नूपुर शर्मा पर नहीं, ब्लासफेमी पर सवाल उठाइए मी लॉर्ड
शुक्रवार को नुपुर शर्मा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जजों की टिप्पणी देखकर पहली बार ऐसा लग रहा है कि ब्लासफेमी वाले मामलों में पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट भारत के सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा संवेदनशील है। पाकिस्तान कोई सेकुलर देश नहीं है। वह इस्लामिक रिपब्लिक है और वहां घोषित तौर पर शीर्ष पदों पर गैर मुस्लिमों के पहुंचने पर पाबंदी लगी हुई है। फिर भी बात जब ब्लासफेमी की आती है तो भारतीय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सुनने के बाद पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ज्यादा संतुलित लगने लगता है।
ब्लासफेमी लॉ भारत में अंग्रेजों ने बनाया था। 1920 से 1922 के बीच लाहौर में तीन अलग अलग बुकलेट छापी गयीं। इनके नाम थे, "कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी", "सीता एक छिनाला" और "उन्नीसवीं सदी का एक लंपट महर्षि"। इन किताबों में न केवल हिन्दू देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया था बल्कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद को भी निशाना बनाया गया था। इन किताबों के लेखक और प्रकाशक अनाम थे। इसकी प्रतिक्रिया में एक आर्यसमाजी चमूपति शास्त्री ने रंगीला रसूल नामक एक किताब लिखी जो मुसलमानों के पैगंबर के बारे में थी।
इस किताब को एक दूसरे आर्यसमाजी प्रकाशक महाशय राजपाल ने प्रकाशित किया था। इस किताब के छपने के बाद लाहौर सहित पूरे पंजाब में हंगामा शुरु हो गया। मुसलमान लगातार ब्रिटिश हुकूमत पर दबाव बनाने लगे कि उनके मजहब और पैगंबर की बेअदबी रोकने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। ऐसे हालात में अंग्रेंजों ने 1927 में भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 295 में (ए) क्लॉज जोड़ते हुए किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के धर्म या उनके आदर्श पुरुषों की निंदा करने पर तीन साल की सजा देने का प्रावधान किया। लेकिन अंग्रेजों के इस प्रयास का कोई खास लाभ नहीं हुआ और 1929 में एक अनपढ़ मुस्लिम इल्मुद्दीन ने रंगीला रसूल के प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या कर दी।
भारत में ब्लॉसफेमी या ईशनिंदा या फिर नबी निंदा या गॉड निंदा को कानूनी रूप से रोकने की शुरुआत भले ही 1927 से शुरु होती है लेकिन रोमन कैथोलिक चर्च से जुड़े ब्रिटिश पादरी तेरहवीं सदी में अपने यहां इस तरह का कानून बना चुके थे कि अगर कोई व्यक्ति चर्च, पादरी, ईसा या गॉड की निंदा करते हुए पाया जाता था तो उसकी हत्या कर दी जाती थी। चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी में इस कैनन लॉ का इस्तेमाल करके हजारों हत्याएं की गयीं। सोलहवीं सदी में ईश निंदा के नाम पर चर्च द्वारा की जा रही हत्याओं को रोकने के लिए चर्च से ये अधिकार ले लिया गया और अगर कोई ईश निंदा का दोषी पाया जाता था तो सामान्य कानून के तहत उसे सजा दी जाने लगी। इसलिए ब्रिटिश शासकों ने अपने अनुभव और मुसलमानों के भीषण दबाव के कारण भारत में भी वैसा ही लेकिन कम सजा वाला कानून बना दिया।
आज भी भारत और पाकिस्तान दोनों जगह आईपीसी की वह धारा 295 जस की तस मौजूद है। पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान ने उसे पीपीसी बना दिया लेकिन कानून जस का तस रहा। लेकिन पाकिस्तान को सच्चे इस्लामिक मुल्क के रूप में स्थापित करने के अपने अभियान के तहत जिया उल हक ने 1986 में इस कानून में व्यापक संशोधन किये। इसमें दो उपधाराएं जोड़ी गयीं बी और सी। 295 (बी) में ये प्रावधान किया गया कि अगर कोई कुरान का अपमान करता है तो उसे आजीवन कारावास दिया जाएगा और 295 (सी) में जोड़ा गया कि अगर कोई मुसलमानों के पैगंबर का अपमान करने का दोषी पाया जाता है तो अनिवार्य रूप से फांसी दी जाएगी और ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालत में होगी।
बीते
पैंतीस
साल
इस
बात
का
गवाह
हैं
कि
जिया
उल
हक
द्वारा
कानूनों
में
किये
गये
ये
बदलाव
पाकिस्तान
में
जंजाल
बन
गये
हैं।
1986
से
पहले
पाकिस्तान
में
ब्लासफेमी
के
कुल
14
केस
दर्ज
हुए
थे
लेकिन
1986
से
2017
के
बीच
1500
से
अधिक
केस
दर्ज
हुए।
इसके
अलावा
100
से
अधिक
लोगों
की
ब्लासफेमी
के
आरोप
में
भीड़
द्वारा
हत्या
की
जा
चुकी
है।
यह
सब
इसलिए
हुआ
क्योंकि
कानून
के
सख्त
होते
ही
लोगों
को
अपनी
दुश्मनी
निकालने
का
मौका
मिल
गया।
पाकिस्तान
में
अपनी
निजी
दुश्मनी
के
कारण
किसी
पर
भी
ब्लासफेमी
का
आरोप
लगा
देना
एक
सामान्य
बात
हो
गयी
है।
2017
में
मशाल
खान
की
उसके
ही
कुछ
साथियों
ने
पेशावर
में
पीटकर
मार
डाला
था।
उस
पर
ब्लासफेमी
का
आरोप
लगाया
गया
लेकिन
जब
जांच
हुई
तो
पता
चला
कि
उसके
साथ
के
लड़के
उससे
इसलिए
नाराज
थे
क्योंकि
वह
अपने
कमरे
में
चे
ग्वेरा
की
फोटो
रखता
था।
ये संक्षिप्त घटनाक्रम यह बताने के लिए हैं कि ब्लासफेमी को लेकर पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के पास भारतीय सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा परिपक्व अनुभव है। इसलिए नुपुर शर्मा की याचिका पर कोई टिप्पणी करने से पहले हमारे न्यायाधीश अगर ऐसे मामलों में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट की रुलिंग को ही देख लेते तो समझ जाते कि ब्लासफेमी का आरोप कैसे हिसाब बराबर करने, राजनीति को चमकाने या फिर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है। पाकिस्तान जो कि इस्लामिक मुल्क है, जहां ब्लासफेमी पर मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा है, तब भी वो आरोपितों को लेकर ऐसी सख्त और गैर जिम्मेदार टिप्पणी नहीं करते, जैसा कि नुपुर शर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए शुक्रवार को भारतीय सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने की है।
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