क्या आप 'पैड वूमन' माया को जानते हैं?
पीरियड के दौरान महिलाओं के हाइजीन को इन्होंने जीवन का मकसद बनाया है.
"मैंने 26 साल की उम्र तक कभी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं किया. न तो इसके लिए मेरे पास पैसे थे और न ही जानकारी. इसलिए सेहत से जुड़ी कई दिक़्क़तों का सामना भी करना पड़ा." ये आपबीती है अमरीका के कैलिफ़ोर्निया शहर में रहने वाली माया विश्वकर्मा की.
माया वैसे तो भारतीय हैं और जीवन के शुरुआती दिनों में वो मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले में रहती थीं.
माया को इलाक़े के लोग पैड वूमन के नाम से जानते हैं.
तो क्या माया, 9 फ़रवरी को रिलीज़ होने वाली फ़िल्म "पैड मैन" से प्रभावित हैं?
अमरीका से भारत तक का सफ़र
इस सवाल पर माया कहती हैं, "मैं पिछले दो साल से मेन्स्ट्रुएशन हाइजीन पर काम कर रही हूं. फ़िल्म और मेरे काम का कोई लेना-देना नहीं है. इतना ज़रूर है कि मैं अपने काम के सिलसिले में अरुणाचलम मुरुगनाथम से मिली थी."
माया आगे बताती हैं कि उनका काम अभी शुरुआती दौर में ज़रूर है, लेकिन वो पैड मैन से नहीं, बल्कि अपने जीवन के अनुभवों से प्रेरित हैं.
माया 'उन दिनों' के बारे में आज तक अपनी मां से खुलकर कभी बात नहीं कर पाती हैं.
मां-बेटी, पति पत्नी और महिला और पुरुष के बीच की इसी झिझक को माया तोड़ना चाहती हैं.
क्या कहते हैं आंकड़े?
हाल ही में जारी किए गए नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे- 4 की रिपोर्ट के मुताबिक:
- 15 से 24 साल की उम्र की लड़कियों में 42 फ़ीसदी महिलाएं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं.
- पीरियड्स के दौरान 62 फ़ीसदी महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं.
- तकरीबन 16 फ़ीसदी महिलाएं लोकल स्तर पर बनाए गए पैड का इस्तेमाल करती हैं.
माया ख़ुद भी देश की उन 62 फ़ीसदी महिलाओं में शामिल हैं.
माया की प्रेरणा
माया कहती हैं, "पहली बार पीरियड्स के बारे में 'मुझे कपड़ा लेना है', ये बात मेरी मामी ने बताई. लेकिन कपड़ा इस्तेमाल करने की वजह से मुझे कई तरह के इन्फ़ेक्शन हुए जो हर चार-छह महीने में उभर आते थे."
दिल्ली में एम्स में पढ़ाई के दौरान माया को पता चला कि उनके इंफेक्शन के पीछे की वजह पीरियड्स के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला कपड़ा था.
उसके बाद ही माया ने सैनिटरी पैड्स और उसके इस्तेमाल और क्या करें, क्या न करें पर महिलाओं और बच्चियों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया.
दो साल पहले माया नरसिंहपुर वापस लौटीं और भारत में पैड मैन के नाम से मशहूर अरुणाचलम मुरुगनाथम से उन्होंने बात की.
लेकिन उनके मशीन से पैड बनाने का मामला माया को रास नहीं आया.
माया ने बीबीसी को बताया कि अरुणाचलम मुरुगनाथम पैड्स बनाने के लिए जिस मशीन का इस्तेमाल करते हैं उसमें हाथ का काम बहुत ज़्यादा है. लेकिन माया को उससे बेहतर मशीन की दरकार थी.
इसके लिए उन्होंने कुछ पैसे दोस्तों से उधार लिए और कुछ पैसों का जुगाड़ क्राउड फंडिंग से किया.
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फिर मशीनें ख़रीदी गईं. आज दो कमरों के मकान में माया का सैनेटरी पैड बनाने का काम चलता है. रोजाना 1000 पैड यहां बनाए जाते हैं.
अपने काम के बारे में बताते हुए माया कहतीं हैं, "हम दो तरह के पैड्स बनाते हैं. एक तो वुड पल्प और कॉटन का इस्तेमाल कर और दूसरा पॉलीमर शीट के साथ बनाते हैं. इस दौरान काम करने वाली महिलाओं और दूसरों के हाइजीन का यहां पूरा ख्याल किया जाता है."
क्या 'पैड मैन' जैसी फ़िल्म उनके काम का और ज़्यादा प्रचार-प्रसार करती है?
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इस सवाल के जवाब में वो कहतीं है, "ये सच है कि इस तरह कि फ़िल्म नौजवानों में पीरियड्स और माहवारी जैसे विषय पर जागरूकता पैदा करती है. लेकिन जिन इलाक़ों में मैं काम करती हूं वहां न तो लाइट है न थिएटर और न ही इंटरनेट."
माया कहती हैं, "नरसिंहपुर जैसे आदिवासी इलाक़े में जहां मैं काम करती हूं वहां इस तरह की फ़िल्मों से काम नहीं चलेगा. वहां ज़मीन पर काम करने वाले पैड मैन और पैड वूमन की ज़रूरत है."
"पैड मैन" फिल्म की रिलीज़ से पहले पैड वूमन का तमगा मिलने पर माया कहती हैं, "मुझे लोग जिस नाम से बुलाएं, इससे मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता. मैं चाहती हूं लोग पीरियड्स और पैड्स - दोनों के बारे में सब जानें और समझें. फिर चाहे वो पैड वूमन के नाम से समझें - इसमें कोई बुराई नहीं."
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