पूरे बलिया में अंग्रेजी शासन के अत्याचार के खिलाफ आंदोलन चलता रहा। बिल्थरारोड में पारसनाथ मिश्र के नेतृत्व में उग्र प्रदर्शन हुए और सरकारी संपदा को नुकसान पहुंचाया गया। आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, जिनमें जानकी देवी, कल्याणी देवी और पार्वती देवी के नाम अविस्मरणीय हैं।
जनपद के विभिन्न स्थानों पर जनता के नेतृत्व में आंदोलन अपने-अपने ढंग से संचालित होता रहा। इस बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय से छात्रों की एक टोली रेल से चली और रास्ते में पड़ने वाले थानों को लूटती गई। डाकखानों को भी लूट लिया गया और उन पर सुराजियों का कब्जा होगा। जगह-जगह रेल लाइनें उखाड़ दी गईं। आंदोलन की हालत यह थी कि अंग्रेजों के हाथपांव फूल गए। 19 अगस्त 1942 का दिन बलिया जनपद के क्रांतिकारी संघर्ष का निर्णायक दिन था। जिले में कई स्थानों पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो जाने से बांसडीह तहसील से ब्रिटिश हुकूमत के उखाड़ फेंकने से क्रांतिकारियों के हौंसले बुलंद थे। सुखपुरा, मनियर, रसड़ा हर जगह क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया।
दस हजार से अधिक की भीड़ ने बलिया जेल को घेर लिया जिसके दबाव में तब के कलेक्टर जे. निगम को सभी बंदियों को रिहा करने पर बाध्य होना पड़ा। बलिया में प्रजातांत्रिक स्वराज सरकार की स्थापना हुई और चित्तू पांडेय बलिया के प्रथम कलेक्टर नियुक्त हुए लेकिन बलिया की ये आजादी महज छह दिनों तक ही कायम रह पाई।
इसके बाद बलिया में बक्सर से गंगा के रास्ते क्रूर अंग्रेज अधिकारी नेदरसोल की अगुआई में अंग्रेजी फौज ने पश्चिम-दक्षिण की सीमा से प्रवेश किया। उसके बाद बलिया में अंग्रेजी हुकूमत का नंगा नाच शुरू हो गया। गांवों पर जुर्माने लगाए गए। शहर में जो भी जहां दिखा, उसको अधमरा करने तक पीटा गया।
बैरिया आंदोलन के कई लोग फरार हो गए। उन्हीं में से एक थे मिल्की निवासी जगदीश तिवारी। उनके समेत कई लोगों को भूमिगत होने के लिए मजबूर होना पड़ा। रेलवे लाइन के किनारे वाले गांवों पर अंग्रेज अफसरों ने जुर्माने लगाए। अंग्रेजों के डर से हफ्तों तक मकई के खेतों के बीच पूरे परिवार को, जिसमें महिलाएं भी थीं, छुप कर रहना पड़ा। इस दौरान पुलिस और अंग्रेज सैनिकों को लोगों के घरों में जो कुछ भी मिला, उठा ले गए। इसके बाद बलिया पर अंग्रेजी सत्ता कायम हुई। बलिया पर अंग्रेजी हुकूमत का कब्जा कितना अहम था कि तब बीबीसी पर उसे खबर प्रसारित करनी पड़ी- "Balia has been reconquered" यानी बलिया पर फिर से कब्जा हो गया।
भारतीय आजादी के इतिहास में बलिया ने आजादी हासिल करके स्वर्णिम इतिहास तो रच दिया, लेकिन उसकी कीमत पूरे जिले के नागरिकों को दमन, सरकारी लूट और अत्याचार के तौर पर चुकानी पड़ी। यह बात और है कि 1944 में लोगों के दर्द पर राहत का मरहम लगाने फिरोज गांधी बलिया आये। उन्होंने महीनों तक तांगे पर घूम-घूमकर लोगों का सहयोग किया और उनके खिलाफ जारी मुकदमों को लड़ने का बंदोबस्त किया। इसीलिए बलिया की खत्म होती पीढ़ी आज भी फिरोज गांधी को याद करती है।
मंगल पांडे और चित्तू पांडे जैसे क्रांतिकारियों की भूमि रही बलिया ने इतिहास भले ही रचा, लेकिन उसकी कीमत आज तक उसे चुकानी पड़ रही है। विकास की कसौटी पर बलिया आज भी पीछे है। इस धरती से चंद्रशेखर जैसी राजनीतिक हस्ती ने सात बार बलिया की संसद में नुमाइंदगी की, लेकिन बलिया आज जिंदगी की जरूरी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिस बलिया ने अपने बांकेपन से अंग्रेजों तक के दांत खट्टे कर दिए थे, वह बलिया आज चुप है। बलिया की यह चुप्पी देखकर मन में सवाल उठता है कि क्या यहीं के पुरखे थे, जिन्होंने कभी इतिहास बना दिया था?
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)
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