यूपी में अध्यक्ष के लिए किस चेहरे पर दांव खेलेगी भाजपा?
उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में स्वतंत्र देव सिंह ने 19 जुलाई को अपने तीन साल का कार्यकाल पूरा कर लिया। संगठनात्मक तौर पर भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी का गठन प्रत्येक तीन साल पर होता है, लेकिन इस बार भाजपा तय समय में अपना नया अध्यक्ष नहीं तलाश सकी है। विधानसभा चुनाव हुए चार महीने गुजर चुके हैं तथा वर्तमान अध्यक्ष प्रदेश सरकार में मंत्री बन चुके हैं। यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से ही नये अध्यक्ष की तलाश शुरू हो गई थी, लेकिन यह तलाश अभी खत्म होती नजर नहीं आ रही है।
वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं और उत्तर प्रदेश गणितीय आंकड़ों के लिहाज से देश का सबसे प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण राज्य है। यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं। दिल्ली में अपनी सत्ता सुनिश्चित करने के लिए भाजपा यूपी को लेकर बहुत संवेदनशील रहती है। इसलिए अध्यक्ष पद के लिए अनुमान लगाया जा रहा है कि भाजपा ऐसे चेहरे की तलाश कर रही है, जिसके पास जनाधार भले ना हो, लेकिन वह प्रदेश के जातीय आधार वाले खांचे में एकदम फिट बैठता हो। शीर्ष नेतृत्व मानता है कि प्रदेश में जातीय गणित सेट करने वाला चेहरा मिल जाये तो चुनाव मोदी-योगी के नाम पर आसानी से जीता जा सकता है।
बीते चार महीने में प्रदेश अध्यक्ष के लिए कई नामों को लेकर अटकलें लगाई जा चुकी हैं। श्रीकांत शर्मा, डा. महेश शर्मा, सुब्रत पाठक, बीएल वर्मा, भूपेंद्र चौधरी, विजय बहादुर पाठक, डा. दिनेश शर्मा, डा. रामशंकर कठेरिया, लक्ष्मण आचार्य समेत कई नाम चर्चा में रहे हैं, लेकिन इसमें से किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जायेगा इसे निश्चित तौर कोई नहीं बता सकता। 2014 में मोदी-शाह दौर शुरू होने के बाद भाजपा नेतृत्व क्या फैसला लेगा, इसका अनुमान लगा पाना सियासी पंडितों के लिये मुश्किल हो चुका है। बहरहाल, माना जा रहा है भाजपा नेतृत्व अध्यक्ष पद के लिये ऐसे चेहरे की तलाश में है, जो नये वोट बैंक को पार्टी से जोड़ सके।
बीते दो दशक में भाजपा लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी का चेहरा किसी ब्राह्मण को बनाती आ रही है। 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले केसरीनाथ त्रिपाठी प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये तो 2009 के लोकसभा चुनाव में डा. रमापति राम त्रिपाठी के पास यह जिम्मेदारी थी। 2014 में जब भाजपा ने यूपी में जब अपना दल गठबंधन के साथ रिकार्ड 74 सीटें जीतीं तब प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर डा. लक्ष्मीकांत बाजपेयी आसीन थे। 2019 का लोकसभा चुनाव डा. महेंद्रनाथ पांडेय के नेतृत्व में लड़ा गया।
अटल सरकार के दौर में 2004 में हुए चुनाव में भाजपा ने यूपी में 22.2 फीसदी वोट शेयर के साथ 10 सीटें जीती थीं, वहीं मोदी के उदयकाल 2014 में भाजपा का वोट शेयर 42.6 फीसदी हो गया। भाजपा को 72 सीटों पर सफलता मिली। दूसरी तरफ 2019 के आम चुनाव में यूपी में भाजपा का वोट शेयर 50 फीसदी पहुंच गया, लेकिन सपा-बसपा गठबंधन के चलते उसकी सीटें घटकर 62 तक आ गईं।
अब भाजपा ने 2024 के चुनाव में अपने वोट शेयर को 51 फीसदी से ऊपर ले जाने का लक्ष्य रखा है। माना जा रहा है कि इस बार भी किसी ब्राह्मण चेहरे को ही संगठन की जिम्मेदारी सौंपी जायेगी, लेकिन इसे लेकर पार्टी दुविधा में नजर आ रही है। भाजपा का पूरा फोकस सवर्ण जातियों से हटकर पिछड़ा एवं दलित वर्ग की तरफ हो गया है।
समझा जा रहा है कि भाजपा इस बार अपने सफल कार्ड ब्राह्मण को अध्यक्ष बनाने की जगह किसी पिछड़े या दलित को पार्टी की कमान सौंपने की नई रणनीति पर काम कर रही है। एक चर्चा थी कि पिछड़े वर्ग के जाट वोटरों को जोड़ने तथा पश्चिमी यूपी में रालोद के प्रभाव को कम करने के लिये कैबिनेट मंत्री भूपेंद्र चौधरी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है, लेकिन जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति का प्रत्याशी बनाये जाने के बाद यह संभावना न्यून हो गई है। धनखड़ भी राजस्थान के किसान जाट परिवार से आते हैं। धनखड़ को प्रत्याशी बनाकर भाजपा ने राजस्थान चुनाव के साथ देशभर के जाटों को साधने की कोशिश की है।
सियासी जानकार मानते हैं कि यूपी में भाजपा ने अब तक एक भी दलित प्रदेश अध्यक्ष नहीं दिया है, इसलिये संभव है कि इस बार पुरानी रणनीति अपनाने की बजाय किसी दलित चेहरे पर दांव लगाकर नया समीकरण साधे। इस गणित के पीछे की बड़ी वजह यह है कि इस समय बहुजन समाज पार्टी का वोटर असमंजस की स्थिति में है।
बसपा और मायावती के निष्क्रिय हो जाने के बाद दलित वोटरों के पास राज्य में तीन विकल्प बचते हैं- भाजपा, कांग्रेस एवं सपा। दलित वोटर सपा के पास सहजता से चला जाये इसकी संभावना न्यूनतम है। इस परिस्थिति में उसके पास भाजपा और कांग्रेस का विकल्प बचता है। दलित कांग्रेस का स्वभाविक वोटर रहा है, लिहाजा उसे वहां जाने से परहेज नहीं है, लेकिन कांग्रेस अभी ऐसी स्थिति में नहीं है कि दलित उसकी तरफ मजबूती से देखे और वह दलित वोटरों को लुभा सके।
इसी मौके का फायदा उठाने के लिये भाजपा किसी दलित चेहरे को अपना अध्यक्ष बना सकती है। इसका बड़ा कारण यह है कि बीते विधानसभा चुनाव में दलितों खासकर जाटव वोटों का बड़ा हिस्सा बसपा से छिटककर भाजपा की झोली में गिरा है। दलितों के शिफ्ट होने से बसपा का वोट प्रतिशत 19 फीसदी से गिरकर बीते विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी तक पहुंच गया है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि 2014 के अपने फैसलों से राजनीतिक पंडितों को चौंकाने वाली भाजपा यूपी में भी सरप्राइज दे सकती है। देखना यह है कि भाजपा अपने कोर वोटर ब्राह्मणों को प्रदेश की कमान सौंपती है या फिर नये वोटर दलित को। फिलहाल इन्हीं दो जातियों में से किसी एक का अध्यक्ष होने की संभावना अधिक नजर आ रही है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)