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अमृता प्रीतम की वो नज़्म जो अपने आप में इतिहास है यानी 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं, कितों कबरां विच्चों बोल'

अमृता प्रीतम की इस नज़्म को 1947 में हुए बंटवारे की नुमाइंदा रचना मानी जाती है. यह नज़्म इतिहास के अहम मौके पर लिखी गयी और खुद भी अपने-आप में इतिहास है. बंटवारे के दर्द को बयां करने वाली इस नज़्म ने विभाजित होने से लगातार इनकार किया है. बंटवारे का दर्द सरहद के आर-पार फैला था तो यह नज़्म किसी सरहद के अंदर नहीं रही. 

By दलजीत अमी
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अमृता प्रीतम
Getty Images
अमृता प्रीतम

अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं, कितों कबरां विच्चों बोल.

अमृता प्रीतम की इस नज़्म को 1947 में हुए बंटवारे की नुमाइंदा रचना मानी जाती है. यह नज़्म इतिहास के अहम मौके पर लिखी गयी और खुद भी अपने-आप में इतिहास है.

बंटवारे के दर्द को बयां करने वाली इस नज़्म ने विभाजित होने से लगातार इनकार किया है. बंटवारे का दर्द सरहद के आर-पार फैला था तो यह नज़्म किसी सरहद के अंदर नहीं रही. इससे भी आगे यह नज़्म बंटवारे जैसी हिंसा का शिकार लोगों की ज़ुबान बनने के लिए भाषाओं, मुल्कों और सरहदों की दूरियां मिटाती चली गयी.

यह लेख इस नज़्म के सफ़र का लेखा-जोखा करने का प्रयास है. सबसे पहला सवाल तो यही है कि यह वारिस शाह कौन हैं, जिसको पुकारा जा रहा है.

ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ का कोई अगला वरका फोल

वारिस शाह (1722-1798) पंजाबी के कवि थे, जो हीर-राँझा का किस्सा लिखने के लिए जाने जाते हैं. हीर-राँझा का किस्सा वारिस शाह से पहले भी लिखा जाता था और बाद में भी लिखा जाता रहा है, पर इस किस्से और वारिस शाह का नाम एक साथ ही आता है.

यह बात बाक़ी प्रेम गाथाओं के साथ भी जुडी हुई है. अलग-अलग समयों पर अलग-अलग कवियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद सोहनी-महिवाल के साथ फ़ज़ल शाह, मिर्ज़ा-साहिबा के साथ पीलू और सस्सी-पुन्नू के साथ हाशिम शाह का नाम जुड़ा हुआ है.

वारिस शाह की हीर की मक़बूलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अलग-अलग प्रकाशक और संपादक उसके किस्से को 'वारिस शाह की असली हीर', 'वारिस शाह की बड़ी हीर' और 'वारिस शाह की असली और बड़ी हीर' जैसे शीर्षकों के साथ छापते और बेचते रहे हैं.

हीर-रांझा
BBC
हीर-रांझा

एक रोइ सी धी पंजाब दी, तुं लिख-लिख मारे वैन

लाहौर से उजड़ कर आई अमृता प्रीतम ने देहरादून में पनाह ली थी और इसी दौरान नौकरी की तलाश में वह दिल्ली आई थी. रेल गाड़ी में देहरादून लौटते समय उन्होंने यह नज़्म लिखी. इस नज़्म के लिखे जाने का तजुर्बा उन्होंने दर्ज़ किया है, "चलती गाड़ी में नींद आखों के आस-पास नहीं थी. गाड़ी के बाहर वाला घोर अँधेरा समय की तवारीख जैसा था. हवा इस तरह सांय-सांय थी जैसे तवारीख के आलिंगन में बैठ कर रो रही हो."

"बाहर ऊँचे-ऊँचे पेड़ दुखों की तरह उगे हुए थे. कई बार को पेड़ ना होते और सिर्फ़ वीरानी होती और उस वीरानी के टीले ऐसे लगते जैसे कबरें हो. वारिस शाह के बोल मेरे ज़हन में घूम रहे थे 'भलां मोय ते बिछड़े कौण मेले' (मर चूकें और विछड़ चूकें को कौन मिलाता है) और मुझे लगा कि वारिस शाह कितना बड़ा कवि था जो हीर के दुःख को गा सका."

"आज पंजाब की एक बेटी नहीं, लाखों बेटियां रो रहीं थीं. आज इन के दुखों को कौन गायेगा? वारिस शाह के बिना मुझे कोई ऐसा नहीं लगा जिसको मुखातिब होकर मैं यह बात कहती. उस रात चलती गाड़ी में हिलती और कांपती कलम के साथ यह नज़्म लिखी."

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा
COURTESY THE PARTITION MUSEUM, TOWN HALL, AMRITSAR
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा

अज्ज लखां धियां रोन्दियाँ तैनु वारिस शाह नूं कहन

पंजाबी के लेखक बलवंत गार्गी ने अमृता का रेखा चित्र लिखा तो उसमें अमृता से लाहौर में हुई आख़िरी मुलाकात का जिक्र किया है. जब शहर में बढ़ रही हिंसा के बारे में बता कर बलवंत गार्गी ने अमृता से कहीं जाने के बारे में पूछा तो जवाब मिला, "मैं लाहौर छोड़ कर नहीं जाऊंगी. लाहौर के साथ मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हैं. यहां की गलियों के मोड़, अनारकली, रावी, लॉरेंस बाग़ से मुझे प्यार है. लाहौर छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी."

इसके बाद बलवंत गार्गी की अमृता प्रीतम से अगली मुलाक़ात देहरादून में हुई. अचानक पहुंचे बलवंत गार्गी को अमृता प्रीतम ने 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' सुनाई. बलवंत गार्गी लिखते हैं, "वह कविता पढ़ रही थी. कविता में उभरते चित्रों की परछाइयां उसके चेहरे पर थीं. ...प्यार के मुंह पर नफरत के दाग़ थे. मज़हब के मुंह से कौन ख़ून धोएगा?"

वे दरदमन्दां दिया दरदिया, उठ तक्क अपणा पंजाब

अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में लिखा है, "कुछ दिनों बाद यह नज़्म पाकिस्तान पहुंची और कुछ देर बाद जब फैज़ अहमद फैज़ की किताब छपी तो उसकी प्रस्तावना में अहमद नदीम क़ासमी ने लिखा कि उन्होंने यह नज़्म जेल में पढ़ी थी. जेल से बाहर आकर देखा कि लोग इस ज्ज़्म को जेबों में डाल कर रखते थे और रोते थे."

अज्ज वेले लाशां विचियां ते लहू दी भरी चिनाव

बलवंत गार्गी लिखते हैं, "फ़सादों में लाहौर में उसका घर लुट गया. उसकी किताबें, खरड़े और बहुत सारी बहुमूल्य वस्तुएं वहां रह गयीं पर वह लाहौर से ढेर सारा प्यार और दर्द ले आई.

'...अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' पंजाब की हद्दें-सरहदें फांद कर लाहौर पहुंचा, और अभी चैकोस्लोवाकिआ (इस देश का 1993 में चैक और स्लोवाकिया नाम के दो मुल्कों में विभाजन हो गया था), रूस और दूसरे देशों में जा पहुंचा है. यह गीत बग़ैर पासपोर्ट, बग़ैर वीसा के जगह-जगह घूमता है और पंजाब की आवाज़ बन गया है."

किसे ने पंजां पाणियां विच दित्ती ज़हर मिला

बंटवारे के बाद इस से जुड़ी हिंसा के बारे में पहली फ़िल्म 1959 में सैफुद्दीन सैफ के निर्देशन में बनी. करतार सिंह नाम की इस पंजाबी फ़िल्म का सूत्रधार अलग-अलग मौकों पर वारिस शाह की हीर सुनाता है.

जब गांव के मुसलमान हिंसा भरे माहौल में जल रहे गांव को छोड़ कर जाने को मजबूर हुए तो एक किरदार आख़िरी बार हीर के कुछ बोल सुनाने की बात करता है. जवाब में सूत्रधार कहता है, "किस वक्त में फ़रमाइश करने आये हो, सारी हीरें तो ज़हर खा कर मर गईं और रांझें सिरों में राख मल कर जंगल की तरफ निकल गए. हीर के सारे बोल इस आग में जल कर राख हो गए. अब तो एक मिन्नत ही बाकी रह गयी है. अगर कहो तो वह सुना दूँ."

मन में आई सुनाने का जवाब पाकर सूत्रधार अपने तुम्बे को जल रहे घर की आग में फेंक देता है और 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' गाता है. जल रहे गांव और बेघर लोगों के काफिले वाले दृश्यों पर यह नज़्म उन्हीं हालात की नुमाइंदगी करती है जिन हालात की परिकल्पना में यह नज़्म लिखी गयी थी.

फिल्म के निर्देशक और निर्माता सैफुद्दीन सैफ़ का जन्म अमृतसर में हुआ और वह बंटवारे के दौरान अपने शहर से उजड़ कर लाहौर जा बसे. इस तरह अमृता की नज़्म लाहौर से उजड़ने वाले का एहसास थी तो उजड़ कर लाहौर आने वाले के भी दिल की हालत बयां करती थी.

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा
Getty Images
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा

ते उणां पाणियां धरत नूं दित्ता पाणी ला

अमृता प्रीतम 'रसीदी टिकट' में लिखती हैं, "जब 1972 में लंदन गई तो बीबीसी के एक कमरे में किसी ने पाकिस्तान की शायरा साहाब किज़लबाश के साथ मुलाक़ात करवाई. साहाब के पहले शब्द थे, "अरे यह अमृता है, जिसने वो नज़्म लिखी थी वारिस शाह वाली, इससे तो गले मिलना है."

इस के बाद हुई शाम की एक महफ़िल के बारे में अमृता लिखती हैं, "रात नज़्मों से भरी हुई थी, पर जब नज़ाकत अली को कुछ गाने के लिए कहा गया तो उनके पास साज़ नहीं थे. कहने लगे— हमने आज तक कभी बिना साज़ के नहीं गाया पर साथ ही बोले, जिसने 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' नज़्म लिखी है उसके लिए तो बिना साज़ के ही गाएंगे. वह रात नज़ाकत अली की सुरीली आवाज़ में भीग गई."

इस ज़रख़ेज़ ज़मीन दे लूं-लूं फ़ुटिया ज़हर

जब 1975 में मुल्तान से एक अदीब दिल्ली में मश्कूर सबरी के उर्स पर आये तो उन्होंने अमृता को बताया जो उन्होंने रसीदी टिकट' में दर्ज किया, "पिछले कई वर्षों से वह ज़श्न-ए-वारिस मनाते हैं यहां पर लोक गीतों की, लोक नृत्यों और लोक कला की नुमायश होती है. और मुशायरा भी. उस ज़श्न को वह मेरी नज़्म 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' से शुरू करते हैं. जब नज़्म का आख़िरी हिस्सा आता है, वह इस तरह की गूंज पैदा करते हैं जैसे सारी कायनात में मुहब्बत का खुलूस जग पड़ा हो."

गिठ्ठ-गिठ्ठ चड़ियाँ ललियां फ़ुट-फ़ुट चड़िया कहर

अमृता प्रीतम दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में काम करती थीं. रेडियो के दफ़्तर में श्रोताओं के पत्र आते थे. 'रसीदी टिकट' में अमृता ने एक बेनामी पत्र का जिक्र किया है. पत्र लिखने वाली लिखतीं हैं, "पंजाब की बेटियों को रोता देख कर वारिस शाह को आवाज़ें लगाने वाली! सुन मेरी बात. पुलों के नीचे से बेहिसाब पानी निकल गया पर अभी तक बात खत्म नहीं हुई. आज तक कभी भी मर गए लोगों की कब्रें नहीं जागीं. मैं पूछतीं हूँ कि तुम से ज़्यादा जगा कौन है! तुम खुद वारिस क्यों ना बनी?"

"वह कहानी जो आज तक मातम का चोला पहन कर किसी कलम वाले की राह दिखा रही है, वारिस शाह की गद्दी तो अभी भी सूनी पड़ी है. हीर के मज़ार वाली बेरी पर परांदे बांध कर रांझे का इंतज़ार करने वाली लड़कियां लाठी पकड़ कर चलने वाली बुढ़ियाँ हो गयी हैं पर हीर के मज़ार की बेरी के पत्ते अभी भी हरे और मुलायम हैं."

पत्र में आगे लिखा है, "दूसरी तरफ़ देश की हीरें अपनी चीखें सीने में दफ़न कर ज़हर के प्याले भर-भर की पी रहीं हैं और खेड़ों की डोली में बैठ जाती हैं. दिल्ली की गलियों में खो जाने वाली हमने आप से उम्मीदें लगाई थीं. तुम्हारे तरफ की हीरों को रोने से कोई नहीं रोकता. आकर अपने मायके वाले पंजाब का हाल देखो. आज यहां चारों तरफ कैदों खड़े हैं और उनके घेरे में राँझा अकेला है."

इस पत्र में पंजाब पर हुए हमलों का हवाला देते हुए समकालीन दौर की बेइंसाफ़ी की बात है, इस बेइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ लेखक की भूमिका का जिक्र करते हुए अमृता से कम लिखने की शिकायत की है. आगे लिखा है, "झूठ की हक़ीक़त को लेखक बदल नहीं सकता. वारिस शाह, हीर की तकदीर को बदल नहीं सका था, पर उसने इस तकदीर को हीर का हक़ भी नहीं माना. अगर वह मान लेता तो हमारे जैसे ना होता? पर अभी हम मर नहीं गए. चलो दोबारा लिखें! हमारी तवारीख के मुश्किल समयों को द्वारा पढें. ताकि द्वारा कोई हमारी कब्रों को आवाज़ लगाने वाला पैदा तो हो! ...तुम तो अच्छे से जानती हो— पंजाब की लाखों बेटियां रो-रो कर वारिस शाह को आवाज़ें लगातीं हैं पर वारिस शाह कब्रों में से नहीं जगता. चाहे तैंतीस साल बीत जाएं, ...तुम्हें आवाज़ लगाने वाली-एक बेटी पंजाब की."

इस पत्र से अंदाज़ा होता है कि यह 1980 के करीब लिखा गया होगा और लिखने वाली पश्चिमी पंजाब से लिख रही हैं. लिखने वाली ने नज़्म लिखने वाली के साथ हक़ का रिश्ता बनाया है और समय-स्थान की सरहद हो दरकिनार किया है. यहीं तो नज़्म की ताक़त है.

हीर-रांझा
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हीर-रांझा

हुनर दा दायवा नहीं

जब यह नज़्म लिखी गयी थी तो इसके बारे में कई सवाल किए गए थे. रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने लिखा है, "...अपने पंजाब के कई अख़बार मेरे लिए तोहमतों से भर गए थे. किसी को एतराज़ था कि यह नज़्म वारिस शाह को संबोधित क्यों की, गुरु नानक को संबोधित करके लिखनी चाहिए थी. कोई कहता था कि मैंने लेनिन या स्टालिन को मुखातिब होकर क्यों नहीं लिखी. यहां तक कि इस नज़्म के ख़िलाफ़ कई नज़्में लिखीं गयीं."

अमृता ने यह नज़्म वारिस शाह के नाम ही क्यों लिखी? इसका जवाब उन्होंने स्पष्ट रूप से तो कभी नहीं दिया लेकिन उनकी किताब 'मेरे कालमुक्त समकाली' में यह जवाब स्पष्ट रूप में दर्ज़ है. इस किताब में अमृता ने 16वीं-18वीं के कवियों वारिस शाह, बुल्ले शाह, हाशिम शाह और सुल्तान बाहु से मुलाकातें लिखीं हैं.

वारिस शाह से अमृता पूछतीं हैं कि वह 'इश्क़ को जगत का मूल' कहने के बाद मज़हब की तंग गलियों में क्यों चले जातें हैं और बुल्ले शाह की तरह ज़ुर्रत क्यों नहीं दिखाते? वारिस शाह ने अपने जवाब में स्पष्ट किया है कि मज़हब की गलियों से निकल कर वह इश्क़ और हीर के पक्षधर बनतें हैं. अमृता लिखती हैं, "जैसे हीर कब्र से निकल कर तुम्हें सलाम करने आई थी, उसी तरह मैं दो सदियां चल कर तुम्हें सलाम करने आई हूँ."

अमृता इन कवियों को एक ही धारा की हिस्सा मानती हैं और उनसे दोस्त, मियां और तुम जैसे से संबोधनों से मुखातिब होतीं हैं. शाह हुसैन से वह कहती हैं, "आओ मेरे गांव-वंधु! बैठो कुछ पल! वैसे तो तुम जिस लाहौर से हो मैं भी उसी लाहौर से हूँ पर मैं उस गांव की बात नहीं करती. मैं तो उस गांव की बात करती हूँ जो सब फकीरों का गांव है..."

आगे शाह हुसैन कहते हैं, "सच्च कहा है! 'असीं सब्बे सालु वलियाँ, कोई एक बिरछ दियां डालियां ..." (हम एक सा कपड़ा ओढ़ने वाले, किसी एक ही पेड़ की शाखाएं हैं). इस किताब में स्पष्ट है कि अमृता का इन सूफियों के साथ गहरा दोस्ताना है तो विभाजन के दौर में दिल का दर्द इन्हीं में से किसी को बताया जा सकता था.

माण सच्चे इश्क दा है

'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' के बारे में कई आलोचकों का कहना रहा है कि 'यह अमृता की बढ़िया नज़्म नहीं है', 'यह नज़्म सौंदर्य के मियार पर पुरा नहीं उतरती' या 'भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर इससे बेहतर नज़्में लिखी गयी हैं.' यह सारी दलीलें सच्च भी हो, तो भी अमृता प्रीतम की इस नज़्म की अहमियत कम नहीं हो जाती. इसके बाद तो वह खुद की लिखतीं हैं, 'माण सच्चे इश्क दा है, हुनर दा दायवा नहीं. (गर्व सच्चे इश्क पर है, हुनर की दावेदारी नहीं.)'

BBC Hindi
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English summary
Amrita Pritam's sight which is history in itself i.e. 'Ajj akha waris shah nun, kitto kabaran vichon bol'
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