जन्मी और अजन्मी कन्याओं की रक्षा कैसे हो?
कथित तौर पर कन्या भ्रूण की हत्या को रोकने के लिए हमारी सरकार ने जन्म से पहले बच्चे के लिंग के बारे में जानकारी देने वाले डॉक्टरों के लिए कानून में सजा का का प्रावधान किया है। किन्तु वास्तव में ऐसे डाॅक्टरों को पकड़ना आसान काम नहीं है। हमारे पुलिस का सूचना तंत्र इतना कमजोर है कि वह कभी भी अपराधी डॉक्टरों को पकड़ नहीं पाती है। अगर पकड़ती भी है तो ले-देकर मामला रफा-दफा हो जाता है। अफसोस की बात यह है कि इसतरह के कामों में सरकारी डॉक्टरों की भागीदारी भी निजी डॉक्टरों के समान है।
हाल ही में दिल्ली के सरकारी अस्तपतालों में जाँचके उपरांत पाया गया कि वहाँ अनचाहे कन्या बच्चों को आश्रय दिया जा रहा है। वैसे तो यह मामला कन्या भ्रूण की हत्या से अलग है, फिर भी जन्मी कन्याओं के हित से जुड़ा हुआ तो कदापि नहीं है।
गौरतलब है कि सरकारी अस्तपतालों के द्वारा अनचाहे कन्या बच्चों को अपनाने का यह पहला मामला नहीं है। पूर्व में भी एमसीडी के बारा हिन्दु अस्तपताल और कलावती सरन अस्तपताल को इस तरह के कार्यों के लिए नोटिस भेजा जा चुका है। ज्ञातव्य है कि जो माता-पिता अपनी बच्चियों को अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं, उनको सरकारी अस्तपताल आश्रय दे रहे हंै। फिलहाल इस मामले में लोक नायक अस्तपताल और लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज का नाम प्रकाष में आया है। अब तक ऐसे दो कन्या बच्चों को अस्तपताल के द्वारा अपनाने की बात सामने आई है।
सूत्रों के अनुसार बच्चियों के माता-पिता ने बच्चियों पर से अपने अधिकार का त्याग कर दिया है और डॉक्टरों ने गवाह के रुप में त्याग आवेदन पर हस्ताक्षर किया है। उल्लेखनीय है कि चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्लूसी) ने अस्तपतालों के द्वारा उठाए जा रहे इसतरह के कदमों पर अपनी घोर आपत्ति दर्ज करवाई है। सीडब्लूसी के अघ्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अस्तपताल बच्चों को इस प्रकार से आश्रय नहीं दे सकती है।
बच्चों
व
किषोरों
से
संबंधित
कानून
2009
के
अनुसार
बच्चों
को
कानूनी
तौर
पर
गोद
लेने
और
बच्चों
के
माता-पिता
के
द्वारा
अपने
अधिकारों
का
त्याग
करने
की
एक
निष्चित
प्रक्रिया
है।
जोकि
नियम
व
कानून
पर
आधारित
है।
इस
कानून
की
धारा
33
(4)
के
तहत
अपने
बच्चों
को
त्यागने
वाले
इच्छुक
अभिभावकों
को
सबसे
पहले
सीडब्लूसी
से
संपर्क
करना
चाहिए।
ज्ञातव्य है कि सीडब्लूसी परामर्ष दाताओं की मदद से ऐसे अभिभावकों को समझाने का भरपूर प्रयास करती है। स्थिति नियंत्रणहीन होने की अवस्था में ही अभिभावकों को कमेटी के समक्ष फार्म 15 को नाॅन ज्यूडिषयल स्टाॅम पेपर पर निष्पादित करने की अनुमति दी जाती है। इसके तदुपरांत पुनः अभिभावकों को 2 महीने का अतिरिक्त समय दिया जाता है। ताकि वे अपने निर्णय पर पुनः विचार कर सकें। यहाँ सवाल अनचाहे कन्या बच्चों को त्यागने या फिर सरकारी अस्तपतालों के द्वारा खुलेआम कानून का उल्ल्घंन करने का नहीं है। अपितु सवाल यह है कि आखिर कब तक इस तरह से बच्चियों के साथ भेदभाव किया जाता रहेगा ?
जाहिर है सरकारी या गैर सरकारी संगठनों के हाथों में बच्चियों को सौंप कर हम उनके भविष्य को सुरक्षित नहीं मान सकते हैं। एक रपट के अनुसार साल 2011 के फरवरी महीने तक तकरीबन 250 बच्चियों को उनके घरों से अगवा किया जा चुका है। यह संख्या उन बच्चियों की है, जिनके अभिभावकों ने थाने जाकर रपट लिखवाई है। बच्चियों को अगवा करके उनके साथ क्या किया जाता है, इसकी कल्पना आप खुद कर सकते हैं? सचमुच, आज समाज की संवेदनषीलता समाप्त हो चुकी है। लिंगानुपात में आया असंतुलन भी हमारे पितृसत्तात्मक समाज की आँखें खोलने के लिए नाकाफी है। हद तो तब हो जाती है जब कई मामलों में सास बनने के बाद एक नारी खुद दूसरे नारी की हत्या करने से गुरेज नहीं करती है। कभी द्रोपदी का चीरहरण को रोकने के लिए स्वंय भगवान कृष्ण को आना पड़ा था। लगता है अब फिर भगवान कृष्ण को इस कलयुग में अवतार लेने की जरुरत है।
लेखक परिचय- श्री सतीश सिंह वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान से हिन्दी पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह से मोबाईल संख्या 09650182778 के जरिये संपर्क किया जा सकता है।