तालिबान ने भारत को दिया निवेश का न्योता, क्या है मंशा?
भारत ने अब तक पिछले साल अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ हुए तालिबान प्रशासन को मान्यता नहीं दी है. इसके बावजूद तालिबान प्रशासन चाहता है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में निवेश करे.
भारत और अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान प्रशासन के बीच संबंध अभी तक अपरिभाषित ही रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता हासिल कर लेने के 15 महीने बाद भी भारत ने तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं दी है.
ऐसे में तालिबान का ये कहना कि वो चाहता है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में निवेश करे और नई शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर की परियोजनाओं को शुरू करे थोड़ा चौंकाने वाला ज़रूर है.
दिलचस्प ये भी है कि अफ़ग़ानिस्तान से आ रही ख़बरों के मुताबिक तालिबान ने ये भी कहा है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान के कई प्रांतों में कम से कम 20 रुकी हुई परियोजनाओं को फिर से शुरू करेगा.
पिछले साल अगस्त महीने में हुए हिंसक सत्ता परिवर्तन के दो ही दिन बाद भारत ने क़ाबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया था और सभी अधिकारियों को वापस भारत बुला लिया था.
इस साल जून में भारत ने मानवीय सहायता के लिए दी जा रही चीज़ों का वितरण सुचारु रूप से करवाने के एक "तकनीकी मिशन" को काबुल तो भेजा लेकिन अभी तक अपने दूतावास को दोबारा खोलने पर कोई फैसला नहीं लिया है.
हाल ही में अफ़ग़ान शहरी विकास मंत्री हमदुल्ला नोमानी ने भारत के तकनीकी मिशन के प्रमुख भरत कुमार से एक मुलाक़ात के दौरान भारतीय निवेश और परियोजनाओं के मुद्दे पर बातचीत की.
नए भारतीय निवेश के अलावा तालिबान ये भी चाहता है कि भारत ने जो प्रोजेक्ट्स पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की सरकार के दौरान शुरू करने के बाद बीच में ही छोड़ दिया, था उन्हें भी दोबारा शुरू किया जाए. तालिबान ने आश्वासन दिया है कि अगर भारत अफ़ग़ानिस्तान में प्रोजेक्ट्स शुरू करता है तो भारतीयों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उसकी होगी
अधूरी परियोजनाओं को छोड़ कर लौटे लोग
तालिबान के इन बयानों पर भारत सरकार की तरफ से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है. बीबीसी ने भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से इस विषय पर उनका रुख़ जानने की कोशिश की. लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला.
ग़ौरतलब है कि भारतीय कंपनियां पिछले कई सालों से अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने और उनके रखरखाव में शामिल रही हैं.
पिछले साल अगस्त में जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा किया तो सुरक्षा कारणों से इन कंपनियों में काम कर रहे बहुत से लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुला लिया गया जिस वजह से कई परियोजनाओं का काम अधूरा रह गया था.
अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय निवेश
भारत अब तक क़रीब तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका है. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में जिन बड़े या महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स को बनाया है उनमें से कुछ ये हैं:
- हेरात प्रांत में 42 मेगावॉट का सलमा बांध
- 218 किलोमीटर लम्बा ज़ारांज-देलाराम हाईवे
- 90 मिलियन डॉलर की लागत से बनी क़ाबुल में अफ़ग़ान संसद
- स्टोर पैलेस का जीर्णोद्धार
- पुल-ए-खुमरी से काबुल तक 220 किलोवॉट डीसी ट्रांसमिशन लाइन
- इंदिरा गाँधी इंस्टीट्यूट फॉर चाइल्ड हेल्थ का पुनर्निर्माण
- क़ाबुल में शाटूत बांध का काम अधूरा
- बाला हिसार क़िले के जीर्णोद्धार का काम भी तालिबान के सत्ता में आने के बाद रुका
अतीत में भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान को शिक्षा और तकनीकी सहायता देता रहा है. अफ़ग़ानिस्तान के 34 प्रांतों में भारत ने 400 से ज़्यादा प्रोजेक्ट्स पर काम किया है.
अमर सिन्हा साल 2013 से 2016 के बीच अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके हैं.
वे कहते हैं, ''पिछले कुछ समय में अफ़ग़ानिस्तान में भारत की कोई बड़ी परियोजना विचाराधीन नहीं थी. उनके मुताबिक कुछ लघु विकासात्मक परियोजनाएं चल रही थीं, जिन्हें शुरू किए जाने की बात है.''
वो कहते हैं, "एक पानी की परियोजना का कार्यान्वयन काफ़ी क़रीब था. वो क़ाबुल नदी पर एक बाँध बनाने की बात थी, जिससे क़ाबुल शहर को पीने का पानी मिल जाए. उज़्बेकिस्तान से क़ाबुल तक जो बिजली आ रही थी उसे कंधार तक पहुँचाने की बात थी. एक भारतीय कंपनी ही उस प्रोजेक्ट को अंजाम दे रही थी."
सुरक्षा को लेकर चिंताएं
राकेश सूद साल 2005 से 2008 तक अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत के तौर पर काम कर चुके हैं. उनका मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति ऐसी है कि वहां पर अभी भी पूरी तरह से सुरक्षा व्यवस्था कायम नहीं हुई है.
वे कहते हैं, "ये ठीक है कि क़ाबुल में तालिबान की हुक़ूमत है. पर अभी भी आए दिन खबरें मिलती हैं कि क़ाबुल में ही बम धमाके होते रहते हैं. इससे एक चीज़ ज़ाहिर होती है कि तालिबान का पूरी तरह नियंत्रण नहीं है."
राकेश सूद कहते हैं, '' अफ़ग़ानिस्तान में 20 से ज़्यादा आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. इन संगठनों में लश्कर-ए-तैय्यबा, जैश-ए-मुहम्मद, अल क़ायदा इन द इंडियन सब-कॉन्टिनेंट, अल-क़ायदा ख़ुरासान, आइसिस, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, उज़्बेक और ताजिक उग्रवादी और चेचेन समूह शामिल हैं.''
वे कहते हैं, "तालिबान का केवल ये आश्वासन देना कि यहाँ से आपके ख़िलाफ़ कोई आतंकवादी हमला नहीं होगा, ये इस बात पर निर्भर होगा कि क्या ये लोग तालिबान की बात मानेंगे."
पूर्व राजदूत अमर सिन्हा कहते हैं, "तालिबान सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं या नहीं इस बारे में सरकार को सभी मुद्दों विचार करना पड़ेगा."
अमर सिन्हा के मुताबिक सुरक्षा तो तालिबान रूस को भी दे रहा था लेकिन पहला हमला रूस के दूतावास पर हुआ, जिसमें उनके दो अधिकारी भी मारे गए.
वो कहते हैं, "वो हमला इस्लामिक स्टेट ने कराया और इस्लामिक स्टेट काफ़ी सक्रिय हो गया है अफ़ग़ानिस्तान में. हाल ही में पाकिस्तान के राजदूत पर गोली चलाई गई. ये हमारी ज़िम्मेदारी है इसे बहुत ध्यान से और समझ बूझ से देखा जाए क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान सब कुछ नियंत्रण में नहीं है."
क्या करेगा भारत?
क़ाबुल में सत्ता पर काबिज़ होने के बाद से अंतरराष्ट्रीय समुदाय लगातार तालिबान से कहता रहा है कि वो एक इन्क्लूसिव या समावेशी सरकार बनाए.
पूर्व राजदूत राकेश सूद कहते हैं, "इस वक़्त तालिबान किन अफ़ग़ानों का प्रतिनिधित्व करता है? वो अफ़ग़ानों के सब तबक़ों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. जब तक ये नहीं होता तब तक सुरक्षा स्थिति अस्थिर ही रहेगी. ऐसे हालात में भारत को ये प्रोजेक्ट दोबारा शुरू करने पर अच्छी तरह से सोच-विचार करना चाहिए."
उनका कहना है, ''अभी भारत की जो टेक्निकल टीम अफ़ग़ानिस्तान में है, वो इसलिए भेजी गई है कि भारत जो अनाज और मेडिकल सप्लाई के रूप में मानवीय सहायता भेज रहा है उसका सही तरह से वितरण करवाया जा सके. ''
राकेश सूद के मुताबिक भारत के जो कुछ भी तालिबान के साथ ताल्लुक़ात हैं उनका इस्तेमाल करते हुए उसे तालिबान से मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकारों और इनक्लूसिव सरकार के मुद्दों पर बात करनी चाहिए.
वो कहते हैं, "इन्क्लूसिव का मतलब सिर्फ़ ये नहीं है उसमें ताजिक भी होने चाहिए, हज़ारा भी होने चाहिए या उज़्बेक भी होने चाहिए... इन्क्लूसिव का मतलब है कि सब दृष्टिकोण के लोग शामिल होने चाहिए. अगर आप कट्टरपंथी पश्तून या कट्टरपंथी ताजिक या कट्टरपंधी हज़ारा को ले लेंगे तो उससे वो इन्क्लूसिव नहीं बन जाएंगे. इन्क्लूसिव से मतलब है कि उसमें सब दृष्टिकोण के लोग शामिल होने चाहिए. तभी आप कह सकेंगे कि ये एक प्रतिनिधि अफ़ग़ान सरकार है."
राकेश सूद कहते हैं, "ये टीम सिर्फ एक सीमित काम के लिए वहां तैनात की गई है. प्रोजेक्ट्स शुरू करने के लिए तो पूरे दूतावास की ज़रुरत पड़ती है. मुझे नहीं लगता कि अभी सुरक्षा स्थिति वहां पर ऐसी है कि भारत उसमें कोई आगे का क़दम लेगा."
भारत को ज्यादा नुकसान हुआ
अमर सिन्हा का कहना है कि जब अफ़ग़ानिस्तान में विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त लोकतांत्रिक सरकार थी, उस वक़्त भी भारतीयों पर हमले होते ही थे.
वे कहते हैं, "भारत एक ग़ैर-लड़ाकू देश की हैसियत से वहां था लेकिन सबसे ज़्यादा खून अगर किसी देश का बहा है--जो कि सीधे तौर पर लड़ाई में शामिल नहीं था-वो भारतीयों का है. इसमें हमारे सैन्य अधिकारी, विकास कार्यों से जुड़े अधिकारी और राजनयिक शामिल थे. ऐसे कई तत्व जो भारतीयों या भारतीय हितों पर हमला करने के लिए इस्तेमाल किए गए थे वे दुर्भाग्य से आज तालिबान सरकार का हिस्सा हैं."
सिन्हा कहते हैं कि इस तरह की खबरें भी आ रही हैं कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैय्यबा के कैंप वहां फिर से सक्रिय हो गए हैं.
वो कहते हैं,"जब पाकिस्तान और रूस के दूतावासों पर हमले हो चुके हैं तो दूसरे दूतावासों पर भी हमले हो सकते हैं. ये हमले वो शक्तियां कर रहीं हैं जो तालिबान के ख़िलाफ़ हैं. तो भारत सरकार को इन सब चीज़ों की ध्यान से जांच करनी पड़ेगी और ये देखना होगा कि कितना विश्वास किया जा सकता है."
वो कहते हैं कि भारत को कोई भी क़दम सावधानी से उठाना होगा क्योंकि अगर कोई हादसा होता है तो भारत के रुख़ की काफी आलोचना भी हो सकती है.
मान्यता और वैधता की तलाश?
एक कूटनीतिक मसला ये भी है कि अगर आने वाले समय में भारत अफ़ग़ानिस्तान में अपने अधूरे प्रोजेक्ट्स को पूरा करने के लिए राज़ी हो जाता है या नए निवेश करने की योजना बनाता है तो क्या ये इस बात का संकेत होगा कि भारत ने तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता दे दी है. अमर सिन्हा कहते हैं कि तालिबान वैधता की तलाश में है.
राकेश सूद कहते हैं कि पाकिस्तान जैसे तालिबान के जो सबसे ज़्यादा हिमायती देश थे, मान्यता तो उन्होंने भी नहीं दी है तो भारत के मान्यता देने का सवाल अभी दूर है.
वो कहते हैं, "मान्यता देना एक क़ानूनी बात है. ये कहा जा सकता है कि भारत अगर अफ़ग़ानिस्तान को मानवीय सहायता दे रहा है तो क्या ये मान्यता नहीं है?"
उनके मुताबिक भारत अगर अफ़ग़ानिस्तान में कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू भी करता है तो वो कह सकता है कि उसके अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के साथ मतभेद हो सकते हैं पर अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के प्रति कोई अनबन या दुश्मनी नहीं है और भारत नहीं चाहता कि वहां के लोगों को तक़लीफ़ हो.
"तो अगर कल भारत कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम करता भी है तो वो कह सकता कि ये प्रोजेक्ट्स वहां के लोगों के भले के लिए हैं."
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