कहाँ गये बीएसपी सुप्रीमो मायावती के वो 'उग्र' तेवर
भीमा-कोरेगांव की घटना और दलित समाज में चल रही उथल-पुथल के बीच बीएसपी सुप्रीमो की खामोशी के मायने क्या हैं?
बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती की गिनती देश में सबसे बड़े दलित नेता के रूप में होती है लेकिन महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में दलितों पर हुए हमले को लेकर उनकी चुप्पी कई सवाल खड़े करती है.
हालांकि मायावती ने इस हिंसा के लिए राज्य की बीजेपी सरकार को दोषी ठहराया है और एक बयान भी जारी किया है लेकिन जानकारों का कहना है कि इतनी बड़ी घटना पर उनसे सिर्फ़ इतनी प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी.
इस हिंसा पर जारी बयान में मायावती ने हिंसा के लिए बीजेपी और आरएसएस पर दोष मढ़ा और हिंसा न रोक पाने के लिए महाराष्ट्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया, लेकिन उनकी ये प्रतिक्रिया तब आई जब इस घटना की तमाम राजनीतिक पार्टियों के अलावा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी निंदा कर चुके थे.
यही नहीं, घटना के एक हफ़्ते से ज़्यादा बीतने के बावजूद मायावती न तो वहां गईं और न ही पीड़ितों को कोई राजनीतिक समर्थन देने जैसा उत्साह दिखाया, जबकि जानकारों के मुताबिक अभी भी उनकी पहचान देश के सबसे बड़े दलित नेता के तौर पर है.
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राजनीतिक फ़ायदा
हालांकि मायावती ने सहारनपुर हिंसा के दौरान भी वहां जाने की जहमत काफी देर बाद ही उठाई थी लेकिन उससे पहले उन्होंने इस मामले में राज्य सरकार को जमकर कोसा था और बाद में इसी मुद्दे पर उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता भी त्याग दी थी.
जानकारों का कहना है कि पुणे की इस घटना से मायावती और बीएसपी को कोई राजनीतिक फ़ायदा नहीं दिख रहा है इसलिए वो जानबूझकर उससे दूरी बनाए हुए हैं. हां, चूंकि हिंसा दलितों पर हुई है इसलिए बयान जारी करके उन्होंने औपचारिकता ज़रूर निभा ली है.
समाजशास्त्री और दलित राजनीति के जानकार बद्री नारायण कहते हैं, "मायावती की दलित राजनीति की भाषा बहुजन से सर्वजन की है जबकि भीमा कोरेगांव में जो कुछ भी हो रहा है उसमें दलित पैंथर की पुरानी भाषा का नया संस्करण दिख रहा है. ये एक आक्रामक दलित आइडेंटिटी की भाषा है और इस समय पेशवाई के विरोध पर टिकी हुई है."
बद्री नारायण का कहना है, "बीएसपी की भी पुरानी भाषा यही थी जिसे 1980 के दौर में हम देखते हैं लेकिन अब यूपी की राजनीति में उसका स्वरूप बदल गया है. इसलिए मायावती और बीएसपी उस आक्रामकता के साथ उसमें शामिल नहीं हो सकते, जैसा कि जिग्नेश मेवाणी जैसे लोग हैं."
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मायावती की आवाज़ कमज़ोर पड़ सकती है
बद्री नारायण कहते हैं, "बीएसपी उत्तर प्रदेश में जिस राजनीतिक ज़मीन पर अब चल रही है, उसे देखते हुए आने वाले दिनों में लगता भी नहीं है कि वो भीमा कोरेगांव की घटना पर आक्रामकता दिखाएगी. ऐसा करने पर उसे महाराष्ट्र में तो कोई राजनीतिक फ़ायदा मिलने वाला नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में नुक़सान का जोख़िम ज़्यादा है, और ऐसा वो करेंगी नहीं."
यही नहीं, जानकारों का ये भी कहना है कि कोरेगांव की घटना के बाद जिस तरह से जिग्नेश मेवाणी बतौर नेता उभरे हैं उसके आगे मायावती की आवाज़ कमज़ोर पड़ सकती है.
ऐसा इसलिए क्योंकि जिग्नेश जैसी आक्रामकता के साथ वो दलितों के प्रति अपना समर्थन तो दिखा सकती हैं लेकिन उस तीव्रता के साथ शायद 'ब्राह्मण विरोध' का हौसला न दिखा पाएं. दूसरे, इन नेताओं के साथ मिलकर मायावती शायद ही किसी मंच पर आएं.
वहीं राजनीतिक हलकों में ये भी चर्चा है कि मायावती ने ख़ुद कभी संघर्ष का रास्ता नहीं अपनाया है बल्कि उन्हें चीजें बनी-बनाई मिलती गईं, इसलिए ऐसे मुद्दों पर या तो वो देर में जगती हैं या फिर ख़ामोश ही रहती हैं.
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जब तक कांशीराम के साथ थीं
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान कहते हैं कि राजनीतिक फ़ायदा तो महाराष्ट्र में बीएसपी को तब भी नहीं मिला जब वो सफलता के शिखर पर थीं, इसलिए अब वो कोशिश भी नहीं कर रही हैं.
शरद प्रधान के मुताबिक़, "मायावती जब तक कांशीराम के साथ थीं तब तक तो उन्होंने संघर्ष किया लेकिन उसके बाद उन्होंने संघर्ष किया भी नहीं, ज़रूरत भी नहीं पड़ी. कांशीराम ने इतनी बड़ी पार्टी सौंप दी और एक बार मुख्यमंत्री बनवा दिया, दो बार मुलायम सिंह की ग़लतियों की वजह से मुख्यमंत्री बन गईं."
शरद प्रधान का कहना है कि बीएसपी के लिए अब बहुत कुछ बचा नहीं है और दलितों के नेता के तौर पर भी उनकी और उनकी पार्टी की जगह लेने वाले अब दिखने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी और उसके नेता चंद्रशेखर के साथ ही महाराष्ट्र में जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं को वो उदाहरण के तौर पर देखते हैं.
हालांकि बीएसपी के नेता ऐसा नहीं मानते कि उनकी पार्टी या उनकी नेता इस मामले में ख़ामोश हैं. एक नेता ने ये भी दावा किया कि इस घटना के ख़िलाफ़ पार्टी सड़क पर उतरने की तैयारी कर रही है, लेकिन कब, कहां और कैसे जैसे सवालों का उनके पास कोई जवाब नहीं था.
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