मोदी युग के समाप्त होने की प्रतीक्षा में वंशवादी राजनीतिज्ञ
कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी लंबे समय बाद सार्वजनिक रूप से सक्रिय हुई हैं। कर्नाटक जाकर पुत्र राहुल गांधी के संग दो दिन ठहरी और भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुईं। आगे प्रियंका गांधी वाड्रा भी भाई की पदयात्रा में शरीक होंगी। पारिवारिक स्नेह का सार्वजनिक प्रकटीकरण उन राहुल गांधी के साथ हो रहा है, जिनने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हुए जिद के साथ कहा था कि आगे उनके परिवार का कोई सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनेगा। इस कदम से उन्होंने खुद के परिवारवादी राजनीति के खिलाफ होने का संदेश देने की कोशिश की थी। लेकिन कांग्रेस ही इकलौती परिवारवादी पार्टी तो नहीं है जो उसकी आलोचना करके बात खत्म हो जाएगी।
समाजवाद बन गया परिवारवाद
इतिहास साक्षी है कि 1975 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के परिवारवाद के खिलाफ समाजवादी नेताओं ने झुकना नहीं बल्कि जेल में सड़ना कबूल किया। अब उनमें से ही कई नेता गांधी परिवार की वंदना को नियति मान गैर बीजेपी दलों को गोलबंद करने में लगे हैं। उस समय इन्हीं दलों ने लोकतंत्र में मर्यादा का हवाला देते हुए परिवार विशेष के हाथों में राजनीति के कैद होने का विरोध किया था। विरोध का मुद्दा था, राजनीति में सभी को समान अवसर मिलना चाहिए।
इस वादे के झांसे में आकर जनता ने 1977 में समाजवादियों के आगे सत्ता की थाली परोसकर रख दी। लेकिन कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति का विरोध करनेवाला हर समाजवादी बाद में परिवारवादी हो गया। राजनीति में वंशवाद के अवलंबदारों का तर्क है कि जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर,वकील का बेटा वकील, टीचर का बेटा टीचर बन सकता है, तो राजनेताओं पर ही वंशवादी होने का आरोप क्यों लगता है ?
वंशवाद के धुर विरोधी रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के अनुयायी लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं का आचरण इसका जीवंत जबाव हैं। दोनों समाजवादियों ने चैंपियन के अंदाज में लोकतांत्रिक राजनीति को बड़ी होशियारी से घर की खेती में तब्दील कर दिया।
लालू प्रसाद को चारा घोटाले में जेल जाने की नौबत आई तो 25 जुलाई 1997 को संघर्ष के सहयोगियों में से किसी को आगे बढ़ाने के बजाय विधायिका में अनुभवशून्य पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी। पत्नी के साथ साले साधू, सुभाष व प्रभूनाथ को सत्ता में प्रतिष्ठापित करवाया। वह चक्र पूरा हुआ तो बच्चों को विधायिका में जमाने और बेटों को उप मुख्यमत्री व मुख्यमंत्री बनाने के उपक्रम में लगे हैं। यह लोकतांत्रिक भारतीय राजनीति का विद्रूप प्रसंग है।
इसी
तरह
सामान्य
स्कूल
टीचर
मुलायम
सिंह
यादव
का
जब
राजनीति
में
उदयकाल
आया,तो
उन्होंने
कुनबे
के
हाथों
में
समूचे
प्रदेश
की
राजनीति
को
ही
गिरवी
रख
दी।
नौ
सगे
रिश्तेदार
सांसद
बने।
बाकी
दर्जन
भर
रिश्तेदार
पंचायत
से
लेकर
विधानसभा
में
मौजूद
रहे।
बिहार
के
मुख्यमंत्री
नीतीश
कुमार
निजी
तौर
पर
सार्वजनिक
जीवन
में
परिवारवाद
के
खिलाफ
हैं।
अपने
बेटे
और
परिजनों
को
हमेशा
राजनीति
से
दूर
रखा।
ऐसा
करते
हुए
खुद
को
स्व.
रामविलास
पासवान
से
बेहतर
बताते
रहे।
लेकिन
अब
पटलकर
संघर्ष
के
साथी
रहे
लालू
प्रसाद
से
दोस्ती
निभा
रहे
हैं।
उनके
बच्चों
का
राजनीतिक
भविष्य
संवारने
में
लगे
हैं।
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परिवार
के
हाथों
समाजवाद
को
गिरवी
रखने
वाले
नेता
सिर्फ
बिहार
और
उत्तर
प्रदेश
तक
ही
सीमित
नहीं।
बल्कि
जम्मू
कश्मीर
से
लेकर
कन्याकुमारी
और
सोमनाथ
से
कामाख्या
तक
कोई
राज्य
नहीं
जहां
परिवारवादी
नेताओ
के
हाथों
राजनीति
गिरवी
नहीं
पड़ी
है।
दुर्गा
पूजा
में
जम्मू
कश्मीर
के
चर्चित
दौरे
पर
रहे
गृहमंत्री
अमित
शाह
ने
बयान
दिया
है
कि
तीन
परिवारों
तक
सिमटी
राजनीति
ने
राज्य
के
युवाओं
से
राजनीतिक
अवसर
छीनने
का
अपराध
किया
है।
कमोबेश
यही
हालत
उन
सभी
प्रदेशों
का
है,
जहां
की
राजनीति
किसी
खास
परिवार
के
आभामंडल
में
फंसी
पड़ी
है।
मोदी काल में परेशान हैं परिवारवादी नेता
एक
सच
यह
भी
है
कि
इस
माहौल
से
परिवारवादी
नेता
परेशान
हैं।
2014
में
नरेन्द्र
मोदी
की
प्रचंड
जीत
के
साथ
ही
वशंवाद
की
राजनीति
मुश्किल
में
फंसी
है।
वंशवाद
की
राजनीति
को
नापसंद
करने
वाले
और
लोकतंत्र
का
मर्म
समझने
वालों
के
लिए
यह
मुस्कुराने
का
समय
है।
क्योंकि
ऐसा
मौका
बिरले
ही
आता
है
जब
सत्ता
प्रतिष्ठान
द्वारा
बार
बार
परिवारवाद
को
जड़
से
खत्म
करने
का
प्रण
लिया
जा
रहा
है।
सार्वजनिक
मंचों
से
जमकर
लताड़ा
जा
रहा
है।
जोरशोर
से
कहा
जा
रहा
है
कि
परिवारवाद
की
गुलामी
से
मुक्ति
चाहिए,
तब
ही
हम
लोकतंत्र
का
असली
मकसद
पा
सकते
हैं।
इसके
उलट
वे
सब
नेता
मोदी
काल
के
अस्त
होने
के
इंतजार
में
हैं
जिनमें
अपने
बाल
बच्चों
को
ही
राजनीति
में
आगे
रखने
की
अभिलाषा
है।
बाहर ही नहीं बीजेपी में भी वंंशवादी राजनीति का असर रहा है। राजनाथ सिंह बेटे पंकज सिंह के बाद नीरज सिंह को भी राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन मोदी के प्रबल संकल्प के कारण ऐसा हो नहीं पा रहा है। राजस्थान में पुत्र की सांसदी को बचाकर रखने की इच्छा ने वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ में रमन सिंह को नुकसान किया है।
अन्य राज्यों के बीजेपी क्षत्रप मोदी राज में इसलिए सहमे हुए हैं कि मौजूदा व्यवस्था में बालवृंदों को राजनीति में सेट करना मुश्किल है। लिहाजा सबको उस शुभ घड़ी का इंतजार है,जब राजनीति से ऐसा जटिल संकल्प लेने वाले नेता का दिन लद जायेगा।
वंशवादी राजनीति के लिए मुश्किल दौर
राजनीति में परिवारवादियों की मुश्किल दौर की ताजा मिसाल बालासाहेब के चहेते पुत्र उद्धव ठाकरे हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद से महाराष्ट्र में उनकी जमीनी हालत लगातार बिगड़ रही है। मराठा राजनीति के अगुआ शरद पवार तक को कुनबे की राजनीतिक सवारी करने में परेशानी झेलनी पड़ रही है। परिवार के खिलाफ लोग खड़े हुए हैं। बारामती का किला दरक रहा है। छगन भुजबल और नारायण राणे को भी कुलदीपकों को रोशन करने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित है।
महाराष्ट्र से इतर पूरब की बात करें तो वंशवाद को पुष्पित करने की वजह से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की धवल छवि पर बट्टा लगा है। झारखंड की राजनीति पर सोरेन परिवार का सिक्का आरंभ से जमा हुआ है। ओड़िशा में बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री होने का रिकार्ड बनाये बैठे है।
दक्षिण
भारत
के
द्वार
वाले
राज्य
तेलंगाना
के
मुख्यमंत्री
चंद्रशेखर
राव
यानी
केसीआर
राष्ट्रीय
राजनीति
में
स्थापित
होना
चाहते
हैं।
अगर
मुख्यमंत्री
की
कुर्सी
छोड़ने
की
बारी
आई
तो
उनके
आगे
विकल्प
सांसद
पुत्र
के
चंद्रशेखर
राव
या
बेटी
कविता
ही
होगें।
यह
साफ
है।
वर्ष
1982
में
कांग्रेस
के
परिवारवाद
के
खिलाफ़
चैतन्य
रथ
पर
सवार
होकर
आंध्र
प्रदेश
की
जनता
की
आंखों
में
अवतार
बन
जाने
वाले
एनटी
रामाराव
की
राजनीति
भी
लुढ़ककर
परिवार
के
पाले
में
गिर
गई।
उनके
दामाद
चंद्रबाबू
नायडू
वर्षों
तक
मुख्यमंत्री
की
कुर्सी
पर
जमे
रहे।
अन्य
परिजन
मंत्री,
विधायक,
सांसद
बनकर
राजनीति
में
बने
हुए
हैं।
नायडू
से
सत्ता
छीनने
वाले
आंध्र
प्रदेश
के
मुख्यमंत्री
जगन
मोहन
रेड्डी
को
पिता
की
विरासत
को
जनता
के
समर्थन
की
वजह
से
ही
कांग्रेस
अध्यक्ष
सोनिया
गांधी
को
चुनौती
देने
का
हौसला
मिला।
फिल्मी सितारों को बेइंतहा पूजने वाले तमिलनाडु में वंशवादी राजनीति का बोलबाला होना अचरज की बात नही है। पूर्व मुख्यमंत्री स्व. के. करुणानिधि के पुत्र एम के स्टालिन मुख्यमंत्री हैं। प्रिय पुत्र स्टालिन को उत्तराधिकार सौंपने में करुणानिधि को भारी मुसीबतों को सामना करना पड़ा था। कभी रिश्तेदार मुरासोली मारन तो कभी उनके अन्य बच्चे एमके अलागिरी औऱ कनीमोझी मुसीबत बने रहे।
कर्नाटक में क्या बीजेपी क्या कांग्रेस और क्या समाजवादी। सब के सब परिवारवाद की चाशनी में डूबे हुए हैं। बीजेपी के मुख्यमंत्री बसव राज बोम्मई जनता दल के शीर्ष नेता रहे एस आर बोम्मई के पुत्र ही हैं। परिवारवाद की राजनीति का चैंम्पियन हरियाणा है। पंजाब से अलग होने के बाद से राज्य की राजनीति तीन लाल यानी देवीलाल, बंसीलाल औऱ भजनलाल के इर्द गिर्द ही घूमती रही। हालांकि पंजाब में प्रकाश सिंह बादल उन तमाम परिवारवादी नेताओं के आदर्श हैं जो पक्ष और विपक्ष दोनों जगह अपने परिवार को सेट कर लेते हैं। इस तरह पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर राज्य में परिवारवादी राजनेताओं का बोलबाला दिखता है जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार बार चुनौती दे रहे हैं।
फिर भी, लोकतांत्रिक राजनीति में परिवारवाद का वैचारिक विरोध तो खूब हो रहा है लेकिन व्यवहार में सफल नहीं हो रहा। राजघराने से जुड़े होने भर से चुनाव में जीत की गारंटी मान ली जाती है। चुनाव में वंशवादी नेताओं की आसान जीत बताती है कि आम वोटर अब भी राजशाही वाली मानसिकता से बाहर नहीं निकल पायी है। इन वजहों से ही भारतीय राजनीति में नए पुराने राजघरानों का विशेष महत्व बना हुआ है। लेकिन नरेन्द्र मोदी की ओर से बार बार जिस तरह से वंशवादी राजनीति पर प्रहार हो रहा है उससे निश्चय ही सामान्य जनमानस में लोकतंत्र में राजनीतिक वंशवाद के प्रति आस्था कमजोर होगी। इसका सीधा लाभ लोकतंत्र को मिलेगा और हमारे लोकतांत्रिक मूल्य मजबूत होगें।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)