दुनियाभर में बढ़ी महंगाई, केंद्रीय बैंकों के पास क्या है कोई रास्ता? - दुनिया जहान
महंगाई को काबू में रखने के लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ाती हैं, लेकिन हाल के वक्त में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में तमाम देशों के सेंट्रल बैंकों के पास रास्ता क्या है. भारत क्या कर सकता है.
पूरी दुनिया में खाद्य सामग्री, दूसरी चीज़ों, कच्चे तेल और बिजली की क़ीमतें बढ़ रही हैं, यहां तक कि रोज़ाना इस्तेमाल होने वाली चीनी और चाय भी अब पहले के मुक़ाबले महंगी हो गई है.
कई देशों में सालों तक महंगाई कम थी, लेकिन कोरोना महामारी के दौर में जिस तरह से महंगाई बढ़ी वैसा बीते दशक भर में नहीं देखा गया. महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाती हैं, लेकिन ये दोधारी तलवार की तरह है और इससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने का ख़तरा भी होता है. चिंता ये है कि महामारी से उबर रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए कहीं ये क़दम ख़तरनाक न साबित हो.
तो इस बार दुनिया जहान में पड़ताल इस बात की कि क्या हाल के वक्त में महंगाई का बढ़ना अस्थाई प्रक्रिया है और क्या नीति निर्धारकों को इस पर काबू पाने के लिए क़दम उठाने की ज़रूरत है.
महंगाई के लक्षण
क्लॉडिया सैम जैन फैमिली इंस्टीट्यूट में सीनियर फ़ेलो हैं. ये संस्था सामाजिक संपत्ति और अर्थव्यवस्था से जुड़े दूसरे विषयों पर रीसर्च करती है.
वो कहती हैं, "अमेरिका में महंगाई अप्रैल-मई 2021 से बढ़नी शुरू हुई. महामारी के कारण लोग घरों पर थे तो उन्होंने वॉशिंग मशीन, कंप्यूटर गेम्स जैसी चीज़ें खरीदीं. बाद में सेकंड हैंड कार और इलेक्ट्रॉनिक्स की बिक्री बढ़ गई."
अमेरिका में महंगाई 6.8 फीसदी तक बढ़ी है और इसके और बढ़ने की आशंका है.
वो कहती हैं, "ये थोड़ा अजीब है क्योंकि आम तौर पर सेकंड हैंड कारों और इलेक्ट्रॉनिक्स की बिक्री से महंगाई नहीं बढ़ती. पिछले साल ये चीज़ें सस्ती थीं. लेकिन पाबंदियां हटीं तो लोग घरों से निकलने लगे और इन चीज़ों की क़ीमत अचानक बढ़ने लगी."
दिलचस्प बात ये थी कि इनमें से अधिकतर चीज़ें या फिर उनमें लगने वाले उपकरणों का उत्पादन दक्षिण एशिया में होता है. महामारी की शुरुआत में सबसे पहले सप्लाई चेन इसी इलाक़े में बाधित हुआ और सेमीकंडक्टर की सप्लाई में भारी कमी आई. अमेरिका में क़ीमतों का बढ़ना लॉकडाउन लगने के साथ ही शुरू हुआ.
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क्लॉडिया कहती हैं, "लॉकडाउन के दौरान सरकार ने नागरिकों को राहत दी, उन्हें तीन चरणों में आर्थिक मदद दी गई. माता-पिता और दो बच्चों के एक परिवार को साल में 11 हज़ार डॉलर तक मिले. कम आमदनी वाले कई परिवारों ने ऊंची क़ीमतों के बावजूद सेकंड हैंड कार ख़रीदी. लोगों ने वो चीज़ें खरीदीं जो वो पहले नहीं ख़रीद सके थे."
आम तौर पर महंगाई पर क़ाबू पाने के लिए सरकारें ब्याज दर बढ़ाती हैं ताकि लोग कर्ज़ लें, ख़र्च कम करें और पैसे बचाएं. इससे बाज़ार में मांग कम होती है और क़ीमतें नियंत्रण में रहती हैं.
अमेरिका के केंद्रीय बैंक के प्रमुख जेरोम पॉवेल ने हाल ही में कहा था, "मुझे नहीं लगता कि ब्याज दर बढ़ाने का ये सही वक़्त है."
बीते तीन दशकों में महंगाई सबसे अधिक है, लेकिन नीति निर्धारकों का मानना है कि ब्याज दर बढ़ाने के लिए ये वक़्त सही नहीं. लेकिन ऐसा क्यों, ये समझने के लिए हमें इतिहास में झांकना होगा.
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इतिहास से सीख
रॉजर बूटल कैपिटल इकोनॉमिक्स के चेयरमैन हैं. वो दूसरे विश्व युद्ध के बाद महंगाई बढ़ने के बारे में बताते हैं. युद्ध के दौरान ख़रीदारी एक तरह से रुक गई थी, जब युद्ध ख़त्म हुआ ख़रीदारी में तेज़ी आई. लेकिन उस वक्त कामगारों की कमी थी और उत्पादन पटरी पर नहीं लौटा था.
वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि मौजूदा दौर और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वक़्त में कुछ महत्वपूर्ण समानताएं हैं. उस वक़्त भी सप्लाई में रुकावट आई थी. सैनिकों को दूसरे कामों में लगाया जा रहा था जिससे कहीं पर कामगारों की संख्या अधिक थी तो कहीं उनकी भारी कमी थी."
उत्पादन सामान्य होने में कुछ वक़्त लगा जिस कारण सामान की क़ीमतें बढ़ीं. युद्ध ख़त्म होने के दो साल बाद, 1947 में महंगाई कुछ वक्त तक 20 फीसदी से अधिक थी. केवल अमेरिका ही नहीं यूरोप के कई मुल्कों में भी महंगाई बढ़ी. लेकिन हालात जल्द सुधरे और ये दौर लंबा नहीं खिंचा.
रॉजर कहते हैं, "साठ के दशक के आख़िर में महंगाई बड़ी समस्या बनने लगी थी लेकिन हम इस बारे में गंभीर नहीं थे. उसके बाद 70 के दशक का ग्रेट इंफ्लेशन आया."
अमेरिका में 1974 में महंगाई क़रीब 12 फ़ीसदी थी जबकि 1979 में ये 13 फ़ीसदी तक हो गई थी और ये हुआ वियतनाम युद्ध में सरकार के बढ़े हुए ख़र्च, बेरोज़गारी दूर करने की सरकार की कोशिश और मध्यपूर्व से हो रही तेल आपूर्ति में दिक्क़तों के कारण.
ये सिलसिला सालों तक जारी रहा और लोगों को इसकी आदत पड़ने लगी. रॉजर बूटल कहते हैं कि यहीं से असल समस्या पैदा होती है.
रॉजर कहते हैं, "होता ये है कि अगर महंगाई बढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया तो लोगों के दिमाग़ में ये बात घर कर जाती है कि स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी. लोग अपनी आय बढ़ाने की कोशिश करते हैं और मानने लगते हैं कि महंगाई और बढ़ेगी. अमेरिका और दूसरे मुल्कों में यही हुआ. आप पूछ सकते हैं कि ये चिंता की बात क्यों है. सीधी बात ये है कि इससे तनाव पैदा होता है. माहौल में अनिश्चितता रहती है. इस सिलसिले को रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं, लेकिन ऐसा करना अर्थव्यवस्था के लिए घातक हो सकता है."
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रॉजर कहते हैं कि इस बात को पांच दशक हो गए हैं और शायद हम इससे मिली सीख भूल रहे हैं. बीते दशक में अमेरिका, यूरोप और जापान इस बात से चिंतित थे कि कि महंगाई बढ़ नहीं रही.
परेशानी ये भी है अगर महंगाई सालों तक नहीं बढ़ती, तो लोगों को लगता है कि चीज़ें और सस्ती होंगी, वो अपना ख़र्च कम करने लगते हैं. इससे अर्थव्यवस्था की रफ़्तार थमने लगती है.
वो कहते हैं, "लोगों के दिमाग़ में ये बात बैठ जाती है कि क़ीमतें और कम होगीं, ये सबसे ख़तरनाक है. जापान में महंगाई बेहद कम दर से बढ़ती है जबकि दूसरे विकसित देशों में ये बड़ी समस्या बन चुकी है."
लेकिन अमेरिका और यूरोप में फिलहाल यही हो रहा है, ये मान लेना सही नहीं है.
रॉजर कहते हैं, "कहा जाता है कि जनरल आख़िरी मोर्चे पर लड़ता है. मुझे लगता है कि ये केंद्रीय बैंकों के बारे में कहा जा सकता है. वो महंगाई पर काबू पाने और अर्थव्यवस्था को गति देने का काम करते हैं और इस प्रक्रिया में वो मौजूदा स्थिति से प्रभावित होते हैं. मुझे लगता है कि अभी की पीढ़ी के बैंकर दशक भर पहले के आर्थिक संकट और डीफ़्लेशन से प्रभावित रहे हैं. जबकि पहले की पीढ़ी के बैंकर महंगाई कम होने वाले हालात देख चुके थे और जानते थे कि इससे मुश्किल हो सकती है. मुझे लगता है कि अभी के बैंकर स्थिति को गंभीर नहीं मान रहे, ये परेशान करने वाला है."
रॉजर की तरह कई और अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि महंगाई को लेकर केंद्रीय बैंक गंभीर नहीं हैं, लेकिन उन्हें ब्याज दरें बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए.
क्या सही, क्या ग़लत
ब्रोनिन कर्टिस लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में गर्वनर रह चुकी हैं. महामारी के दौरान महंगाई बढ़ने को लेकर वो क्लॉडिया सैम से सहमत हैं.
वो कहती हैं, "मुझे लगता है कि महामारी के कारण हम घरों में थे, हमारे ख़र्चे रुक गए थे. धीरे-धीरे पाबंदियों में ढील मिली तो मांग बढ़ी. लेकिन न तो फ़ैक्ट्रियों में कामकाज शुरू हुआ था और न ही सप्लाई चेन सामान्य हो पाई थी. मांग ज़्यादा थी और सप्लाई कम, इसलिए महंगाई बढ़ी."
सुनने में लगता है कि वक़्त से साथ हालात सुधर जाएंगे और ब्याज दरों में बढ़ोतरी करने की ज़रूरत नहीं रहेगी. शायद इसी कारण अमेरिका समेत दुनिया के दूसरे मुल्कों में केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ाने की बजाय, स्थिति बेहतर होने का इंतज़ार कर रहे हैं. लेकिन जानकार इसे ग़लत मानते हैं.
ब्रोनिन कहती हैं कि देरी करने से जोखिम बढ़ सकता है क्योंकि महंगाई के कुछ कारक जल्दी ख़त्म नहीं होते.
वो कहती हैं, "आप मान सकते हैं कि लोग वापस लेबर मार्केट में लौटेंगे लेकिन हो सकता है कि वो कोई और काम कर रह हों और फिर ऐसे काम भी हैं जिनमें ख़ास कौशल की ज़रूरत होती है. अमेरिका को ही देख लीजिए, सितंबर में मज़दूरी में 3.7 फीसदी तक बढ़ोतरी हुई जो वाकई में अधिक है."
लेकिन अगर अमेरिका में महंगाई 6 फीसदी है तो कामगारों को अधिक पैसा मिलने से अर्थव्यवस्था भला क्यों प्रभावित होगी? हमारे दूसरे एक्सपर्ट रॉजर बूटल की बात याद कीजिए, उनका कहना था कि लोगों के हाथों में अगर ज़्यादा पैसा होगा, तो वो अधिक खर्च करेंगे और फिर आय बढ़ाने की कोशिश करेंगे. ये ख़तरनाक सर्कल महंगाई को कम होने नहीं देगा.
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ब्रोनिन एक और बात को लेकर चिंतित हैं और वो है कोरोना के दौर में शेयरों की बढ़ती कीमतें.
वो कहती हैं, "स्टॉक मार्केट में ख़ास तौर पर पैसों की उपलब्धता बढ़ी है, वित्त बाज़ार में काफी पैसा आया है. ये एक तरह का बबल है, महंगाई है. आपको केवल खुदरा बाज़ार में ही महंगाई नहीं देखनी चाहिए बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में इसे देखना चाहिए."
अमेरिका और यूरोप में नीति निर्धारक इस बात से बखूबी वाकिफ़ हैं. तो फिर ऐसा क्या है कि केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाने से परहेज़ कर रही हैं.
ब्रोनिन कहती हैं, "हमने देखा है कि आर्थिक संकट के बाद केंद्रीय बैंकों ने तुरंत ब्याज दरें बढ़ाई हैं जिसके बाद अर्थव्यवस्था की रफ्तार थम गई. मुझे लगता है कि बैंकर्स मान रहे हैं कि ये अस्थायी बदलाव है और वक्त के साथ स्थिति सामान्य होगी. अभी मांग तो बढ़ रही है लेकिन अर्थव्यवस्था महामारी के पहले वाली स्थिति तक नहीं पहुंची है. मज़दूरी महंगी हुई है, खुदरा बाज़ार हो या उर्जा सेक्टर, उत्पादन महंगा हुआ है, ऐसे में बैंकों को चिंता है कि कहीं वो कुछ ग़लत न कर बैठें."
यानी ब्याज दरें बढ़ाना कहीं ग़लत फ़ैसला न साबित हो. ब्रोनिन और रॉजर दोनों मानते हैं कि अमेरिका और यूरोप में ये काम जल्द किया जाना चाहिए. लेकिन दूसरे देशों के लिए शायद ये सही नहीं होगा.
अलग देश, अलग ज़रूरतें
हमारे चौथे एक्सपर्ट हॉल्गर श्मिडिंग इंवेस्टमेंट बैंक बैरेनबर्ग में मुख्य अर्थशास्त्री हैं. वो कहते हैं कि महामारी से निपटने की सरकार की कोशिशों के बीच दुनिया की सबसे कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं के लिए जोखिम बढ़ गया है.
वो कहते हैं, "कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं के मामले में उसके डूबने, अधिक मुद्रा छाप कर खर्च पूरे करने, महंगाई बढ़ने, मुद्रा के अवमूल्यन और कुछ जगहों पर कर्ज़ चुका पाने में असमर्थता का जोखिम अधिक है. लेकिन विकसित देशों के मामले में जहां मुद्रा मज़बूत है, जैसे कि डॉलर, स्टर्लिंग और यूरो- ये बड़ा जोखिम नहीं."
यूरोज़ोन में खुदरा बाज़ार में कीमतें बीते दो दशकों में सबसे अधिक हैं. हालांकि ये अमेरिका से अधिक नहीं है, जहां महंगाई 6 फीसद है. फिर भी यहां लोग इसे लेकर चिंतित हैं.
वो कहते हैं, "लोग अनुभव कर पा रहे हैं कि खाने का सामान, रेस्त्रां और उर्जा की कीमतें पहले से अधिक हैं. अभी के हालात को लेकर ख़ासकर जर्मनी में तनाव है. कम आय और महंगी चीज़ों का ज़िक्र आम बातचीत में होने लगा है. लोग शिकायतें करने लगे हैं कि बैंकों में पड़े पैसों पर ब्याज नहीं मिल रहा. और फिर महंगाई बढ़ने से बैंकों में रखे पैसों का मूल्य भी कम होता है."
हॉल्गर कहते हैं ब्याज दरों के मामले में अमेरिका और जर्मनी में काफी फर्क है और इसका नाता इस बात से है कि लोग अपनी संपत्ति कैसे रखते हैं.
वो कहते हैं, "जर्मन पैसा बचाने वाले माने जाते हैं. वो ब्याज दरों में बढ़ोतरी का विरोध नहीं करेंगे. इसका एक अहम कारण ये है कि अमेरिका, यूके और स्पेन के मुक़ाबले यहां लोग घर खरीदना पसंद नहीं करते. हम कह सकते हैं कि अगर यूरोपीय केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा दे तो जर्मन खुश होंगे. लेकिन यूरोज़ोन में महंगाई का बढ़ना लंबे वक्त तक जारी रहेगा ऐसा नहीं लगता, ऐसे में अमेरिका और यूके के मुक़ाबले यहां ब्याज दरें शायद देर में बढ़े."
यूरोपीय बैंक की अध्यक्ष क्रीस्टीन लैगर्ड का कहना है, "इस साल स्थिति ऐसी ही रहेगी, लेकिन हम उम्मीद कर रहे हैं कि महंगाई का दौर जितनी उम्मीद थी उससे लंबा चलेगा, लेकिन अगले साल महंगाई कम हो सकती है."
इस बीच जर्मन अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देने वाले कार उत्पादकों को उम्मीद है कि वो पिछले दिनों जो उत्पादन रुका था उसे जल्द पूरा कर लेंगे.
हॉल्गर कहते हैं, "पाबंदियों में राहत मिलते ही कार उत्पादन में तेज़ी आएगी. सेमीकंडक्टर का उत्पादन पटरी पर लौटने के साथ ही ये सेक्टर भी तेज़ी पकड़ेगा. आने वाले 6 से 12 महीनों में हम उत्पादन सामान्य होने की उम्मीद कर सकते हैं. इसका असर निर्यात पर और देश की जीडीपी पर पड़ेगा."
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लौटते हैं अपने सवाल पर महंगाई पर क़ाबू पाने के लिए क्या बैंकों को ब्याज दर बढ़ाने के बादे में सोचना चाहिए?
हॉल्गर इशारा करते हैं कि महंगाई कम होने को लेकर सटीक अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है और इसलिए ब्याज दरें बढ़ाने को लेकर जानकार एकमत नहीं हैं.
हम ये मान रहे हैं कि कामगार काम पर लौटेंगे, तो उत्पादन बढ़ेगा, सप्लाई में तेज़ी आएगी और महंगाई कम होनी शुरू होगी. लेकिन अगर सरकार की आर्थिक मदद के कारण बाज़ार में मांग बढ़ी या कामगार फैक्ट्रियों में नहीं लौटे तो महंगाई कम होने में खासा वक्त लग सकता है.
1970 का अनुभव हमें बताता है कि महंगाई लंबे समय तक रही तो इससे अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंच सकता है. लेकिन महामारी के बाद ब्याज दरों को बढ़ाने को भी ग़लत कदम के रूप में देखा जा रहा है.
रॉजर बूटल के शब्दों में- कोई भी खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देखना चाहेगा जहां ब्याज दरें तेज़ी से बढ़ती दिखाई दें, इसके लिए चरणबद्ध तरीके से कदम उठाना ज़रूरी है. अर्थव्यवस्था को कम से कम प्रभावित करते हुए सामान्य स्थिति की तरफ बढ़ने का यही सही तरीका होना चाहिए.
प्रोड्यूसर - मानसी दाश
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