क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

अखिलेश को नौसिखिया क्यों समझती हैं मायावती- नज़रिया

जिस दिन बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने हाथ मिलाया था, उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि ये गठबंधन लंबा चलने वाला नहीं है. दो राजनीतिक शत्रुओं के बीच ये समझौता अविश्वास, संदेह के आधार पर और सबसे अहम, दोनों सहयोगियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरे को देखते हुए हुआ था.

By शरत प्रधान
Google Oneindia News
मायावती
Getty Images
मायावती

जिस दिन बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने हाथ मिलाया था, उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि ये गठबंधन लंबा चलने वाला नहीं है.

दो राजनीतिक शत्रुओं के बीच ये समझौता अविश्वास, संदेह के आधार पर और सबसे अहम, दोनों सहयोगियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरे को देखते हुए हुआ था.

ये गठबंधन कमज़ोर इसलिए भी रह गया क्योंकि इसे चुनाव से एकदम पहले बनाया गया जबकि इस तरह के गठबंधनों को परिपक्व होने में वक़्त लगता है.

इतना वक़्त ही नहीं था कि ये संदेश ज़मीनी स्तर तक पहुंच पाता, जिससे दोनों पार्टियों के वोट एक-दूसरे को मिल पाते और ना ही दोनों पार्टियों ने उतनी कोशिश की जितनी की जानी चाहिए थी.

TWITTER/AKHILESH

अतिआत्मविश्वास

ये भी कहा गया कि मायावती और अखिलेश में ज़रूरत से ज़्यादा आत्मविश्वास भर गया था, जिसकी वजह से उन्होंने कोशिश ही नहीं की और वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर नहीं करा पाए.

वहीं दोनों ओर के चाटुकार दोनों नेताओं को भविष्य के सपने दिखाने में व्यस्त थे.

ख़ुद के बारे में ज़्यादा सोचने के लिए जानी-जाने वाली मायावती ने प्रधानमंत्री का सपना संजोना फिर से शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि नतीजे आने पर त्रिशंकु संसद की स्थिति बन सकती है.

अखिलेश मान रहे थे कि वो उसी जातीय समीकरण से अगले राज्य विधानसभा चुनाव को अपने पक्ष में करेंगे और 2022 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए अगुआ होंगे.

समझा जाता है कि मायावती अखिलेश से प्रभावित थीं और उन्हें लग रहा था कि हो ही नहीं सकता कि संयुक्त जाति अंकगणित काम ना करें.

ये भी पढ़ें:अखिलेश-मायावती: दुश्मनी से दोस्ती तक की पूरी कहानी

मायावती
Getty Images
मायावती

जिन्होंने राजनीति में मायावती को दशकों से देखा है, वो जानते थे कि 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे ही गठबंधन की असली परीक्षा होने वाली थी और ये तय करने वाले थे कि गठबंधन आख़िर कितनी लंबा चलेगा.

ये निष्कर्ष भी पहले से निकाल लिया गया था कि अगर गठबंधन के नतीजे दोनों नेताओं के अनुमान के मुताबिक़ नहीं रहते तो ख़ामियाज़ा अखिलेश को ही भुगतना पड़ेगा.

2018 के दौरान उत्तर प्रदेश में तीन लोक सभा सीटों और एक विधान सभा सीट पर एक साथ हुए उपचुनाव में मिली अप्रत्याशित जीत के उत्साह से पूर्ण गठबंधन करने के आइडिया को बल मिला.

जल्द ही, सबसे छोटे सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल ने भी महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा जता दी.

ये भी पढ़ें:मायावती ने रखी शर्त तो अखिलेश ने दिया ये जवाब

अखिलेश यादव, मायावती
Getty Images
अखिलेश यादव, मायावती

कसर नहीं छोड़ी

मायावती ने ये दावा ज़रूर किया है कि वो सभी दरवाज़े खुले रखेंगी, लेकिन उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने ना सिर्फ़ अखिलेश के नेतृत्व पर सवाल उठाए, बल्कि उनके संगठनात्मक कौशल को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा किया. इससे पता चलता है कि मायावती अखिलेश को राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में कितनी कम आंकती हैं.

एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने कहा, "ये ना समझा जाए कि गठबंधन ख़त्म हो गया है."

साथ ही उन्होंने कहा, "अगर हमें लगेगा कि सपा प्रमुख अपने लोगों को एक साथ ला पाए तो हम लोग ज़रूर आगे साथ चलेंगे. अगर अखिलेश इसमें सफल नहीं हो पाते हैं तो हमारा अकेले चलना ही ठीक है. इसलिए बसपा ने उत्तर प्रदेश में आगामी 11 उपचुनावों में अकेले लड़ने का फ़ैसला किया है."

दिलचस्प बात ये है कि बसपा प्रमुख ने ज़ोर देकर कहा कि वो अखिलेश के साथ अच्छे निजी रिश्ते बनाए रखेंगी.

उन्होंने कहा, "हालांकि, मैं लोकसभा चुनाव के नतीजों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती, जिससे साफ़ तौर पर पता चलता है कि अखिलेश अपनी पार्टी के कोर वोटों पर नियंत्रण नहीं कर सके और हमें ये फ़ैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा."

ये भी पढ़ें: मायावती-अखिलेश पर क्या बोले राहुल गांधी

अखिलेश यादव, मायावती
Getty Images
अखिलेश यादव, मायावती

उन्होंने ऐसे बयान लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के 15 दिनों से भी कम वक़्त में दिए हैं. इससे वो लोग हैरान नहीं हैं, जिन्होंने मायावती का ट्रैक रिकॉर्ड देखा है. वो ढाई दशक में अपनी राजनीतिक सहयोगी रही बीजेपी को तीन बार और सपा को एक बार छोड़ चुकी हैं.

तो ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि मायावती एक बार फिर अपनी "इस्तेमाल करके छोड़ने" की नीति पर चलने का फ़ैसला ले चुकी हैं.

अखिलेश के साथ गठबंधन करने से उन्हें 10 सीटें मिल गईं जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी.

शायद उन्हें ऐसा भी लगा कि अखिलेश अब भी एक राजनीतिक नौसिखिया हैं, जो आगे चलकर उनकी पार्टी के किसी काम नहीं आएंगे.

इसलिए उन्होंने गठबंधन ख़त्म करने का फ़ैसला किया.

उन्होंने भविष्य के लिए दरवाज़ें सिर्फ़ इसलिए खुले रखे हैं क्योंकि वो आने वाले उपचुनाव में देखना चाहती हैं कि कितने पानी में हैं और ये भी देखना चाहती हैं कि इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है.

उपचुनाव होने के बाद ये दरार पूरी तरह साफ़ हो जाएगी.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Why does Mayawati consider Akhilesh a newbie?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X