'कसाब की फांसी के बाद जब मैं उनके गांव पहुंची'
जब बीबीसी संवाददाता शुमाइला जाफ़री पहुंचीं कसाब के गांव तो क्या हुआ उनके साथ.
21 नवंबर 2012 की सुबह उठते के साथ ही मुझे अजमल कसाब को भारत में फांसी दिए जाने की ख़बर मिली. अजमल कसाब उन 10 हमलावरों में से था जो 26 नवंबर 2008 को मुंबई हमले में शामिल थे.
भारत की आर्थिक राजधानी पर हुए हमले में 160 से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
सुरक्षाबलों ने नौ हमलावरों के मार गिराया, लेकिन अजमल कसाब ज़िंदा पकड़ा गया.
हाथ में ऑटोमैटिक राइफ़ल लिए कसाब की तस्वीर तीन दिनों तक चले इस बर्बर हमले की याद दिलाती है.
शुरू शुरू में, अजमल कसाब के पहचान के रहस्य को लेकर असमंजस की स्थिति थी.
भारत ने कहा कि वो पाकिस्तान स्थित चरमपंथी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य है, लेकिन उसके कुछ ही सबूत थे.
कुछ महीने बाद, पाकिस्तान सरकार ने यह पुष्टि की कि कसाब पाकिस्तानी नागरिक था.
बाद में एक स्थानीय न्यूज़ चैनल ने बताया किया कि कसाब मध्य पंजाब के फ़रीदकोट गांव का रहने वाला है.
'लोग मुझे क़साब की बेटी बोलते थे'
ऐसा लगा जैसे मुंबई पर एक सेना ने हमला बोल दिया हो
कसाब के गांव का सफ़र
कसाब को फांसी दिए जाने बाद एक पत्रकार के रूप में मैं उसके गांव का मूड जानने निकल पड़ी.
मैं थोड़ी परेशान थी क्योंकि कसाब की ज़िंदगी और उसके परिवार के ऊपर ख़बरों के लिए जो पत्रकार वहां जा रहे थे उनके पीटे जाने की ख़बर भी थी.
मैं अपने कैमरामैन के साथ जा रही थी, लेकिन मैंने एक स्थानीय पत्रकार से संपर्क किया जो उस इलाके से परिचत था. वो हमारे साथ हो लिया.
वो एक पतली गली के पास सड़क पर रुक गया. वहां स्थानीय रिपोर्टर ने हमसे कहा, "ये वो जगह है, यहां से आगे जाने का ख़तरा आप खुद ही मोल लीजिए."
मैंने अपना साहस बटोर कर आगे के लिए चलना शुरू कर दिया.
कैमरामैन और स्थानीय पत्रकार मेरी पीछे-पीछे हो लिए.
जैसा कि पंजाब के किसी दूसरे गांव में होता है, वहां कुछ मकानें थीं, कुछ छोटी किराना दुकानें और बाहर बच्चे खेल रहे थे.
पहली नज़र में तो सब कुछ सामान्य-सा दिख रहा था, हालांकि लोगों के चेहरे पर कुछ निराशा ज़रूर झलक रही थी.
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वो चिल्लाया, "मुझे नहीं पता"
मैंने वहां से गुजरते एक व्यक्ति से पूछा कि अजमल कसाब का घर कहां है? वो मेरी ओर देख कर चिल्लाया "मुझे नहीं पता" और आगे चला गया. मैं थोड़ा डर गई, लेकिन अपने कैमरामैन और उस स्थानीय पत्रकार के साथ आगे बढ़ती रही.
एक दूसरा व्यक्ति वहां से गुजरा तो उससे भी मैंने वही सवाल दोहराए. उसने मेरी तरफ़ गुस्साई नज़रों से देखा और फिर दूसरी तरफ़ मुड़ गया.
तब मैं आने वाले ख़तरे को मापते हुए खुद से यह पूछने लगी कि क्या आगे बढ़ना चाहिए या वापस चले जाना चाहिए.
कुछ कदम आगे बढ़ने पर मुझे कुछ बच्चे खेलते दिखे, मैंने उनसे भी यही प्रश्न पूछा.
उन सभी ने उस गली के अंतिम छोर पर स्थित हरे रंग के लोहे के गेट की ओर इशारा किया.
मैं उस घर की ओर जाने लगी तो बच्चे भी मेरे पीछे पीछे आने लगे. गेट कुछ खुला हुआ था और बच्चे मुझे अंदर ले गए. हम एक बड़े से आंगन में पहुंचे.
दो भैंस वहां एक कोने में चारा खा रही थीं और लकड़ियों का ढेर फ़र्श पर पड़ा हुआ था. घर खाली नहीं दिख रहा था.
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'वहां सन्नाटा पसरा था'
मैंने दरवाज़े पर दो तीन बार खटखटाया और आवाज़ भी लगाई कि क्या कोई अंदर है? लेकिन वहां सन्नाटा पसरा था.
लेकिन जैसे ही मेरे कैमरामैन ने मकान के बाहर की तस्वीर लेना शुरू किया, कुछ लोगों ने उसे कंधे से पकड़ते हुए हमें फ़ौरन वहां से चले जाने को कहा.
मैंने वहां गली में खड़े कुछ लोगों से बातें की और उनसे पूछा कि कसाब का परिवार कहां है. उन्होंने इसकी किसी भी जानकारी से इंकार कर दिया.
उनमें से एक ने मुझसे कहा कि पाकिस्तान को बदनाम करने की यह अंतरराष्ट्रीय साज़िश है और साथ ही कहा कि वहां उस नाम का कोई आदमी कभी नहीं रहा.
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'तुरंत लौटने का फ़ैसला किया, लेकिन...'
जल्दी ही हमें लगने लगा कि वहां इकट्ठा होने वालों में धमकाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी है, फ़िर हमने तुरंत उस जगह से निकलने का फ़ैसला लिया.
लेकिन जब हम अपनी गाड़ी के पास पहुंचने लगे तो लोगों के एक और समूह ने हमें रोका.
उनमें से एक ने हमें कैमरे की फ़ुटेज दिखाने और रिकॉर्ड की गई चीज़ें डिलीट करने को कहा. उनके साथ पुलिस भी थी.
उसने कहा, "लोग यहां अपनी मर्ज़ी से आते हैं, लेकिन जाते हमारी मर्ज़ी से हैं."
जब मैं उनसे बात कर रही थी तो बाकी लोगों ने कैमरा खंगालना शुरू कर दिया. मेरे कैमरामैन ने उन्हें चकमा देते हुए फ़ुटेज को डिलीट होने से बचा लिया.
उस वक्त भाग्य हमारे साथ था क्योंकि उस समूह के लीडर हमें जाने से रोक रहे थे तभी किसी ने उसे इलाके में एक और मीडिया ग्रुप के पहुंचने की सूचना दी.
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'दौड़ते हुए अपनी गाड़ी के पास पहुंचे'
कुछ पल के लिए उसका ध्यान भटका और हम दौड़ते हुए अपनी कार के पास पहुंचे, छलांग लगाते हुए उस पर सवार हुए और वहां से गाड़ी दौड़ा ली.
जब हम वापस लौट रहे थे तो मेरे पास दूसरे पत्रकारों के कॉल आ रहे थे क्योंकि वहां से हमारे जाने के बाद किसी और को गांव में घुसने नहीं दिया जा रहा था.
कुछ पत्रकारों की पिटाई भी की गई और उन लोगों ने कुछ कैमरे भी तोड़े गए जो खुद को गांव वाला बता रहे थे.
स्थानीय पत्रकार ने मुझे बताया कि अजमल कसाब के परिवार को किसी अज्ञात जगह पर ले जाया गया और उस घर में कोई और रह रहा था.
यह इतना भयावह अनुभव था कि फ़िर मैं कभी फ़रीदकोट नहीं जाना चाहती थी.