भारत में अफ्रीकी चीतों के आने से क्या होगा?
भारत सरकार अफ्रीका से चीते लाकर क्या हासिल करना चाहती है. आख़िर ये प्रोजेक्ट इतना अहम क्यों है?
"बग़ैर चीतों के मेरा शिकार पर निकलना नामुमकिन था. हालांकि मैं बाघों का शिकार ज़्यादा करता था, लेकिन मेरे चीते एक साथ दर्जनों हिरण दबोच लेते थे. वैसे, बिगड़ैल चीतों को मारना मेरा भी शौक़ है", ये लिखा था मुग़ल शासक जहांगीर ने अपनी आत्मकथा 'तुज़ूक-ए-जहांगीरी' में.
अपने पिता सम्राट अक़बर के चीतों के प्रति ख़ास लगाव के बारे में जहांगीर ने लिखा, "मेरे पिता चीतों की तादाद बढ़ाना चाहते थे और उनके पास 1,000 से ज़्यादा चीते थे. क्योंकि उनका जन्म रविवार के दिन हुआ था तो वे उस दिन न शिकार करते थे और न ही मांस खाते थे. मैंने भी रविवार और गुरुवार को जानवरों की बलि और शिकार पर पाबंदी लगाई थी और इन दिनों के अलावा मैं चीतों के साथ जंगलों में शिकार करता था".
सन 1623 के दौरान की इस किताब से पता चलता है मुग़ल शासक अपने सूबेदारों को इनाम के तौर पर चीते भेंट करते थे.
"एग्ज़ॉटिक एलियंस: द लायन एंड द चीता" नामक क़िताब के एक चैप्टर में प्राचीन भारत की विशेषज्ञ इतिहासकार प्रोफ़ेसर रोमिला थापर ने लिखा है, "चीते के भारतीय संस्कृति, परंपरा और राजघरानों से जुड़े रहने के इतिहास में दो राय नहीं है".
भारत के जंगलों में फिर घूमेंगे चीते
चीतों के बारे में आप ये बात इसलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि भारत ने 1950 के दशक में चीते को विलुप्त घोषित कर दिया था और देश में एक भी चीता नहीं बचा था.
लेकिन दुनिया में सबसे तेज़ दौड़ने वाला ये जानवर बहुत जल्द फिर से भारत के जंगलों में घूमेगा.
अफ़्रीका से एक लंबी यात्रा तय करके क़रीब 16 चीते भारत पहुंचने वाले हैं,जिन्हें मध्य प्रदेश के 1.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले कूनो नेशनल पार्क में छोड़ दिया जाएगा.
इस परियोजना से जुड़े वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के डीन यादवेंद्र देव झाला कहते हैं, "ये काफ़ी उत्साहित करने वाली बात है. लेकिन ये चुनौतीपूर्ण भी है. विलुप्त जानवरों को वापस लाने की कोशिश में ये भारत की एक बड़ी कामयाबी है."
भारत आने वाले चीतों को अभयारण्यों से ही लिया गया है जहां उनका प्रजनन उचित ढंग से कराया गया है. दक्षिण अफ्रीका में लगभग 50 ऐसे अभयारण्य हैं, जिनमें 500 वयस्क चीते हैं.
आधे से ज़्यादा चीते दक्षिण अफ्रीका,नामीबिया और बोत्सवाना में
दक्षिण अफ्रीका में चीतों का संरक्षण करने वाले विंसेंट वेन डेर मर्वे ने इस परियोजना में एक अहम भूमिका निभाई है.
विंसेंट बताते हैं कि इन चीतों को पकड़ने के लिए पशुचिकित्सकों ने हेलिकॉप्टर से डार्ट मारे हैं क्योंकि "कुछ चीते थोड़े ज़्यादा आक्रामक हैं."
इन चीतों में छह से ज़्यादा मादा चीते हैं जो अभी प्रजनन की उम्र में हैं.
मर्वे कहते हैं, "ये वो चीते हैं जो अपनी माँओं को छोड़ चुके हैं और खुद को ज़िंदा रखने में सक्षम हैं."
दुनिया भर में इस समय चीतों की संख्या लगभग 7,000 है, जिसमें से आधे से ज़्यादा चीते दक्षिण अफ़्रीका, नामीबिया और बोत्सवाना में मौजूद हैं.
भारत में पहले भी हो चुकी है चीता लाने की कोशिश
वैसे ये पहला मौका है जब एक इतने बड़े मांसाहारी जानवर को एक महाद्वीप से निकालकर दूसरे महाद्वीप के जंगलों में लाया जा रहा है.
बात भारत की हो तो ऐसा नहीं है कि पहले इस तरह की कोशिशें नहीं की गई थीं.
संरक्षणवादी और वाइल्डलाइफ जीवविज्ञानी रवि चेलम के मुताबिक़,"1970 के दशक में जब ईरान में शाह का शासन था, भारत ने वहां से चीते लाकर बसाने की कोशिश की थी. लेकिन ईरान में सत्ता बदलते ही सब ख़त्म हो गया. इसके बाद नामीबिया से ऐसी ही एक पहल 2009 में शुरू हुई थी जिसके तहत कूनो नेशनल पार्क जैसी तीन जगहों में चीतों को बसाने पर राय बनी थी".
एक बड़ी पहल 2010 में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने की थी जिसके एक दशक के बाद 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को चीतों को लाने की इजाज़त दे दी.
कोर्ट ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को चीतों के सुरक्षित तरीक़े से बसाए जाने के लिए एक बेहतर स्थान ढूढ़ने के निर्देश दिया था.
ज़ाहिर है, चीतों के आने की बात को लेकर ख़ासा उत्साह भी है और जिज्ञासा भी कि क्या शेर-चीतों के उनके अभयारण्यों से किसी दूसरे अभयारण्य में शिफ़्ट होने का इतिहास है.
सफ़र की चुनौती
बाघों पर लंबे समय से स्टडी करते रहे वाइल्ड लाइफ फ़िल्ममेकर अजय सूरी ने बताया, " बाघों को दूसरे अभयारण्यों से यहां लाकर बसाना संभव है लेकिन जब तक ये हो न जाए, इस बारे में ज़्यादा अनुमान नहीं लगा सकते. ''
उनका कहना है,''पिछले दो दशकों में सरिस्का और पन्ना टाइगर रिज़र्व में बाघ विलुप्त हो गए थे, फिर रणथंबौर और कान्हा के टाइगर रिजर्व से उन्हें यहां लाया गया. आज चारों जगह उनकी तादाद बढ़ रही है. पिछली शताब्दी में अमेरिका के येलोस्टोन नैशनल पार्क से ग्रे वुल्फ़ (भेड़िए) विलुप्त हो गए थे. एक बड़े री-लोकेशन कार्यक्रम के तहत उन्हें कनाडा से लाकर बसाया गया और वे दोबारा बस गए".
विशेषज्ञ कहते हैं कि जंगली चीतों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना काफ़ी चुनौतीपूर्ण होता है क्योंकि चीते इंसानों की नजदीकी और पिंजड़ों की वजह से तनाव में आ जाते हैं.
भारत आने वाले चीतों को एक लंबा सफर तय करना पड़ेगा. वह पहले एक कार्गो विमान में जोहान्सबर्ग से दिल्ली आएंगे.
इसके बाद वे सड़क मार्ग और हेलीकॉप्टर के ज़रिये मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में पहुंचेंगे, जो उनका नया ठिकाना होगा. इन चीतों को जिस दिन विमान में चढ़ाया जाएगा, उस दिन उन्हें बेहोशी का इंजेक्शन दिया जाएगा. इस विमान में चीतों के साथ-साथ वन्यजीव विशेषज्ञ और जानवरों के एक डॉक्टर भी होंगे.
पिंजड़ों में पहुंचने के बाद चीतों को एक एंटीडोट दिया जाएगा ताकि उन्हें जगाया जा सके. लेकिन इसके साथ ही उन्हें हल्की बेहोशी वाला इंजेक्शन भी दिया जाएगा ताकि सफर के दौरान वे शांत रहें.
भारत में बसने की चुनौती
भारत आने वाले चीतों के सामने कई चुनौतियां होंगी. लेकिन तेंदुआ एक बड़ी चुनौती है. तेंदुए, जिन्हें अंग्रेजी में लेपर्ड और कुछ जगहों पर गुलदार भी कहा जाता है, विशेषकर कूनो नेशनल पार्क में चीतों के बच्चों को मारकर उनकी आबादी सीमित कर सकते हैं.
भारत आने वाले चीतों को शेरों, तेंदुओं, लकड़बग्घों और जंगली कुत्तों का सामना करना पड़ेगा. कूनो में उनका सामना स्लोथ भालू, धारीदार लकड़बग्घे और भेड़ियों से होगा. भारत में उनके शिकार मुख्य रूप से हिरन प्रजाति के जानवर जैसे सांभर और बारहसिंघा आदि होंगे.
एक ज़माने में दुनिया के कई हिस्सों में पाए जाने वाले चीतों की बड़ी तादाद और उसके धीमे-धीमे कम होने के प्रमाण इतिहास में भी दर्ज हैं.
मशहूर इतिहासकार थियरे बुकवेट अपने शोध "हनटिंग विद चीतास" में लिखते हैं, "चीते के शिकार के वाक़ये और उसकी मौजूदगी के प्रमाण मध्यकालीन यूरोप के कहीं पहले से मिलते हैं. प्राचीन मिस्र के अभिलेखों से पता चलता है कि अफ़्रीका के दक्षिणी हिस्से से मंगाए गए चीतों को पालतू जानवर की तरह रखा जाता था. उधर छठी सदी के चीन में तांग राजवंश का शासन था जहां चीते शाही आन-बान से जोड़ कर देखे जाते थे".
चीतों के प्रजनन की समस्या
जानकारों के मुताबिक़ शेरों के परिवार में आने वाले सभी क़िस्मों में से चीता एक ऐसा जानवर है जिसका प्रजनन एक बड़ा मसला रहता है क्योंकि वे अपने पसंद के इलाक़ों में ही रहना चाहते हैं.
जाने-माने ट्रैवलर मार्को पोलो ने मध्य-एशिया के दौरे के दौरान इस बात पर लिखा था ,"13वीं सदी में कुबलई खान नाम का शासक विशालकाय चीतों का फ़ौज के साथ इस्तेमाल करता था लेकिन वे चीते दूसरे मौसम या इलाक़ों में प्रजनन नहीं कर पाते थे तो तादाद कम ही रहती थी".
भारत में चीतों की विलुप्ति की दो प्रमुख वजह बताई जाती है. पहली तो ये कि जानवरों के शिकार के लिये चीता को पालतू बनाया जाना बहुत आम था जिसका ज़िक्र हम कर चुके हैं.
दूसरी वजह ये थी कि कैद में रहने पर चीते प्रजनन नहीं करते.
ज़ाहिर है, ये चुनौती अफ़्रीका से लाए जाने वाले चीतों को लेकर भी रहेगी.
प्रीटोरिया यूनिवर्सिटी में वन्यजीव चिकित्सा विशेषज्ञ एड्रियन टॉर्डिफे कहते हैं,"हम जानवरों को उनके परिचित माहौल से निकाल रहे हैं और उन्हें नए माहौल में ढलने में वक़्त लगता है. ये भी सही है कि इस तरह दूसरी जगह ले जाए जाने के बाद चीतों के दूसरे मांसाहारी जानवरों की अपेक्षा ज़िंदा बचने की संभावनाएं कम होती हैं."
लेकिन प्रोफेसर डॉरडिफ़ मालावी का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि मलावी में भी चीते लाए गए थे और यहां 80 फीसदी वयस्क चीते एक साल बाद भी ज़िंदा हैं और उनकी आबादी अच्छी तरह फल-फूल रही है.
अवैध शिकार बड़ी चुनौती लेकिन चर्चा कम
एक और चुनौती है जो वैसे तो जगज़ाहिर है लेकिन उस पर बात काम होती है. वन्यजीवों के अवैध शिकार की. वर्ल्ड वाइल्ड फंड एवं लंदन की जियोलॉजिकल सोसाइटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत अभी भी वन्यजीवों के शिकार का एक बड़ा गढ़ बना हुआ है.
हाथी दांत और गैंडे के शिकार के अलावा बाघ और तेंदुए की खाल, उनकी हड्डी और शरीर के अन्य अंग अभी भी तस्करों को लुभाते हैं.
वाइल्डलाइफ़ फ़िल्ममेकर अजय सूरी ने चेताया, "इस योजना को अंजाम देना आसान नहीं क्योंकि सरिस्का टाइगर रिज़र्व में जब विलुप्त हुए बाघों को दोबारा लाया गया तो उनका पहला बैच अवैध शिकारियों के हाथ मारा गया. ''
सूरी कहते हैं, '' एक और बड़ी समस्या रहेगी जानवरों-मनुष्यों के बीच टकराव की क्योंकि आमने-सामने पड़ने वाली स्थिति में अक्सर जान जानवरों की जाती है क्योंकि वे गलती से ही या भूख मिटाने के लिए रिहायशी इलाक़ों में अक्सर भटक जाते हैं. आज भी देश में सैंकड़ों हाथियों, तेंदुओं और गैंडों की मौत इसी के चलते होती है".
भारत आने वाले चीतों को पुख़्ता सुरक्षा देने के अलावा संरक्षणवादी और वाइल्डलाइफ जीवविज्ञानी रवि चेलम को लगता है, "भारत में अब चीतों पर एकाएक ध्यान देना न सिर्फ़ बहुत खर्चीला साबित होगा बल्कि इससे शेरों और बाघों के बेहतर संरक्षण वाले प्रोजेक्ट्स से भी ध्यान बंट सकता है".
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