#SwachhDigitalIndia: झूठी ख़बरों का इस्तेमाल और उनका असर
- अफवाह कहिए या फ़ेक न्यूज, जब दुनिया में टेलीफोन के तार तक नहीं थे
- तब भी ऐसी ख़बरों ने अपना रास्ता खुद ही खोज लिया.
- लेकिन मौजूदा समय में ये सोशल मीडिया के जरिए तेजी से फैलती हैं.
अफवाह कहिए या फ़ेक न्यूज, जब दुनिया में टेलीफोन के तार तक नहीं थे, तब भी ऐसी ख़बरों ने अपना रास्ता खुद ही खोज लिया.
लेकिन मौजूदा समय में ये सोशल मीडिया के जरिए तेजी से फैलती हैं.
सालों पहले ऐसी खबरों का असर सीमित होता होगा, लेकिन अब इंटरनेट और चैट ऐप्स के कारण इनकी पहुंच दुनियाभर में है.
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साइबर कानून विशेषज्ञ विराग गुप्ता कहते हैं, "किसी भी झूठी खबर के पीछे एक फर्जी पहचान होती है, जिसे फर्जी जानकारी के जरिए किसी खास मकसद के लिए बनाया जाता है."
वो कहते हैं, "झूठी खबरों का असर जिंदगियों पर होता है. राजनीति में एक हथियार की तरह इसका इस्तेमाल होता है. यही कारण है कि राजनीतिक दल आजकल आईटी सेल बनाने में लगे हैं."
झूठी खबरें फैलाना कोई नई बात नहीं है. सालों पहले से युद्ध रणनीति के तौर पर इनका इस्तेमाल होता रहा है.
रणनीति के तौर पर
झूठी खबर का एक उदाहरण 'महाभारत' में मिलता है. पांडवों को पता था कि युद्ध जीतने के लिए गुरु द्रोणाचार्य को मारना जरूरी है, इसलिए उन्होंने उनके बेटे अश्वत्थामा की मौत की झूठी खबर फैलाने की सोची.
द्रोणाचार्य ने जब युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मौत का सच पूछा, तो युधिष्ठिर ने कहा, 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो' यानी 'अश्वत्थामा की मौत हुई, नर या हाथी पता नहीं'.
ये सुनकर द्रोणाचार्य ने हथियार त्याग दिए.
'डेथ सीकिंग इम्मोर्टल' के लेखक राजीव बालाकृष्णन कहते हैं, "जब युधिष्ठिर 'नरो वा कुंजरो' बोल रहे थे, कृष्ण ने जानबूझकर शंख फूंका, ताकि द्रोणाचार्य तक आधी खबर पहुंचे."
विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था, "युद्ध के समय सच इतना कीमती होता है कि उसे झूठ की चादर में छिपाना जरूरी है."
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने ऑपरेशन मिंसमीट की योजना बनाई, जिसके तहत नाजियों को ये सोचने पर मजबूर किया गया कि सिसली की बजाय सार्डिनिया और ग्रीस पर हमला होगा.
एक शव को सेना के अफसर की पोशाक पहनाकर उसके हाथों में फर्जी दस्तावेज थमाकर उसे स्पेन के नजदीक समंदर के किनारे फेंक दिया गया.
उम्मीद थी ये 'गुप्त' दस्तावेज जर्मनी के खुफिया विभाग तक पहुंचेंगे. सिसली को जीतने में इस ऑपरेशन की अहम भूमिका रही.
राजनीतिक फायदा
राजनीतिक फायदे के लिए भी फेक न्यूज फैलाया जाता है, लेकिन कभी-कभी इसके कारण जानमाल का नुकसान होता है.
'आई एम ए ट्रोल' की लेखिका स्वाति चतुर्वेदी कहती हैं, "मतदाओं को प्रभावित करने के लिए फेक न्यूज का इस्तेमाल किया जाता है. आजकल राजनीतिक पार्टिंयां इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा लेने में लगी हुई हैं."
वो कहती हैं, "पार्टियां खास तौर पर लोगों की नियुक्ति करती हैं, ताकि उन्हें सोशल मीडिया पर बढ़त मिल सके."
'द हिंदू' के पत्रकार मोहम्मद अली कहते हैं, "माना जाता है कि दो युवाओं को पीट-पीटकर मारे जाने का एक फर्जी और भड़काऊ वीडियो सामने आने के बाद मुजफ्फरनगर दंगे भड़क गए थे. ये वीडियो वायरल हो गया और कुछ राजनीतिक नेताओं ने इसे शेयर भी किया."
वो कहते हैं, "ये वीडियो भारत का था भी नहीं, लेकिन इसे ऐसे पेश किया गया, जैसे ये दो स्थानीय युवाओं को मारने का वीडियो है. इससे धार्मिक भावनाएं भड़क उठीं."
साल 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान 50 लोगों की मौत हो गई थी और लगभग 50,000 लोगों को घर छोड़ पर जाना पड़ा था.
मोहम्मद अली कहते हैं, "जब तक प्रशासन स्थिति पर काबू पाता, नुकसान हो चुका था."
उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस वीडियो के बारे में बीबीसी के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है.
केवल धार्मिक भावनाओं को भड़काने के लिए
सितंबर 1995 में दिल्ली में रहने वाले सैंकड़ों हजारों लोगों में आग की तरह खबर फैली कि हिंदू भगवान गणेश की मूर्ति दूध पीने लगी है. इसे चमत्कार का नाम दिया गया.
वैज्ञानिक गौहर रजा ने बीबीसी को बताया, "दिल्ली की लगभग 20 फीसदी जनता मूर्ति को दूध पिलाने के लिए सड़क पर थी."
जल्द ही ये खबर टेलीविजन पर प्रसारित हुई और पूरे देश में फैल गई.
गौहर रजा कहते हैं, "एक चेन रिएक्शन-सा शुरू हो गया और कई लोग अजीबोगरीब दावे करने लगे. एक ने तो कहा कि मेरे फ्रिज के ऊपर रखी मूर्ति ने फ्रिज के भीतर रखा दूध पी लिया."
वो कहते है, "इन दावों की कोई सीमा नहीं थी."
डर फैलाने के लिए
2001 में दिल्ली के कुछ इलाकों में 'मंकी मैन' के लोगों पर हमला करने की खबरें आने लगीं, जिससे डर फैल गया.
'आज तक' के वरिष्ठ पत्रकार चिराग गोठी बताते हैं, "पुलिस ने इस कथित 'मंकी मैन' का स्केच जारी किया, जिससे अफवाह को मजबूती मिली. लोगों ने कॉलोनियों में पहरा देना तक शुरू कर दिया."
'सांध्य टाइम्स' संवाददाता अभिषेक रावत बताते हैं, "कुछ बदमाशों ने भी लोगों को डराने के लिए इस अफवाह का फायदा लेना शुरू कर दिया था."
मामले की पड़ताल करने वाले उस वक्त के पुलिस सुपरिटेंडेंट राजीव रंजन बताते हैं, "जांच में पता चला कि कोई मंकी मैन था ही नहीं. एक व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद अफवाह पर रोक लगी."
भ्रम पैदा करने और परेशान करने के लिए
8 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की. उसके बाद से ही वॉट्सऐप पर झूठी खबरें आने लगीं. इनमें से एक खबर के अनुसार 2,000 रुपये के नए नोटों में 'नैनो जीपीएस चिप' लगे होने की बात कही गई थी.
एक टीवी चैनल ने तो इस पर एक कार्यक्रम तक बना दिया और कहा, 'जीपीएस चिप की मदद से 2,000 रुपये का नोट जमीन के नीचे भी छिपाया गया हो, तो इसका पता चल जाएगा'.
पत्रकार मोहुल घोष शुरुआत से ही इस खबर से आश्वस्त नहीं थे.
तकनीकी मामलों पर लिखने वाले मोहुल कहते हैं, "हमने इसकी संभावनाओं पर विचार किया और जानकारों से बात की. हमने नोट के आकार की तुलना चिप के आकार के साथ की और पता चला कि ये संभव ही नहीं था."
कुछ इसी समय उत्तर प्रदेश के अमरोहा में वॉट्सऐप पर नमक की कमी से संबंधित खबरें आने लगीं.
अमरोहा के अतिरिक्त पुलिस सुपरिटेंडेंट नरेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं, "चारों तरफ लोग परेशान थे. वो नमक खरीद कर जमा करने लगे थे."
वो बताते हैं कि यह झूठी खबर रुहेलखंड, संभल और मुरादाबाद से फैलनी शुरू हुई और ऐसा नहीं लगा कि इसके पीछे कोई साजिश है.
वो कहते हैं, "हमने इस सिलसिले में एक शिकायत भी दर्ज की थी, लेकिन ये पता नहीं चल पाया कि इस खबर की शुरुआत किसने की थी."
क्या फेसबुक/वॉट्सऐप को फ़ेक न्यूज की जानकारी है
2012 में नियामक को सौंपे गए एक दस्तावेज में फेसबुक ने माना कि एक अंदाजे के मुताबिक, "दुनियाभर में फेसबुक के जितने अकाउंट हैं, उनमें से 4.8 फीसदी नकली हैं."
कंपनी का कहना था, "हम मानते हैं कि इस तरह के नकली और फर्जी अकाउंट विकसित देशों में कम हैं और विकासशील देशों में अधिक हैं."
2012 में 95 करोड़ लोग हर महीने फेसबुक का इस्तेमाल करते थे.
साल 2017 में फेसबुक ने 'झूठी खबरों पर लगाम लगाने के लिए' एक प्रोजेक्ट शुरु किया है. कंपनी एक खास टूल का भी परीक्षण कर रही है, जिससे लोगों को झूठी खबरों को पहचानने में मदद मिल सकेगी.
फेसबुक ने अभी तक वॉट्सऐप पर फेक न्यूज रोकने के बारे में कुछ नहीं कहा है.
फेसबुक ने वॉट्सऐप को 2014 में खरीदा था.
(ये लेख बीबीसी हिंदी और 'द क्विंट' की साझा पहल 'स्वच्छ डिजिटल इंडिया' का हिस्सा है. इसी मुद्दे पर 'द क्विंट' का अंग्रेज़ी लेख यहाँ पढ़िए.)