क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

पीएफ़आई: देश के 23 राज्यों में मौजूदगी, क्या है सिमी से रिश्ता?

पीएफ़आई पर प्रतिबंध लगाने की माँग उठती रही है, संगठन का दावा है कि वह लोकतंत्र, समानता और धर्मनिरपेक्षता का पैरोकार है लेकिन उस पर गंभीर आरोप हैं.

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
पीएफ़आई
Qamar Sibtain/The India Today Group/Getty Images
पीएफ़आई

राम मंदिर आंदोलन ने भारतीय समाज-राजनीति में बड़े बदलावों को जन्म दिया, मुस्लिम सियासत ज़ाहिर है इससे अछूती नहीं रह सकती थी.

1980 के दशक में उग्र हिंदुत्व का प्रसार, और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस ने समाजशास्त्री जाविद आलम के शब्दों में 'भारतीय शासन और राजनीति के प्रति मुसलमानों की सोच में' बड़ी तब्दीलियों को जन्म दिया था.

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुख़ारी की 'आदम सेना' से लेकर, बिहार की 'पसमांदा मुस्लिम महाज़' और मुंबई की 'भारतीय अल्पसंख्यक सुरक्षा महासंघ' तक इसी दौर में वजूद में आए.

तीन संगठनों का विलय

दक्षिण में, केरल में 'नेशनल डेवलेपमेंट फ्रंट' (एनडीएफ़), तमिलनाडु की 'मनिथा निथि पसाराई' और 'कर्नाटक फ़ोरम फ़ॉर डिग्निटी' की स्थापना भी इसी दौर की कहानी है, जिस दौर में 'मुसलमानों में असुरक्षा की भावना और गहरी' हो गई थी.

ये तीनों संस्थाएँ हालांकि स्थापना के कुछ सालों बाद साल 2004 से ही तालमेल करने लगी थीं, 22 नवंबर, 2006 में केरल के कोज़िकोड में हुई एक बैठक में तीनों ने विलय कर 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया' (पीएफ़आई) बनाने का फ़ैसला लिया. आधिकारिक तौर पर पीएफ़आई की स्थापना 17 फ़रवरी, 2007 को हुई.

एनडीएफ़ के संस्थापकों में से एक, प्रोफेसर पी कोया "बाबरी मस्जिद विध्वंस को भारतीय गणतंत्र पर हिंदूत्वादी ताक़तों के क़ब्ज़े के रूप में बयान करते हैं, जिससे केरल जैसे राज्य का मुसलमान भी अछूता नहीं रहा."

पीएफ़आई: केरल से पटना तक सक्रिय इस इस्लामी संगठन पर क्या हैं आरोप?

ग़ज़वा-ए-हिंद और हिंदुओं का क़त्ल हमारा एजेंडा नहीं है: पीएफ़आई

पीएफ़आई
Vishal Bhatnagar/NurPhoto via Getty Images
पीएफ़आई

मुस्लिम समुदाय

तिरुवनंतपुरम स्थित बुद्धिजीवी और सामाजकि कार्यकर्ता जे रघु कहते हैं कि केरल में स्थापित राजनीतिक संगठन होने के बावजूद 'मुस्लिम लीग समुदाय को उस वक़्त बेहद ज़रूरी सुरक्षा की भावना नहीं दे सका', जिस कारण शायद लोगों का झुकाव एनडीएफ़ जैसी संस्थाओं की तरफ़ हुआ.

दक्षिण भारतीय राज्य बंटवारे की त्रासदी से सीधे प्रभावित नहीं हुए, इस कारण वहाँ का मुस्लिम समुदाय उत्तर भारत के मुसलमानों की तुलना में सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से बेहतर स्थिति में रहा है.

केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के तीन संगठनों के विलय के दो सालों बाद, पश्चिमी भारतीय राज्य गोवा, उत्तर के राजस्थान, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के पाँच संगठन पीएफ़आई में मिल गए.

ख़ुद को 'भारत का सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले काडर बेस्ड जन-आंदोलन बताने वाला' पीएफ़आई 23 राज्यों में फैले होने और चार लाख सदस्यता का दावा करता है.

नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने भी संस्था के 23 राज्यों में फैले होने की बात गृह मंत्रालय को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में कही है.

पटना में दो संदिग्ध गिरफ़्तार, पुलिस के आरएसएस वाले बयान पर विवाद

पीएफ़आई: जिस पर प्रतिबंध लगाना चाहती है योगी सरकार

पीएफ़आई
Sonu Mehta/Hindustan Times via Getty Images
पीएफ़आई

प्रतिबंधित संगठन सिमी से 'जुड़ाव'

इस बात के आरोप संगठन के बनने के बाद से ही लगते रहे हैं कि पीएफ़आई प्रतिबंधित कट्टरपंथी इस्लामी संगठन 'स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया' (सिमी) का ही दूसरा रूप है.

भारत सरकार ने जिन संगठनों को 'आतंकवादी' घोषित करते हुए प्रतिबंधित कर रखा है उनमें सिमी का नाम है. सिमी पर प्रतिबंध साल 2001 में लगाया गया.

सिमी के रिश्ते एक अन्य इस्लामी चरमपंथी संगठन 'इंडियन मुजाहिदीन' से होने की बातें भी कही जाती रही हैं. भारत सरकार ने इंडियन मुजाहिदीन पर भी ग़ैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में प्रतिबंध लगा रखा है.

पीएफ़आई और सिमी के संबंध होने की बात ख़ास तौर पर इसलिए उठती रही है क्योंकि सिमी के कई पूर्व सदस्य पीएफ़आई में सक्रिय हैं, प्रोफ़ेसर कोया भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं.

हालांकि प्रोफेसर कोया इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि सिमी और उनके संबंध 1981 में समाप्त हो गए थे और उन्होंने एनडीएफ़ की स्थापना 1993 में की.

एनडीएफ़ उन तीन संगठनों में से एक है जिसने शुरुआती दौर में मिलकर पीएफ़आई तैयार की थी.

कई लोगों का मानना है कि 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया' की स्थापना ही इसलिए हुई क्योंकि सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया और इस कारण कुछ पूर्व सिमी सदस्यों ने दूसरे नाम से एक संस्था शुरू कर दी.

पीएफ़आई का गठन सिमी पर प्रतिबंध लगने के छह साल बाद 2007 में हुआ था.

अमित शाह ने कहा, लोग हिंसा करेंगे, तो पुलिस गोली चलाएगी ही

अमित शाह को दिल्ली दंगों पर एक अनजानी संस्था की रिपोर्ट क्यों सौंपी गई

पीएफ़आई
Qamar Sibtain/The India Today Group/Getty Images
पीएफ़आई

क्या है पीएफ़आई का घोषित एजेंडा?

संस्था के अनुसार उसका मिशन, एक भेदभावहीन समाज की स्थापना है जिसमें सभी को आज़ादी, न्याय और सुरक्षा मिल सके और इसमें बदलाव के लिए वो वर्तमान सामाजिक और आर्थिक पॉलिसियों में बदलाव लाना चाहती है ताकि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों को उनका हक़ मिल सके.

अपना उद्देश्य वो देश की अखंडता, सामुदायिक भाईचारा और सामाजिक सदभाव बताती है. साथ ही लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की पॉलिसी और न्याय व्यवस्था को क़ायम रखने की बात करती है.

भारत सरकार ऐसा नहीं मानती. संस्था के विरुद्ध दाख़िल एक के बाद दूसरे मामलों में राजद्रोह, ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में शामिल होने (यूएपीए), समुदायों के बीच नफ़रत फैलाने, विदेशी फंड से देश की अखंडता को नुक़सान पहुंचाने और अशांति फैलाने का आरोप लगता रहा है.

साल 2021 में उत्तर प्रदेश के हाथरस दलित महिला बलात्कार-हत्या मामले को ही लें, पुलिस की विशेष जाँच दल ने पाँच हज़ार पन्नों की चार्जशीट में पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन समेत जिन आठ लोगों को ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया, उन्हें पीएफ़आई का सदस्य बताया गया, उन पर ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि अधिनियम (यूएपीए) और राजद्रोह की धाराएँ लगाई गईं, और विदेशी फंडिग का दावा भी किया गया.

सिद्दीक़ कप्पन का कहना था कि वो एक पत्रकार होने के नाते दलित महिला के रेप-हत्या का मामला कवर करने जा रहे थे और पीएफ़आई से उनका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है.

पटना और लखनऊ से चार संदिग्ध चरमपंथियों की गिरफ़्तारी का क्या है पूरा मामला

केरल: बच्चे के 'भड़काऊ बयान' और नेता की जज पर 'टिप्पणी' से गरमाई सियासत

सिद्दीक़ कप्पन
SHAHEEN ABDULLA
सिद्दीक़ कप्पन

अनेकता, लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता

पीएफ़आई अन्य घटनाओं जैसे हाल में पटना के फुलवारी शरीफ़ के मामले में ख़ुद को बेगुनाह बताती रही है. संस्था दलित-पिछड़ों और मुसलमानों के साथ लाने की बात करती रही है.

जे रघु का मानना है कि दलितों-मुस्लिमों के किसी संगठनात्मक जुड़ाव की संभावना निकट भविष्य में नहीं दिखती है क्योंकि कि दलितों का एक बड़ा वर्ग तेज़ी से हिंदुत्व को ज़ोर में उधर खिंचता चला जा रहा है.

भारतीय प्रशासन से विपरीत, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की द्वैमासिक पत्रिका एशियन सर्वे में समाजशास्त्री आर्न्ट वॉल्टर एमरिक पीएफ़आई को "अल्पसंख्यों की एक ऐसी सहभागिता की अभिव्यक्ति को तौर पर देखते हैं जो कि अपने अनुयायियों में क़ानूनी जागरूकता और अधिकारों के प्रति सजगता को बढ़ावा दे रहा है."

अपने लेख में आर्न्ट वॉल्टर एमरिक तर्क देते हैं, "मुस्लिम संस्थाओं को हमेशा अनेकता, लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता का विरोधी समझा गया है, और ये भावना अल-क़ायदा जैसे संगठनों के मज़बूत होने के बाद और प्रबल हुई हैं."

लेकिन उनके अनुसार, हाल में हुए शोध में ये बात सामने आई है कि मुस्लिम ऑर्गनाइज़ेशन्स, उनका नेतृत्व और काम-काज के ढंग में में भारी बदलाव आया है, और वो इन मूल्यों की स्थापना में मददगार हो सकते हैं.

हाथरस के रास्ते में ही गिरफ़्तार होने वाले केरल के पत्रकार ने खटखटाया SC का दरवाज़ा

'क्या लोगों को इस्लाम कबूल करने का हक़ नहीं है?’

पीएफ़आई
RAVEENDRAN/AFP/Getty Images
पीएफ़आई

'किसी खाँचे में नहीं फिट कर सकते'

भारतीय मुस्लिम राजनीति पर 'इस्लामिक मूवमेंट्स इन इंडिया, मॉडरेशन एंड डिसकंटेंट' नाम की किताब ऑक्सफोर्ड स्कॉलर के तौर पर लिख चुके वॉल्टर एमरिक के मुताबिक़, वर्तमान मुस्लिम राजनीति मे जो बातें नए बदलाव की ओर संकेत कर रही है वो हैं- मुस्लिम राजनीति की बागडोर अब तक के उत्तर भारत केंद्रित रही है लेकिन अब वह दक्षिण की ओर जा रही है, इसके अलावा संगठन अब वामपंथी दलों या आरएसएस की तरह काडर बेस्ड और व्यवस्थित है. ये संस्था व्यक्ति विशेष या किसी एक करिश्माई नेतृत्व पर आधारित नहीं है, जैसे कि असदउद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस इत्तहादे मुसलिमीन है.

पुरानी मुस्लिम संस्थाओं की किसी क्षेत्र या कुछ राज्यों में प्रभाव की जगह पीएफ़आई भारत के अलग-अलग हिस्सों में फैलता दिख रहा है.

पीएफ़आई जैसे संगठनों में आम मुसलमानों या मध्यम वर्ग के लोगों का शीर्ष नेतृत्व में शामिल होना भी एक ख़ास बात है, जिनमें से कई मज़दूर आंदोलनों से उपर आए हैं. इसके उलट अब तक मुसलमानों का नेतृत्व अभिजात्य वर्ग के लोग करते रहे हैं.

अंग्रेज़ी के प्रोफेसर रह चुके पी कोया बताते हैं कि कॉलेज के दिनों में वो नास्तिक हुआ करते थे, हालांकि पीएफ़आई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य, और प्रतिबंधित स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट (सिमी) के संस्थापकों में से एक, प्रोफेसर पी कोया कहते हैं कि "आप मुझे किसी खाँचे में नहीं फिट कर सकते."

अमेरिका से निकलने वाले अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने अपने एक लेख में उन्हें 'आतंकवाद की तारीफ़ करनेवाला प्रोफेसर' क़रार दिया था. मगर कोया कहते हैं कि अमेरिकी रक्षा नीति और विदेश नीति के कारण इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, वियतनाम जैसे कई देशों में उसकी दख़लंदाज़ी की वजह से संकट पैदा हुआ.

केरल में बीजेपी और एसडीपीआई नेताओं की हत्या- क्या बढ़ रही है कट्टरता?

केरल में धर्म परिवर्तन की मची है होड़

पीएफ़आई
Santosh Kumar/Hindustan Times
पीएफ़आई

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट

भारतीय मुस्लिम राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले शोधकर्ता का मानना है कि जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने भारत में मुसलमानों की राजनीति में नया आयाम जोड़ा, सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि सामाजिक, आर्थिक स्तर पर मुसलमान काफ़ी पिछड़े हुए हैं और तकरीबन हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी औसत भारतीय व्यक्ति से कम है.

सच्चर रिपोर्ट और उसके बाद तैयार रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सिफ़ारशों के आधार पर ही पीएफ़आई जैसी संस्थाएँ मुसलमानों के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रही हैं, लेकिन पीएफ़आई के बढ़ते समर्थन के बावजूद फिलहाल उसके राजनीतिक विस्तार का दायरा बड़ा ही सीमित दिखता है.

केरल के एक वरिष्ठ पत्रकार अशरफ़ पडन्ना कहते हैं, "एक इमाम (मुस्लिम धार्मिक गुरु) को ये कहते हुए सुना कि पीएफ़आई जैसी राजनीति समुदाय को नुक़सान पहुंचाती है."

वरिष्ठ पत्रकार केए शाजी कहते हैं कि केरल में मुसलमानों की एक मज़बूत राजनीतिक तंज़ीम भारतीय मुस्लिम लीग दशकों से मौजूद रही है, और केरल की राजनीति में वामपंथी नेतृत्व वाले और कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधनों का क़रीब-क़रीब बारी-बारी से सत्ता हासिल करने के ट्रेंड से ये समझ में आता है कि पीएफ़आई की राजनीतिक ज़मीन बन पाना बहुत मुश्किल है.

हाथरस: उत्तर प्रदेश में 'अंतरराष्ट्रीय साज़िश' कैसे आ जाती है?

क्यों उठा रहे हैं हासन 'हिंदू आतंकवाद' का मुद्दा?

पीएफ़आई
ANI
पीएफ़आई

हिजाब का मुद्दा

पड़ोसी राज्य कर्नाटक के तटवर्ती मंगलुरु और दक्षिण कर्नाटक में पार्टी की राजनीतिक ईकाई समझी जानेवाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया ने स्थानीय निकाय चुनावों में काफ़ी सीटें हासिल की थीं. विधानसभा चुनावों में भी 2009 में तैयार संगठन ने इक्का-दुक्का सीटों पर कड़ा मुक़ाबला दिया था.

तटवर्टी कर्नाटक में जिस तरह हाल के दिनों में हिजाब का मुद्दा गरमाया रहा उससे कुछ लोगों का मानना है कि एसडीपीआई को उसका फ़ायदा हो सकता है.

अशरफ़ पडन्ना कहते हैं, "बीजेपी और पीएफ़आई एक दूसरे को फ़ायदा पहुंचाते रहेंगे."

संगठन के एक अधिकारी अहमद कुट्टी मगर कहते हैं कि "अगर ऐसा होता तो अब तक न जाने कितनी संसदीय सीटें हमें मिल चुकी होतीं."

इतिहासकार शम्स-उल-इस्लाम कहते हैं कि ख़तरा ये है कि जिस तरह सरकार अलग-अलग संगठनों को विचारधारा के आधार पर अलग-अलग तरह से ट्रीट कर रही है वो पीएफआई जैसे संगठनों को कई लोगों की नज़रों में मान्यता दिलाएगा, "लेकिन अभी भी ये समझ लेना गलत होगा कि वो मुख्यधारा की मुसलमानों की तंज़ीम बन गई है."

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
PFI: what is the relationship with SIMI?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X