एक क्रूर कमांडर जो कहलाता था 'दूसरा हिटलर'
बोस्निया के पूर्व सर्ब कमांडर रैट्को म्लाडिच को मुस्लिम समुदाय क्यों बताता है दूसरा हिटलर?
तारीख : 26 मई 2011
सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड की उत्तरी दिशा में बसा अलसाता सा लैज़ारेवो गांव अचानक चुस्त और चौकन्ना नज़र आने लगा.
चेहरे पर काला नकाब लगाए और काले कपड़े पहने हथियारबंद लोगों ने पीली ईंटों से बने एक मकान को घेर लिया.
वो धड़धड़ाते हुए अंदर दाखिल हुए और गार्डन में टहलने के लिए निकलते एक बुज़ुर्ग को गिरफ़्त में ले लिया और वो ख़ामोशी से उन नकाबपोशों के साथ चल दिए.
तारीख : 22 नवंबर 2017
छह साल, पांच महीने और छब्बीस दिन के बाद 74 बरस के हो चुके वही शख्स हेग की वॉर क्राइम ट्राइब्यूनल को शैतानों की जमात बताते हुए चीख रहे थे.
ट्राइब्यूनल के सामने उनके ख़िलाफ़ गवाही देने वाले मेवलेडिन ऑरिच जैसे कुछ लोगों ने उन्हें 'दूसरा हिटलर' बताया था
ऑरिच ने बीबीसी को बताया, " मैं गवाही देने हेग गया ताकि दुनिया जान सके कि हिटलर के बाद एक और हिटलर था. रैट्को म्लाडिच."
16 साल यानी 1995 से 2011 तक यूरोप के 'मोस्टवांडेट मैन' रहे बोस्निया के पूर्व सर्ब कमांडर रैट्को म्लाडिच को एक और नाम मिला, 'बूचर ऑफ बोस्निया' यानी बोस्निया का कसाई.
रैट्को म्लाडिच: 'बोस्निया का कसाई' जिसने नरसंहार किया
'नरसंहार के नायक'
दिल्ली की जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज़ के प्रोफेसर आरके जैन इस उपनाम की वजह बताते हैं, "म्लाडिच सर्ब सेना के जनरल थे. बोस्निया में 1992 से 1995 तक जो गृहयुद्ध चला और स्रेब्रेनित्सा में जो नरसंहार हुआ, उसके ये नायक थे."
आलोचकों के मुताबिक म्लाडिच अजब-सी सनक में रहते थे, लेकिन उन्होंने संघर्ष और संग्राम का रास्ता ख़ुद चुना या ये उनकी नियति का हिस्सा था, इसे लेकर विश्लेषकों की राय बंटी हुई है.
दक्षिणी बोस्निया के कालिनोविक गांव में जन्मे म्लाडिच साल 1945 में जब महज़ दो साल के थे, तभी नाज़ी समर्थित सेना से लड़ते हुए उनके पिता की मौत हो गई.
वो मार्शल टीटो की अगुवाई वाले यूगोस्लाविया में बड़े हुए और सेना में अधिकारी बने. उनकी पहचान एक ऐसे अधिकारी की थी जो हर वक्त अपने जवानों को प्रेरित करते थे.
साल 1991 में जब संघर्ष शुरू हुआ तो म्लाडिच को क्रोएशियाई फ़ोर्स के ख़िलाफ़ यूगोस्लाव सेना की नवीं कमान की ज़िम्मेदारी दी गई. एक साल बाद वो 1 लाख 80 हज़ार सैनिकों वाली बोस्निया सर्ब आर्मी के प्रमुख बना दिए गए.
23 साल बाद खुली बोस्निया की मस्जिद
बदल गई छवि
अगले तीन साल तक यानी 1992 से 1995 तक बोस्निया की ज़मीन पर जो हुआ, उसने रैट्को म्लाडिच की छवि हमेशा के लिए बदल दी.
यूरोपीय राजनीतिक पर क़रीबी नज़र रखने वाले अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, "यूगोस्लाविया का जब विभाजन हुआ तो सर्ब समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच इस बात पर विवाद शुरू हो गया कि नया राष्ट्र कैसे बनेगा. दोनों समुदायों के बीच मतभेद रहे. उनके बीच मध्यस्थता कराने वाला कोई नहीं था और उन्होंने अपने हाथ में हथियार ले लिए. हिंसा के ज़रिए नए राष्ट्र को बनाने का संघर्ष शुरू हो गया."
इस गृहयुद्ध में हज़ारों लोगों की मौत हुई. लाखों लोग विस्थापित हुए.
गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद साल 1995 में यूएन वॉर क्राइम्स ट्रिब्यूनल ने म्लाडिच पर तमाम दूसरे इल्ज़ामों के साथ नस्लीय हिंसा के दो प्रमुख अभियोग लगाए.
बोस्निया की राजधानी सारायेवो में घेरेबंदी और स्रेब्रेनित्सा में सामूहिक नरसंहार.
विश्लेषकों की राय है कि वो इस संघर्ष को मुस्लिम तुर्कों के पांच शताब्दी लंबे अधिग्रहण का बदला लेने के मौके के तौर पर देखते थे.
प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, "बोस्निया के सर्ब समुदाय के लोग ज़्यादा थे. उनकी तरफ़ से जो सैन्य अभियान चला वो राष्ट्रवादी और अतिवादी था. रैट्को म्लाडिच कमांडर थे और उनके ऊपर ये आरोप लगा कि उन्होंने जान-बूझकर मुस्लिम समुदाय को इस उद्देश्य के साथ निशाना बनाया है कि इन्हें पूरी तरफ़ से साफ़ कर दिया जाए जिससे सर्ब समुदाय का बहुमत बना रहे."
ख़त्म नहीं हो रहा बोस्निया की औरतों का इंतज़ार
'यूरोप पर दाग है नरसंहार'
बोस्निया के मुसलमानों के लिए उस दौर की यादें आज भी रौंगटे खड़े कर देती हैं.
लेकिन जिसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे जघन्य नस्लीय नरसंहार बताया जाता है वो घटना जुलाई 1995 में घटी.
राजधानी सारायेवो से 80 किलोमीटर दूर बसे स्रेब्रेनित्सा की एक एनक्लेव को संयुक्त राष्ट्र ने सुरक्षित पनाहगाह घोषित किया हुआ था.
प्रोफ़ेसर आरके जैन बताते हैं, "ये नरसंहार यूरोप पर दाग़ है. वो एनक्लेव संयुक्त राष्ट्र की ओर से सुरक्षित क्षेत्र में था. ये यूरोप में नस्लीय नरसंहार की इकलौती मिसाल है."
रिपोर्टों के मुताबिक वहां महिलाओं और बच्चियों को तो सुरक्षित रास्ता दे दिया गया, लेकिन 12 बरस के बच्चों से लेकर 77 बरस तक की उम्र के पुरुषों को अलग ले जाकर गोली मार दी गई.
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, " स्रेब्रेनित्सा नरसंहार में क़रीब सात हज़ार बोस्निया के मुसलमानों को प्वाइंट ब्लैंक रेंज पर मारा गया. इसके बाद इन्हें 'बूचर ऑफ बोस्निया' कहा जाने लगा."
16 साल भगाते रहे म्लाडिच
हर्ष पंत कहते हैं कि कुछ वक्त बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय की पहल पर समझौता हुआ और गृहयुद्ध ख़त्म हो गया.
वो कहते हैं, " अमरीका ने मध्यस्थता की कि थोड़े वक्त के लिए राजनीतिक संवाद किया जाए. अभी भी कोई दीर्घकालिक समाधान हुआ नहीं है. अब भी सर्ब समुदाय की सोच काफ़ी अलग है."
साल 1995 में युद्ध अपराध के आरोप लगने के बाद म्लाडिच भाग निकले.
वो बेलग्रेड चले गए. उस दौरान उन्हें यूगोस्लाविया के तब के राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलोशेविच का खुला समर्थन और संरक्षण हासिल था.
साल 2000 में मिलोशेविच सत्ता से बेदखल हुए और उसके बाद म्लाडिच की मुश्किलें शुरु हुईं, लेकिन वो सर्बिया में ठिकाने बदलकर छुपते रहे.
सर्बिया पर बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव के बीच अक्टूबर 2004 में उनके विश्वस्त सहयोगियों ने आत्मसमर्पण किया तो लगा कि वो भी पकड़े जाएंगे.
लेकिन वो मई 2011 तक आज़ाद रहे.
बोस्निया युद्ध में अपराधों के लिए एक बड़ी गिरफ़्तारी
ट्राइब्यूनल पर उठाए सवाल
साल 2012 में हेग में म्लाडिच के ख़िलाफ़ सुनवाई शुरू हुई. उन पर नस्लीय नरसंहार समेत कुल 11 अभियोग लगाए गए.
उनकी तबीयत लगातार ख़राब हो रही थी और कोर्ट इस बात को लेकर फ़िक्रमंद थी कि कार्यवाही पूरी होने तक कहीं उनकी मौत न हो जाए.
अपनी तमाम शारीरिक कमज़ोरियों के बाद भी वो कोर्ट में तीख़े तेवर दिखाते थे और जजों से बहस करते थे.
प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, "उनका पक्ष था कि जब हिंसा दोनों तरफ़ से हुई थी तो सारा दोष मुझ पर क्यों डाल रहे हैं. मुझे लगता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय आज इस मुकाम पर पहुंचा है कि वो ये मानता है कि कुछ ऐसी कार्रवाई है जिसे मंज़ूर नहीं किया जाएगा."
म्लाडिच की 12 सदस्यीय डिफ़ेंस टीम ने दलील की कि जिस वक्त स्रेब्रेनित्सा में हत्याएं हुईं उस वक्त वो बेलग्रेड में थे. अभियोजन पक्ष ने इससे इनकार नहीं किया, लेकिन ये दलील दी कि रवानगी के पहले वो अपने सहयोगियों से मिले थे और नरसंहार के आदेश दिए थे.
सुनवाई पूरी होने के क़रीब एक साल बाद इंटरनेशनल ट्राइब्यूनल ने म्लाडिच को नस्लीय नरसंहार और दूसरे अत्याचारों का दोषी ठहराया और उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई.
उनके वकीलों ने अपील करने का इरादा जताया, लेकिन जानकार मानते हैं कि अब उन्हें राहत मिलने के आसार नहीं है,
प्रोफ़ेसर आरके जैन कहते हैं, " इस मामले में छह सौ से ज़्यादा गवाह और कई सबूत पेश किए गए हैं. मेरे ख़्याल से अब अपील वगैरह से कुछ नहीं होने वाला है."
म्लाडिच भले ही सर्ब समुदाय के लिए राष्ट्रवादी नायक हों, लेकिन कोई कोर्ट या इतिहास उन पर नरमी करे, इसकी उम्मीद ख़त्म-सी है.