रूस की कज़ाख़स्तान में इतनी दिलचस्पी क्यों? - दुनिया जहान
देश में हो रहे सरकार विरोधी प्रदर्शनों पर काबू पाने के लिए कज़ाख़स्तान के राष्ट्रपति ने रूस की मदद मांगी. लेकिन चिंता जताई जाने लगी कि इससे कज़ाख़स्तान पर रूस का प्रभाव बढ़ेगा.
2022 का पहला सप्ताह, कज़ाख़स्तान के पश्चिमी ज़ानोज़ेन शहर में सरकार विरोधी प्रदर्शनों के लिए सैंकड़ों लोग इकट्ठा हुए. ये जमावड़ा ग़ैर-क़ानूनी था क्योंकि प्रशासन की अनुमति के बिना प्रदर्शनों पर पाबंदी थी.
विरोध प्रदर्शनों की ये आग तेज़ी से फैलती गई, कई शहरों में हालात बेकाबू होने लगे. शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने जल्द हिंसक रूप ले लिया. सुरक्षाबलों के साथ हुई झड़पों में 225 लोगों की मौत हुई और कई घायल हुए.
हालात तनावपूर्ण थे. ऐसे में कज़ाख़ राष्ट्रपति कासिम जोमार्ट तोकायेव ने अचानक विदेशी मदद लेने का फ़ैसला किया और घंटों के भीतर रूसी शांति सेना कज़ाख़स्तान में उतरी. रूसी हस्तक्षेप की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी आलोचना हुई.
वहीं कज़ाख़स्तान के लिए ये अब तक से सबसे बुरे विरोध प्रदर्शन थे. लेकिन मुल्क के सामने ये अकेली बड़ी चुनौती नहीं. देश गंभीर राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है.
तो इस सप्ताह दुनिया जहान में हमारा सवाल है कि कज़ाख़स्तान में आख़िर हो क्या रहा है और इस मुल्क में रूस की इतनी दिलचस्पी क्यों?
लोगों में नाराज़गी क्यों?
रोशान ज़ेन्डायेवा जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर हैं. कज़ाख़स्तान में जन्मी रोशान ने वहां 22 साल बिताए हैं.
वो कहती हैं कि यहां अधिकतर गाड़ियों में लोग लिक्विफ़ाइड पेट्रोलियम गैस यानी एलपीजी का इस्तेमाल करते हैं. एलपीजी यहां सस्ती थी क्योंकि इसकी क़ीमत पर सरकारी नियंत्रण था. इस साल की शुरुआत में सरकार ने इस पर लगा प्राइस कैप हटा दिया.
वो कहती हैं, "लोगों के घर और गाड़ियां गैस पर निर्भर हैं. कुछ दिनों के भीतर गैस की क़ीमतों में दो बार बढ़ोतरी की गई. कच्चे तेल का अधिक उत्पादन पश्चिमी हिस्से में होता है और विरोध यहीं से शुरू हुआ. लोगों की शिकायत थी कि तेल उत्पादन से हो रहे लाभ का फ़ायदा इस इलाक़े को नहीं मिल रहा."
कज़ाख़स्तान उत्तर में रूस, पूर्व में चीन और दक्षिण में किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान से घिरा है. देश के पश्चिम में कैस्पियन सागर है, कच्चे तेल का अधिकांश उत्पादन इसी हिस्से में होता है. यहां दुनिया के कच्चे तेल के भंडार का 3 फ़ीसदी है.
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फ़ाइनेन्शियल कंपनी केपीएमजी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में देश की आधी संपत्ति 162 लोगों के हाथों में थी, जो देश की आबादी का 0.001 फ़ीसदी है.
रोशान कहती हैं, "कई मुद्दों को लेकर लोगों में नाराज़गी थी और इसलिए विरोध प्रदर्शन तेज़ी से पूरे देश में फैलने लगे. प्रदर्शनकारियों की बात करें तो लगभग हर आयुवर्ग के लोग इसमें शामिल थे."
कज़ाख़स्तान में 2014 में मुद्रा के अवमूल्यन को लेकर और 2016 में सरकारी ज़मीन चीन को बेचने को लेकर प्रदर्शन हुए थे. यहां लंबे वक्त से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की मांग होती रही है.
लेकिन हाल में हुआ विरोध प्रदर्शन अब तक का सबसे भीषण विरोध प्रदर्शन था. पुलिस स्टेशनों और सरकारी दफ़्तरों में आग लगा दी गई. सुरक्षाबलों के प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाने की भी ख़बरें आईं.
बाद में सरकार को इस्तीफ़ा देना पड़ा. लेकिन रोशान कहती हैं सही मायनों में ये बदलाव का संकेत नहीं.
रोशान कहती हैं, "कज़ाख़स्तान में बीते 30 सालों में हमने देखा है कि सरकार का इस्तीफ़ा देना आम बात है. इससे न तो कुछ हासिल होता है और न ही कोई सुनियोजित बदलाव आते हैं. और फिर नई सरकार में जो 18 मंत्री हैं उनमें से 11 पहले की सरकार में थे."
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तोकायेव और नज़रबायेव
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद कज़ाख़स्तान आज़ाद हुआ. दिसंबर 1991 को यहां के पहले राष्ट्रपति नूरसुल्तान नज़रबायेव ने गद्दी संभाली और वो मार्च 2019 तक सत्ता पर क़ाबिज़ रहे.
चोलपॉन ओरेज़ोबेकोवा द बूलान इंस्टीट्यूट फ़ॉर पीस इनोवेशंस में निदेशक हैं. वो कहती हैं कि नज़रबायेव ने ख़ुद अपना उत्तराधिकारी चुना.
वो कहती हैं, "नज़रबायेव को ऐसा नेता चाहिए था जो उनके प्रति वफ़ादार हो और उनके और उनके परिवार की सुरक्षा की गारंटी दे सके. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तोकायेव की छवि अच्छी थी, वो संयुक्त राष्ट्र के महानिदेशक रह चुके थे और नज़रबायेव का उत्तराधिकारी बनने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार थे."
लेकिन उन्हें सभी ज़िम्मेदारियां नहीं सौंपी गई. नज़रबायेव सुरक्षा काउंसिल के प्रमुख बन गए. मतलब ये कि गद्दी छोड़ने के बाद भी वो महत्वपूर्ण फ़ैसले ले सकते थे. अर्थव्यवस्था पर भी उनके परिवार और क़रीबी लोगों का काफ़ी कंट्रोल था.
चोलपॉन कहती हैं, "कुछ लोगों का मानना है कि तोकायेव नज़रबायेव से छुटकारा चाहते थे, जबकि कुछ कहते हैं कि नज़रबायेव के क़रीबी तोकायेव को हटाना चाहते थे. लेकिन ये स्पष्ट है कि ये दो पक्ष हैं जिनके बीच तनाव है."
कुछ सप्ताह पहले हुए विरोध प्रदर्शनों का इस्तेमाल राष्ट्रपति तोकायेव ने नज़रबायेव से दूर जाने में किया. उन्होंने ख़ुद को सुरक्षा काउंसिल का प्रमुख घोषित किया और नज़रबायेव के भतीजे को राष्ट्रीय सुरक्षा कमिटी में महत्वपूर्ण पद से बर्ख़ास्त कर दिया. नज़रबायेव के क़रीबी माने जाने वाले पूर्व ख़ुफ़िया प्रमुख करीम मासिमोव को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया.
तोकायेव के समर्थकों और विरोधियों के बीच तनाव इतना बढ़ गया कि तख़्तापलट तक की चर्चा होने लगी.
चोलपॉन कहती हैं, "एक समस्या ये भी रही कि देश में ऐसे नेताओं की कमी है जो प्रदर्शनकारियों का मार्गदर्शन कर सकें और सरकार के सामने मांगें रख सकें. कज़ाख़ लोगों की ये भी शिकायत है कि नज़रबायेव के तीन दशक के शासन में यहां कभी स्वतंत्र चुनाव हुए ही नहीं. हर चुनाव में जीत नज़रबायेव की हुई. आलोचकों की कथित तौर पर हत्या कर दी गई या फिर उन्हें देश छोड़ना पड़ा. कुछ को महत्वपूर्ण पद भी दिए गए. कह सकते हैं कि यहां विपक्ष है ही नहीं."
गैस की क़ीमतों पर नियंत्रण छह महीने बढ़ाने के वादे के साथ विरोध प्रदर्शन ख़त्म हुए.
11 जनवरी को संसद में तोकायेव ने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति के दौर में बनाई गई नीतियों के कारण कुछ लोगों के हाथों में अधिक पैसा है और असमानता बढ़ी है. संसाधनों का वितरण ऐसे लोगों में किया जाना चाहिए जिन्हें इनकी ज़रूरत है. इससे लोगों में उम्मीद बंधती है कि शायद अब कुछ बदलाव आए.
चोलपॉन कहती हैं, "हो सकता है कि वो सरकारी नीतियों पर विचार करें. ये बात अच्छी है कि उन्होंने सुनियोजित सुधारों का ज़िक़्र किया है और कहा है कि वो नागरिकों की तरफ़ से आ रही सकारात्मक राय सुनेंगे. लेकिन मानवाधिकारों, स्वतंत्र मीडिया और सिविल सोसायटी के मामले में वो अब तक कुछ कर नहीं पाए हैं. अगर वो अपने वादे पूरे नहीं कर पाते तो विरोध प्रदर्शन फिर भड़क सकते हैं."
रूसी सेना का हस्तक्षेप
प्रोफ़ेसर जेनिफर मुर्तज़ाश्विली यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग में कज़ाख़स्तान स्पेशलिस्ट हैं. वो कहती हैं कि विरोध प्रदर्शन तेज़ हुए तो राष्ट्रपति तोकायेव ने स्थिति को काबू में करने के लिए आपातकाल लागू किया, इंटरनेट बंद कर दिया और सुरक्षाबलों को बिना चेतावनी गोली चलाने के आदेश दिए.
उन्होंने रूस के नेतृत्व वाले सैन्य संगठन कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (सीएसटीओ) से मदद की गुहार लगाई.
वो कहती हैं, "सोवियत संघ के विघटन के वक़्त रूस ने एक सुरक्षा संगठन बनाया था. ये नेटो की तरह का संगठन है. हालांकि सोवियत संघ में रहे सभी मुल्क इसके सदस्य नहीं हैं. अभी इसके छह सदस्य हैं- रूस, बेलारूस, कज़ाख़स्तान, आर्मीनिया, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान. इसका मक़सद किसी सदस्य देश पर विदेशी आक्रमण की सूरत में उसकी मदद करना है."
राष्ट्रपति तोकायेव ने हिंसा के लिए 20,000 लुटेरों और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों यानी बाहरी ख़तरे को ज़िम्मेदार ठहराया. इससे सीएसटीओ के हस्तक्षेप की भूमिका बन सकी.
मदद मांगने के कुछ ही घंटों के भीतर सीएसटीओ देशों के क़रीब दो हज़ार सैनिक कज़ाख़स्तान में थे, इनमें अधिकतर रूसी थे. हालांकि इनका इस्तेमाल विरोध प्रदर्शनों पर काबू पाने के लिए नहीं किया गया.
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प्रोफ़ेसर जेनिफ़र कहती हैं, "इन्हें रणनीतिक तौर पर अहम जगहों की सुरक्षा में लगाया गया, जैसे कि बैकानूर जो सोवियत दौर में रूस का स्पेस स्टेशन हुआ करता था. रूस अपने स्पेस अभियानों को इसी इलाक़े से अंजाम देता है. गैस पाइपलाइन, पावरप्लांट, सरकारी इमारतों और एयरपोर्ट की सुरक्षा में भी इन्हें लगाया गया. मुझे लगता है कि तोकायेव को आशंका थी कि सेना उनके नियंत्रण से बाहर होगी इसलिए उन्होंने रूस की मदद ली."
कज़ाख़स्तान अपने पड़ोसी रूस का अधिक प्रभाव अपनी विदेश नीति और आर्थिक नीति में नहीं चाहता था. ऐसे में उसने चीन, अमेरिका और दूसरे यूरोपीय मुल्कों के साथ भी अच्छे संबंध रखे. लेकिन तोकायेव का फ़ैसला काफ़ी कुछ बदल सकता है.
वो कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि इसे लेकर रूस और चीन आमने-सामने आ सकते हैं. दोनों मित्र हैं और उनके संबंध आपसी हितों के दायरे में हैं. चीन के अनुसार कज़ाख़स्तान से जुड़े वीगर अल्पसंख्यक समुदायों वाले उसके इलाक़ों में अस्थिरता की स्थिति में रूस मददगार साबित हो सकता है. इसके अलावा कज़ाख़ राष्ट्रपति के हिंसा के लिए 'विदेशी आतंकवादियों' को ज़िम्मेदार ठहराने वाले बयान से चीन परेशान है. वो कज़ाख़स्तान में अस्थिरता नहीं चाहेगा और रूस के दखल से ख़ुश होगा."
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कज़ाख़स्तान में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है, ख़ास कर ऊर्जा के क्षेत्र में. हालांकि प्रोफ़ेसर जेनिफ़र कहती हैं कि उन्हें नहीं लगता कि कज़ाख़स्तान में रूसी हस्तक्षेप से चीन चिंतित होगा.
प्रोफ़ेसर जेनिफ़र कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि इसे लेकर रूस और चीन आमने-सामने आ सकते हैं. दोनों मित्र हैं और उनके संबंध आपसी हितों के दायरे में हैं. चीन के अनुसार कज़ाख़स्तान से जुड़े वीगर अल्पसंख्यक समुदायों वाले उसके इलाक़ों में अस्थिरता की स्थिति में रूस मददगार साबित हो सकता है. इसके अलावा कज़ाख़ राष्ट्रपति के हिंसा के लिए 'विदेशी आतंकवादियों' को ज़िम्मेदार ठहराने वाले बयान से वो परेशान है. चीन कज़ाख़स्तान में अस्थिरता नहीं चाहेगा और वो रूस के दखल से ख़ुश होगा."
आगे क्या होगा?
ओल्गा ओलिकर इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रूप में यूरोप और केंद्रीय एशिया प्रोग्राम की निदेशक हैं. वो कहती हैं कि लंबे वक़्त में कज़ाख़स्तान में क्या होगा ये कहना मुश्किल है.
वो कहती हैं, "आप उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार नागरिकों को ख़ुश करने के लिए कुछ क़दम उठाएगी. ये भी संभव है कि आलोचकों की धरपकड़ शुरू हो. हमें ये भी देखना होगा कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान गिरफ़्तार किए गए लोगों के साथ क्या होगा. और फिर तोकायेव के क़रीबी कौन से पद पर होंगे, नज़रबायेव के समर्थक क्या करेंगे और सरकार में शक्ति संतुलन कैसे होगा, ये देखना भी दिलचस्प होगा. भविष्य में क्या होगा ये इन सब बातों पर निर्भर करता है."
ओल्गा कहती हैं कि जो नेता अब तक सरकार में रहे हैं और अब तक की नीतियों का हिस्सा रहे हैं, उन्हें आगे क्या ज़िम्मेदारियां दी जाती हैं इस पर भी काफ़ी कुछ निर्भर करेगा.
बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के बाद सरकार बड़े बदलाव भी करती है, लेकिन ओल्गा का कहना है कि कज़ाख़स्तान में ऐसा होगा ये मान लेना सही नहीं है.
वो कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि इसके बाद कज़ाख़स्तान में बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था लागू होगी. आम लोगों को सरकार में कितना प्रतिनिधित्व मिलेगा इसे लेकर कुछ कहा नहीं जा सकता. आर्थिक मुद्दों की बात करें तो यहां कुछ लोगों के हाथों में इसकी चाबी है. ये ताक़त कितनी छीनी जाएगी ये भी कह पाना मुश्किल है. ऐसा नहीं है कि नज़रबायेव के परिवार के हाथों में ही अधिक ताक़त है, कज़ाख़स्तान में एक छोटा-सा धनी वर्ग है जिसका अर्थव्यवस्था, सरकार और देश पर नियंत्रण है."
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तो क्या इस वर्ग के ख़िलाफ़ क़दम उठाना राष्ट्रपति तोकायेव के लिए आसान होगा?
काफ़ी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले वक़्त में तोकायेव ख़ुद कितने ताक़तवर बन पाते हैं. और फिर ये भी कि भविष्य में रूस के साथ उनके संबंध किस करवट बैठते हैं.
ओल्गा कहती हैं, "सच यही है कि कज़ाख़स्तान में रूस का प्रभाव बढ़ रहा है, दोनों के गहरे संबंध हैं. लेकिन इस मामले में नागरिकों के मन में क्या है ये कहना मुश्किल है. मुझे लगता है कि कुछ लोग इसका विरोध ज़रूर कर सकते हैं, लेकिन ये बड़ा मुद्दा बनेगा ऐसा नहीं लगता."
वहीं रूस के साथ कज़ाख़स्तान के बेहतर संबंध पुतिन के लिए अच्छी रणनीति साबित होगी. हालांकि इसकी पूरी संभावना है कि कज़ाख़स्तान रूस के अलावा दूसरे मुल्कों से भी अच्छे संबंध बनाए रखेगा और पुतिन और तोकायेव दोनों के लिए सौदा बुरा नहीं होगा.
वो कहती हैं, "ये स्पष्ट है कि विरोध प्रदर्शनों से तोकायेव की घबराहट बढ़ी और उन्होंने सीएसटीओ से मदद मांगी. आने वाले वक़्त में जैसे-जैसे वो ताक़तवर होते जाएंगे वो विश्लेषण करेंगे कि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें मुल्क के भीतर और बाहर कहां-कहां से तुरंत मदद मिल सकती है. फ़िलहाल वो सीएसटीओ के अपने साथी मुल्कों के एहसानमंद होंगे कि उन्होंने उनके 'विदेशी आतंकवादी' वाले बयान को चुनौती दिए बिना उनकी मदद की. लेकिन आगे भी ऐसा होगा या नहीं ये देखना होगा."
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लौटते हैं अपने सवाल पर कज़ाख़स्तान में क्या हो रहा है और रूस की उसमें इतनी दिलचस्पी क्यों?
जनवरी की शुरूआत के कुछ हफ्तों में कज़ाख़स्तान में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. सरकार दो खेमों में बंटी दिखी, पहला तोकायेव के समर्थक और दूसरा पूर्व राष्ट्रपति नज़रबायेव के समर्थक. स्थिति जटिल थी.
अहम वक्त में तोकायेव ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मदद मांगी और विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने में कामयाब रहे. उनके इस फ़ैसले ने ये चिंता बढ़ा दी है कि आने वाले वक़्त में कज़ाख़स्तान में रूस का प्रभाव और बढ़ सकता है.
साथ ही तोकायेव ने वादा किया है कि वो आर्थिक और राजनीतिक सुधार शुरू करेंगे. अपने इस वादे को वो पूरा कर पाते हैं या नहीं, ये वक़्त ही बताएगा.
प्रोड्यूसर - मानसी दाश
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