चंद्रकांत झा: वो सीरियल किलर जिसने दिल्ली पुलिस की नींद उड़ा दी थी
नेटफ्लिक्स पर हाल में रिलीज़ हुई 'इंडियन प्रीडेटर: द बुचर ऑफ़ दिल्ली' नाम की सिरीज़ ने 15 साल पहले राजधानी दिल्ली में सिर कटी लाशें मिलने से मची दहशत का डरावना दौर याद दिला दिया है
20 अक्टूबर, 2006, पश्चिमी दिल्ली के हरिनगर पुलिस थाने में सवेरे फ़ोन की घंटी बजी. फ़ोन करने वाले ने बताया कि उसने तिहाड़ जेल के गेट नंबर-3 के ठीक बाहर एक लाश रखी है.
वहां पहुंचने पर एक बंधी हुई टोकरी मिली, जिसमें एक सिरकटी लाश रखी थी, लाश के साथ एक चिट्ठी भी थी, जिसमें दिल्ली पुलिस के लिए भद्दी गालियां लिखी गई थीं और हत्या की ज़िम्मेदारी लेते हुए चुनौती दी गई थी कि 'हिम्मत है तो पकड़कर दिखा'.
इसके छह महीने बाद अप्रैल, 2007 में तिहाड़ जेल के गेट नंबर-3 के बाहर ठीक उसी जगह एक और लाश मिली. बंधी हुई लाश. सिर और हाथ-पैर ग़ायब. इस बार भी लाश को पिछली बार की ही तरह बांधा गया था.
पहली बार तो दिल्ली पुलिस छह महीने हाथ-पैर मारकर थक गई थी, लेकिन जब दूसरी बार ऐसा हुआ तो दिल्ली पुलिस परेशान हो उठी.
अप्रैल महीने में पुलिस की जांच में तो कोई प्रगति नहीं हुई, लेकिन महीना गुज़रते ही मई में एक तिहाड़ जेल के बाहर एक और सिर कटी लाश मिली. लाश को उसी तरह बांधकर टोकरी में रखा गया था. साथ में चिट्ठी भी थी. चिट्ठियां हिंदी में लिखी होती थीं और उनके अंत में लिखा होता था - 'दिल्ली पुलिस का जीजा या दिल्ली पुलिस का बाप', चिट्ठी लिखने वाले के तौर पर नाम दर्ज होता था-'सीसी'.
तिहाड़ जेल जैसी 'अति-सुरक्षित' मानी जानी वाली जगह के ठीक बाहर एक के बाद एक मिलती सिर कटी लाशें, लाशों के साथ मिलने वाली चिट्ठियों और थानों में बजते फ़ोन, इन सबने ये साफ़ कर दिया था कि ये कोई असाधारण अपराधी है, यह व्यक्ति दिल्ली पुलिस को खुली चुनौती दे रहा है.
नेटफ़्लिक्स की तीन कड़ियों वाली डॉक्युमेंट्री बिहार के मधेपुरा में एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए चंद्रकांत झा की पूरी कहानी बताती है कि कैसे उस भीतर दबे ग़ुस्से ने उसे सीरियल किलर बना दिया.
दिल्ली पुलिस की बेबसी
सीरियल किलर के इस मामले के जांच अधिकारी रहे सुंदर सिंह यादव दिल्ली पुलिस से बतौर एसीपी रिटायर हुए और इन दिनों अपने गांव में खेती का कामकाज देख रहे हैं.
वे बताते हैं कि उन दिनों इतने सीसीटीवी कैमरे नहीं होते थे, लाशों के सिर न होने की वजह से यह पहचान पाना मुश्किल था कि मृतक कौन है. मृतक को जाने बिना उसकी हत्या के मक़सद और हत्यारे का पता लगाना बहुत मुश्किल काम है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "ये मामला इसलिए अलग था क्योंकि इसमें मारे गए लोगों की शिनाख़्त नहीं हो रही थी, क्योंकि लाशों के सिर नहीं होते थे, लाशों के साथ कोई पुख़्ता सुराग़ नहीं मिल रहा था."
ये वो दौर था जब ना केवल पुलिस, बल्कि इन चिट्ठियों के लीक होने की वजह से दिल्ली की मीडिया की दिलचस्पी इस केस में अचानक बढ़ गई थी. उन दिनों अमित कुमार झा एक दैनिक अख़बार में क्राइम रिपोर्टर हुआ करते थे, वे इस डॉक्युमेंटरी में भी उन दिनों को याद करते हैं.
बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं, "जब ये चिट्ठी लीक होकर मीडिया तक पहुंचीं तो हड़कंप मच गया. उन दिनों ये दिल्ली की सबसे बड़ी ख़बर बन गई थी. आम तौर पर दिल्ली में कोई चोरी या लूटमार या डकैती कर पुलिस को चैलेंज दिया करते थे, लेकिन इस मामले में कोई हत्या करके चैलेंज कर रहा था."
अमित कुमार झा ने बताया कि उस दौर में केके पॉल दिल्ली पुलिस कमिश्नर हुआ करते थे और उन्होंने इस मामले को जल्द-से-जल्द सुलझाने के आदेश दिए थे, लेकिन ये इतना आसान नहीं था.
वो कहते हैं, "मुश्किल ये थी कि जो लाशें मिलती थीं, उनमें केवल बीच का हिस्सा होता था और सिर नहीं होता था. और पुलिस को किसी भी मामले को सुलझाने के लिए लाश की पहचान ज़रूरी होती है. जिन लाशों की शिनाख़्त हो जाती है, उनमें 80-90 फ़ीसदी मामला सुलझ जाता है, क्योंकि पुलिस जांच-पड़ताल कर मृतक के हवाले से कड़ियां जोड़ लेती हैं. परिवार, कॉल डिटेल, इन सभी को मिलाकर काफ़ी मदद मिलती है लेकिन इन मामलों में ऐसा नहीं था. ये मुश्किल केस था और पुलिस को कामयाबी मिलने में एक साल से ज़्यादा समय लग गया."
चंद्रकांत झा और पुलिस का आमना-सामना
सुंदर सिंह यादव और जांच कर रही बाक़ी टीम ने आख़िरकार चंद्रकांत झा को दिल्ली के ही एक इलाक़े से गिरफ्तार किया, मई, 2007 में.
यादव बताते हैं, "जब चंद्रकांत मेरे सामने आया तो लगा कि वो काफ़ी तार्किक है, जानकार है. मेरी फ़ोन पर उससे एक साल पहले से बात हो रही थी, लेकिन जब तीन-चार हत्याओं के बाद मैं उसे पकड़ने में कामयाब रहा, तो उसने मिलते ही मुझे पहचान लिया और मुझसे पूछा कि आप सुंदर सिंह यादव हो, मुझे इस बात से काफ़ी हैरानी हुई. वो बोला आप जीते, मैं हारा, मैं सब कुछ बता दूंगा, लेकिन मुझे परेशान मत करना, मारना मत."
लेकिन यादव और उनके साथियों की मुश्किलें ख़त्म नहीं हुई थीं. वो बताते हैं, "तीन हत्याएं मेरे इस केस पर रहते हुई थीं और एक मामला पहले का हरिनगर थाने का ही था. चार और हत्याएं दिल्ली के दूसरे हिस्सों की थी. मुझे उन चार हत्याओं के बारे में जानकारी नहीं थी. मौका-ए-वारदात का नहीं पता था, मारे गए लोग कौन थे, ये नहीं पता था. लेकिन चंद्रकांत झा ने डिस्कलोज़र स्टेटमेंट में काफ़ी डिटेल में बताया था, लेकिन फिर भी मुझे लग रहा था कि ट्रायल में ये मुझे तंग करेगा."
"जो इंसानी खोपड़ी बरामद हुई थी, वो उसे उस मामले से जुड़ी बता रहा था, जिसकी जांच मैं कर रहा था और एक अन्य खोपड़ी को दूसरे मामले की बता रहा था. वो शायद ये सोच रहा होगा कि दोनों मामलों का डीएनए प्रोफाइल मैच नहीं होगा और कोर्ट में उसे इससे मदद मिलेगी."
जब ये मामला कोर्ट में पहुंचा तो चंद्रकांत झा का व्यवहार अदालत में कैसा होता था, इसका जवाब उत्कर्ष आनंद देते हैं, जिन्होंने कोर्ट रिपोर्टर के तौर पर सब कुछ ख़ुद देखा है.
उत्कर्ष आनंद ने बीबीसी से कहा, "कोर्ट में वो काफ़ी कम बोलता था, लेकिन उसमें अजीब तरह का कॉन्फ़िडेंस होता था. जब वो अपने वकील से बात करता था तो उन्हें समझाते हुए दिखता था. ऐसा लगता था कि उसकी कोई रणनीति है, जिसके तहत वो काम कर रहा है. ऐसा नहीं लगता था कि वो दिमाग़ से पैदल या सनकी है. कंट्रोल और कंपोज़्ड लगता था."
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मीडिया को चंद्रकांत झा ने दी नसीहत
चंद्रकांत झा की एक ही वीडियो क्लिप मौजूद है जिसे नेटफ़्लिक्स की डॉक्युमेंट्री में इस्तेमाल किया गया है.
इस वीडियो क्लिप में हथकड़ी पहने चंद्रकांत कहता है, "मैं मीडिया से ये पूछना चाहता हूं कि आप लोग ग़लत ख़बर क्यों छापते हो?"
"अगर तुम्हें लगता है कि ख़बर ग़लत चल रही है तो ये तुम्हारी गलती है कि तुमने अब तक सच्चाई नहीं बताई.''
''आपने हमसे पूछकर छापा था? मैं कहां से पकड़ाया हूं, ये आपको मालूम है या मुझे मालूम है?"
एक पत्रकार पूछता है, "तुमने चारों क़त्ल क्यों किए थे?"
"क़त्ल हो सकता है हमने चार से भी ज़्यादा किए हों…आपको कैसे मालूम चार ही हैं?"
उत्कर्ष कहते हैं, "जब वो मीडिया से बहस करता था, जिस तरह से बात करता था, उसके जवाब तार्किक होते थे. ऐसा कभी भी नहीं था कि चंद्रकांत झा से बात कीजिए और उसने कोई ऐसी बात की हो, जिसका कोई मतलब ना निकले. वो जब भी बात करता था कि उसकी बात में तर्क होता था. जब कभी उससे आमना-सामना होता था तो डर भी लगता था कि न जाने वो कैसे रिएक्ट कर जाएगा. हालांकि, मेरी कभी उससे लंबी या ज़्यादा बातचीत नहीं हुई."
अदालत में सीरियल किलर
उत्कर्ष बताते हैं कि कोर्ट में जब तक उसका ट्रायल चलता रहा, एक भी शिकायत न कोर्ट में आई और ना जेल से आई. पुलिस का मानना था कि वो छोटी-छोटी बातों पर नाराज़ हो जाता था, हत्याएं कर देता था, लेकिन ट्रायल जज के सामने ऐसी कोई शिकायत कभी नहीं आई कि उसने कभी आपा खोया हो.
पुलिस और जज के सामने दिए चंद्रकांत झा की बातों और बयानों में फ़र्क़ होता था.
अमित कुमार झा बताते हैं, "जब उसे कोर्ट में पेश किया जाता था तो बाहर वो पुलिसवालों के सामने कहता था कि दो-चार मर्डर कोई बड़ी बात थोड़े ना है, ये तो हम कभी भी कर सकते हैं. और जब जज के सामने पेश करते थे तो वहां किरदार बदल जाता था, वो वहां कहता था कि वो गरीब आदमी है जो सब्ज़ी बेचता है और जिसे पुलिस ने बेकार में फंसा दिया है. उसे पता था कि पुलिस के सामने जो बोला, जज के सामने उसका कोई मोल नहीं है."
चंद्रकांत झा की इस चालाकी की तस्दीक़ सुंदर सिंह यादव भी करते हैं. वो कहते हैं, "उसमें केवल एक कमी थी और वो कहता भी था कि उसे अंग्रेजी नहीं आती, वरना वो तकनीकी बातों को, कानून को, कानूनी पेचीदगियों और कमियों को अच्छे से जानता-समझता था."
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बिहार के मधेपुरा में भी की थी हत्याएं
डॉक्युमेंटरी में चंद्रकांत झा के गांव घोषई में ग्रामीणों के बयान और कुछ तस्वीरें दहशत पैदा करती हैं. और ऐसे अंदाज़े मिलते हैं कि चंद्रकांत झा ने तीन या चार नहीं, बल्कि इनसे कहीं ज़्यादा हत्याएं की हैं.
असल में कितनी हत्याएं की थीं, इसके जवाब में उत्कर्ष आनंद का कहना है, "ये बताना बहुत मुश्किल है, मैं तो ये भी नहीं बता पाऊंगा कि जिन अपराधों की सज़ा वो काट रहा है, वो अपराध भी उसने किए हैं या नहीं क्योंकि उसने मीडिया में कई बार बयान दिए कि उन्हें कैसे पता कि चार ही किए हैं, चार हत्याओं का आरोप था, तीन में सज़ा हुई तो चौथा किसने किया? डॉक्यूमेंट्री से ऐसा लग रहा है कि 40 या आंकड़ा उससे भी ज़्यादा हो सकता है."
डॉक्युमेंटरी में उत्कर्ष आनंद ज़िक्र करते हैं कि सज़ा होने के बाद चंद्रकांत कई बार जेल से बाहर भी आया है. वो ब्योरा देते हैं, "तीन मामलों में उसे दोषी पाकर सज़ा सुनाई गई, वो सज़ा काट रहा है. लेकिन ये भी सच है कि उसे चार बार परोल मिली, सात बार फरलो मिली, वो इतने-इतने दिनों के लिए जेल से बाहर आया है. साल 2019 के बाद वो जेल से बाहर नहीं आया, लेकिन उससे पहले कई बार जेल से बाहर आता रहा है."
2019 के बाद क्या बदल गया, इसके जवाब में वे कहते हैं, "उस साल उसकी शिकायत हुई थी मारपीट की. फिर ये फ़ैसला किया गया कि दो साल तक उसे परोल या फरलो पर नहीं छोड़ा नहीं जाएगा. मैं आपको ताज़ा मामला बताता हूं. इसी साल फ़रवरी महीने में उसने दिल्ली हाई कोर्ट में रिट फाइल करके अपील की थी कि उसे बेटी की शादी करनी है और मां की मौत की वजह से पेंशन रुक गई है, जिसे दोबारा शुरू करवाना है. लेकिन उसकी शिकायतों और कारणों के गंभीर न होने की वजह से उसे इजाज़त नहीं मिली."
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चंद्रकांत से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा अमित कुमार झा भी सुनाते हैं.
उन्होंने कहा, "सज़ा होने के बाद जब चंद्रकांत जेल में था, तो मेरे पास उसकी पत्नी का कॉल आया कि वो चंद्रकांत झा की पत्नी बोल रही हैं और मर्डर के एक केस में वो बरी हो गया है. मैंने पूछा कि आपको मेरा नंबर कैसे मिला तो वो बोलीं कि वो चंद्रकांत से मिलने जेल में गई थीं, उन्होंने ही दिया है. मैं ये जानकर हैरान रह गया कि जेल में भी उसके पास मेरा नंबर है."
डॉक्यूमेंट्री में चंद्रकांत के परिवार के किसी सदस्य का बयान दिखाया या सुनाया नहीं गया है, ऐसा क्यों?
इसके जवाब में सिरीज़ की हेड ऑफ रिसर्च और क्रिएटिव प्रोड्यूसर नंदिता गुप्ता बताती हैं, "मेरी मुलाकात चंद्रकांत झा के परिवार के लोगों से हुई थी, वो लोग काफी अच्छे थे और इस मामले से जुड़ना नहीं चाहते थे, कैमरे पर नहीं आना चाहते थे, तो हमने उनके इस फ़ैसले का सम्मान किया."
उनका कहना है, "इसे बनाने में दो साल का समय लगा. चार महीने तक हमने सिर्फ़ रिसर्च का काम किया. बिहार के उस गांव में कई लोगों से बातचीत की. क़रीब 40-50 लोगों से बात की होगी. कई महीनों में जाकर ये काम पूरा हुआ."
जांच के नजरिये से मुश्किल केस
ये केस जांच के नज़रिए से मुश्किल था, ये बात क्राइम कवर करने वाले पत्रकार भी मानते हैं.
अमित कुमार झा कहते हैं, "उस दौर में ज़्यादा सीसीटीवी नहीं हुआ करते थे. मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल ज़्यादा नहीं था. आज शायद ही कोई अपराध होता हो जो सीसीटीवी पर क़ैद ना होता हो, मोबाइल का इस्तेमाल कम था, अब पुलिस डेटा पर काम करती है. सारा डेटा उठा लेती है. उस समय ऐसी मदद कम थी. तिहाड़ के बाहर पूरे साल कोई पुलिसवाला नहीं रख सकते थे. वो लाश कब डालेगा, कहां डालेगा, ये नहीं पता था."
सुंदर सिंह यादव के मुताबिक़ इस मामले में परिस्थितिजन्य सबूत काफ़ी मज़बूत थे. वो कहते हैं, "हम बारीकियों को देखकर चल रहे थे, कई एंगल से जांच कर रहे थे, उसके बाद आगे बढ़े थे. हमें पता था कि ये मुलज़िम आगे परेशान करेगा इसलिए हमने न केवल शव बल्कि उसके अलग-अलग हिस्सों तक को डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए भेजा. वो चिट्ठी लिखा करता था तो हैंडराइटिंग की जांच करवाई. जांच, गणित की तरह होती है. या तो सौ में से सौ मिलेंगे, या ज़ीरो मिलेगा."
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कैसे पकड़ा गया था चंद्रकांत झा?
ये केस पूरे पुलिस महकमे के लिए एक चुनौती बन गया था और इसे सुलझाने के लिए दबाव लगातार बढ़ रहा था. लेकिन ये कामयाबी मिली कैसे?
यादव बताते हैं, ''जब वो हमें फोन करता था तो हम उससे लंबी बात करने की कोशिश करते थे ताकि वो बातों-बातों में कुछ ऐसा कह जाए, जिससे हमें कोई सुराग़ मिले. उससे लंबी बात करना भी हमारी जांच का हिस्सा होता था. इसी बातचीत के दौरान हमने उससे बहुत सी चीज़ें उगलवा दीं. कुछ ऐसी भी, जो उसे नहीं बतानी चाहिए थीं.''
दिल्ली पुलिस ने इस केस को क्रैक करने के लिए मुखबिरों की भी ख़ूब मदद ली. डॉक्युमेंटरी में दिखाया गया है कि उन्हीं की मदद से वो एक डॉक्टर तक पहुंचे, जिसके पास चंद्रकांत नियमित रूप से आया करता था. इस डॉक्टर के एक रिश्तेदार और चंद्रकांत के बीच कुछ झगड़ा हो गया था.
डॉक्युमेंटरी में यादव बताते हैं, ''इसी रिश्तेदार ने बताया कि चंद्रकांत के पास एक रेहड़ी है, जिसमें इंजन फिट है. कॉल रिकॉर्ड के हिसाब से एक इलाके विशेष की पहचान की गई और गश्त के दौरान पुलिसकर्मियों को ऐसी ही एक रेहड़ी दिखी और उसके ज़रिए हम लोग चंद्रकांत को गिरफ़्तार करने में कामयाब रहे.''
चंद्रकांत झा इन दिनों जेल में उम्र क़ैद की सज़ा काट रहा है.
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