India China Relations: क्या पिघलने लगा है भारत-चीन संबंधों पर जमा ग्लेशियर?
India China Relations: भारत और चीन की सीमाओं पर सर्दी बढ़ने के दिन आ गए हैं। सियाचिन समेत सम्पूर्ण सीमा एस्किमो प्रदेश जैसी बर्फीली वादियों में बदलने की तैयारी में हैं। लेकिन वहां से हजारों किलोमीटर दूर इंडोनेशिया के खूबसूरत द्वीप बाली में लगता है कि चीन और भारत के रिश्तों के बीच जमी बर्फ के पिघलने की शुरूआत हो गई है। जी 20 के शिखर सम्मेलन के मौके पर आयोजित रात्रिभोज में जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाथ मिलाया है, उससे तो ऐसा ही लगता है।
तो क्या भारत गलवान से उपजी कड़वाहट को भूलकर आगे बढ़ने की सोचने लगा है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि सितंबर में उज्बेकिस्तान के समरकंद में हुई शंघाई सहयोग संगठन के देशों की बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग से प्रत्यक्ष बात तक करने से परहेज किया था। हालांकि तब भी चीन की ओर से उम्मीद जताई गई थी कि दोनों पड़ोसियों के शीर्ष नेतृत्व के बीच बातचीत हो सकती है।
शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में चीन से दूरी दिखाने के बाद बाली में उसकी ओर हाथ बढ़ाना अंतरराष्ट्रीय राजनय के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग घरेलू मोर्चे पर निर्द्वंद्व हो गए हैं। उन्होंने अपने विरोधी प्रधानमंत्री ली केकियांग को एक तरह से किनारे कर दिया है। इसके साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी का संविधान बदलते हुए आजीवन राष्ट्रपति बन बैठे हैं। उनके विरोधी सकते में हैं और कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए माना जा रहा है कि अब उनके लिए अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर खुलकर खेलने का माकूल अवसर है।
इसकी वजह यह है कि जब गलवान में चीन के सैनिक मारे गए थे तो चीन में भी माना जा रहा था कि शी जिनपिंग ने देश का ध्यान बंटाने के लिए भारत के साथ सीमा विवाद को हवा दी थी। जुलाई 2020 में तो खबर तक आई थी कि सीमा विवाद के मसले पर ली केकियांग के साथ शी की झड़प भी हुई थी। चीन के बुद्धिजीवियों का मानना है कि जिस तरह पाकिस्तान के राजनेता घरेलू राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत से विवाद और कश्मीर राग का तेज आलाप करने लगते हैं, शी जिनपिंग ने भी कुछ वैसा ही कदम उठाया था।
चीन कुछ वर्षों में तेजी से उभरी अर्थव्यवस्था वाला देश बना है। आज वह दुनिया की नंबर दो की अर्थव्यवस्था है। लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति ने अब उसके प्रति दुनिया की शंका को और बढ़ा दिया है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह उसने भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल में अपनी पहुंच और कर्ज बढ़ाकर इन देशों का दोहन किया है, कुछ वैसी ही स्थिति अफ्रीकी महाद्वीप के देशों के साथ भी रही है।
श्रीलंका तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मदद से दिवालिया होने से बच गया लेकिन अफ्रीका के कुछ देशों मोजांबिक आदि में तो चीन के खिलाफ खुलकर प्रदर्शन तक हो चुके हैं। चीन के खिलाफ पाकिस्तान में भी एक वर्ग गुस्से में हैं। लाहौर यूनिवर्सिटी में एक चीनी प्रोफेसर की कुछ महीने पहले हुई हत्या भी इसी उत्तेजना और घृणा की वजह रही।
चीन की विस्तारवादी नीतियों और कोरोना के दौरान उसकी संदेहास्पद भूमिका के चलते वैश्विक स्तर पर उसे सवालों का सामना करना पड़ा है। ऑस्ट्रेलिया आदि देशों ने तो उसके कई उत्पाद का आयात रोक दिया।
गलवान कांड के बाद भारत ने भी चीन के साथ आर्थिक रिश्तों में कड़ाई बरतनी शुरू की। उसके कई ऐप्प को जहां प्रतिबंधित कर दिया, वहीं कई उत्पादों के आयात के नियम कड़े कर दिए।
रही-सही कसर देश की राष्ट्रप्रेमी जनता ने पूरी कर दी। महामारी के दो साल बाद इस बार दीवाली खुलकर मनाई गई। लेकिन चीन में बनी लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां, बिजली की लड़ियां और झालरें समेत सजावट के तमाम सामान गायब रहे।
चीन के प्रति ऐसे वैश्विक रूख का असर उसकी विकास दर पर पड़ा है। जी-20 सम्मेलन के ठीक पहले जारी आंकड़ों के मुताबिक उसकी विकास दर में आधा प्रतिशत की कमी आयी है और अब वह साढ़े तीन से घटकर तीन प्रतिशत रहने वाली है।
यह ठीक है कि भारत को अभी कई और मोर्चे पर आगे बढ़ना है, लेकिन यह भी सच है कि स्वतंत्र विदेश नीति के चलते वह अपनी आर्थिक राह पर भी मजबूती से आगे बढ़ रहा है। जी-20 की बैठक से ठीक पहले अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अपना अनुमान जारी किया है। इसके मुताबिक, भारत की विकास दर 2022 में जहां सात प्रतिशत रहेगी, वहीं 2023 में उसके 4.8 प्रतिशत और 2024 में 6.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है।
जबकि इसी अवधि में दुनिया की ताकतवर आर्थिक शक्तियों की विकासदर महज 2.1 से लेकर 2.2 प्रतिशत तक ही रहने का अनुमान है। चीन की विकास दर इससे किंचित ज्यादा है। लेकिन वह भारत से कम ही आंकी गई है। भारत ने इस बीच अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड समझौता करके एक तरह से चीन पर दबाव बढ़ाने की दिशा में आगे कदम बढ़ाया है।
वैसे ताइवान और उत्तर कोरिया के मुद्दे पर अमेरिका और चीन के बीच तनातनी बनी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन को बढ़ावा देने के लिए भी चीन को चेता रहे हैं। भारत को दोनों की चेतावनियों और कूटनीति का भान तो है, इसके बावजूद बिना डरे हुए अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर चल रहा है।
यही वजह है कि जी 20 शिखर सम्मेलन की बैठक से पहले चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग को कहना पड़ा, "मजबूत संबंध बनाए रखना चीन और भारत और दोनों देशों के लोगों के मौलिक हित में है।" उन्होंने कहा कि बीजिंग को उम्मीद है कि दोनों पक्ष चीनी और भारतीय नेताओं के बीच बनी महत्वपूर्ण सामान्य समझ का पालन करेंगे और संबंधों के मजबूत और स्थिर विकास को बढ़ावा देंगे। हालांकि, चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने जी20 शिखर सम्मेलन के मौके पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बैठक की पुष्टि नहीं की और कहा, "मेरे पास साझा करने के लिए कुछ भी नहीं है।"
अंतरराष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति में रातोंरात कोई बदलाव नहीं होता। लेकिन अमेरिका और चीन की तनातनी के बीच भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को जी 20 में भी मान्यता मिलने लगी है। भारत ने सम्मेलन के प्रस्ताव में 'युद्ध का युग नहीं' संदेश शामिल करने का प्रस्ताव रखा था, जिसे स्वीकार कर लिया गया है।
इस बीच भारत को जी-20 संगठन की अध्यक्षता मिल गई है। भारत एक दिसंबर से आधिकारिक तौर पर जी-20 की अध्यक्षता ग्रहण करेगा। इस मौके पर पीएम मोदी का कहना कि जी-20 की अध्यक्षता हर भारतीय के लिए गर्व की बात है, सहज है। स्पष्ट है कि भारत की कूटनीति के सामने अगले कुछ महीनों में चीन को और नरम रूख अपनाना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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