मोहम्मद ज़ुबैरः विदेशी चंदे का मामला और नियमों पर उठ रहे सवाल
फ़ैक्ट चेक वेबसाइट ऑल्ट न्यूज़ के पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर को पहले चार साल पुराने एक ट्वीट के मामले में गिरफ़्तार किया गया. बाद में उनके ख़िलाफ़ विदेशी फ़ंडिंग से जुड़ी धाराओं में भी मामला दर्ज किया गया.
ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी और उन पर दर्ज मुक़दमे सुर्खियों में है.
पहले उन्हें चार साल पुराने एक ट्वीट के मामले में गिरफ्तार किया गया. बाद में उनके ख़िलाफ़ आपराधिक साज़िश, सबूत मिटाने और विदेशी फ़ंडिंग नियमों के उल्लंघन का मामला भी दर्ज़ किया गया.
उनके एक दूसरे ट्वीट के कारण सीतापुर में भी मुकदमा दर्ज हो गया. उत्तर प्रदेश पुलिस 2 जुलाई को उन्हें सीतापुर ले गई. हालांकि शाम तक उन्हें फिर से दिल्ली पुलिस को सौंप दिया गया.
ज़ुबैर को सबसे पहले दिल्ली पुलिस ने सोमवार को मार्च 2018 में पोस्ट किए गए एक ट्वीट में धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में गिरफ़्तार किया था.
नए मामलों को पहले दर्ज़ हुए मामले में जोड़ा गया है. ज़ुबैर के ख़िलाफ़ नए आरोप धारा 120B और 201 और विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफ़सीआरए) की धारा 35 के तहत दर्ज किए गए हैं.
प्रावदा मीडिया फ़ाउंडेशन एक ग़ैर-लाभकारी संस्था है जिसके तहत ऑल्ट-न्यूज़ काम करता है.
दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि प्रावदा मीडिया फ़ाउंडेशन को पाकिस्तान, सीरिया, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और क़तर सहित विभिन्न देशों से धन प्राप्त हुआ है. ज़ुबैर, प्रतीक सिन्हा और निर्झरी सिन्हा के साथ प्रावदा मीडिया फ़ाउंडेशन में निदेशक हैं.
विदेशी चंदे का आरोप और सवाल
केपीएस मल्होत्रा, पुलिस उपायुक्त, इंटेलिजेंस फ्यूजन एंड स्ट्रेटेजिक ऑपरेशन ने मीडिया से बात करते हुए कहा, "रेज़रपे पेमेंट गेटवे से प्राप्त उत्तर के विश्लेषण से, हमने पाया कि विभिन्न लेनदेन हुए हैं, जिसमें मोबाइल फ़ोन नंबर या तो भारत से बाहर का है या आईपी एड्रेस विदेशों का है."
विदेशी फ़डिंग मानदंडों के उल्लंघन के आरोपों पर, ज़ुबैर की वकील वृंदा ग्रोवर ने तर्क दिया कि बाहर से आया पैसा ऑल्ट न्यूज़ को दिया गया था, न कि ज़ुबैर को.
वृंदा ग्रोवर की दलील है कि कंपनी अधिनियम के तहत रजिस्टर होने वाली फैक्ट चेक वेबसाइट विदेशी धन प्राप्त कर सकती है.
ज़ुबैर की ओर से पेश हुए उनके एक और वकील सौतिक बनर्जी ने मीडिया से कहा, "हम स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि ज़ुबैर को कोई फंड नहीं भेजा गया है, और ऑल्ट न्यूज़ को प्राप्त सभी दान भारतीय नागरिकों से प्राप्त हुए हैं. कोई विदेशी दान नहीं है."
विदेशी चंदा आखिर है क्या?
वकीलों का कहना है कि विदेश में रहने वाले भारतीय नागरिकों द्वारा भेजे गए दान को विदेशी दान नहीं कहा जा सकता है. विदेश में निवास कर रहे सभी भारतीय किसी भी संगठन को निर्दिष्ट सीमा के तहत योगदान दे सकते हैं.
वकीलों के मुताबिक़ एफ़सीआरए की धारा 35 में विदेशों से दान की कई तरह से व्याख्या हो सकती है और ये कि दिल्ली पुलिस ने ज़ुबैर के मामले में अपराध को निर्दिष्ट नहीं किया है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के सीनियर वकील शाश्वत आनंद के अनुसार एफ़सीआरए की धारा लगाने के कारण अदालत के पास ज़ुबैर को ज़मानत नहीं देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था.
उन्होंने बताया, "अगर केवल उनके ख़िलाफ़ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का इलज़ाम रहता तो उन्हें आसानी से ज़मानत मिल जाती. अब पुलिस ने एफ़सीआरए की धारा 35 जोड़ दिया है. धारा 35 ये है कि किसी की मदद करने, विदेशी पैसा स्वीकार करने या किसी सियासी पार्टी की मदद करने या जो भी इस धारा के अंतर्गत ग़ैर क़ानूनी है तो उस स्थिति में व्यक्ति को पांच साल की जेल की सज़ा हो सकती है."
"पिछले हफ्ते ज़ुबैर की ज़मानत याचिका पर अदालत में सुनवाई हुई तो यही बात सामने आयी कि एफ़सीआरए की धारा 35 के तहत इनके ख़िलाफ़ जांच होनी है जिस ग्राउंड पर उनकी ज़मानत रद्द कर दी गयी."
ज़मानत की याचिका ख़ारिज करने का ग्राउंड तो सही है लेकिन शाश्वत आनंद कहते हैं, "एफ़सीआरए की धारा प्रावदा मीडिया फ़ाउंडेशन पर लगाई गयी है, ज़ुबैर के ख़िलाफ़ नहीं. वो इसके डायरेक्टर ज़रूर हैं लेकिन एफ़सीआरए की धारा उनके ख़िलाफ़ नहीं है."
राजनीतिक पार्टियों पर ये नियम क्यों लागू नहीं?
गृहमंत्रालय की वेबसाइट पर साफ़ कहा गया है कि एफ़सीआरए उन सभी व्यक्तियों, संस्थाओं और ग़ैर सरकारी संगठनों को नियंत्रित करता है जो विदेशी चंदा/पैसा प्राप्त करना चाहते हैं.
एफ़सीआरए के तहत खुद को पंजीकृत करना अनिवार्य है जो पांच साल की अवधि के लिए वैध रहता है जिसे फिर से पांच साल के लिए बढ़ाया जा सकता है.
गृहमंत्रालय के मुताबिक़ एफ़सीआरए क़ानून 2010 में लाया गया था लेकिन मोदी सरकार ने आठ सालों में इसमें कई बार परिवर्तन किए गए हैं.
पहला परिवर्तन 12 अप्रैल, 2012 को, दूसरा 14 दिसंबर, 2015, तीसरा 7 मार्च, 2019, चौथा 16 सितंबर, 2019, पांचवां 10 नवंबर 2020, छठा 11 जनवरी 2021 को और आख़िरी संशोधन 1 जुलाई 2022 को किया गया.
ग़ैर-सरकारी संस्थाएं और मानवाधिकार समूह पिछले कुछ सालों से केंद्रीय सरकार पर एफ़सीआरए के दुरुपयोग का इलज़ाम लगाते आ रहे हैं.
ग़ैर सरकारी संस्था एलायंस डिफेंडिंग फ़्रीडम, इंडिया की डायरेक्टर तहमीना अरोड़ा कहती हैं, "एफ़सीआरए के तहत दान और डोनेशन कहाँ से आया और कैसे इसे ख़र्च किया गया सरकार को ये बताना एनजीओ की ज़िम्मेदारी तो है लेकिन राजनीतिक पार्टियां और वाणिज्यिक कंपनियां बिना अपनी आय का स्रोत बताए काम करती हैं."
2018 में लोकसभा ने बिना चर्चा के ही एक विधेयक पारित कर दिया था, जिसमें राजनीतिक दलों द्वारा 1976 तक प्राप्त विदेशी धन की जांच से छूट दी गई थी.
इन संगठनों पर लगी रोक
दिसंबर 2021 में उस समय हंगामा हुआ जब मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी के लिए एफ़सीआरए का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया गया था. ये चैरिटी 900 से अधिक ईसाई संगठनों में से एक था जिसे सरकार ने एफ़सीआरए की सूची से हटाया था.
इस साल एक जनवरी तक गृह मंत्रालय द्वारा कुल मिलाकर लगभग 6,000 संगठनों को सूची से हटा दिया गया है. मंत्रालय के अनुसार 1 जनवरी, 2022 तक भारत में एफ़सीआरए के तहत फ़िलहाल 16,829 संगठन ही पंजीकृत हैं.
जिन 6,000 संगठनों को पंजीकृत संगठनों की सूची से हटा दिया गया है, उनमें ऑक्सफैम इंडिया, कॉमन कॉज, जामिया मिलिया इस्लामिया, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, कोलकाता स्थित सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट और इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर भी शामिल हैं.
कहा गया कि इन संस्थाओं में से अधिकतर ने लाइसेंस के रिन्यूअल के लिए आवेदन नहीं दिया था, जो विदेशी धन प्राप्त करने के लिए अनिवार्य था. जबकि 179 संगठनों के लाइसेंस उनके दस्तावेज़ों की जांच के बाद अधिनियम के कथित उल्लंघन में रद्द कर दिए गए थे.
क्या विदेशी चंदा कानून का दुरुपयोग हो रहा है?
कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि इस क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है और इसका इस्तेमाल सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ को दबाने के लिए हो रहा है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील शाश्वत आनंद कहते हैं, "एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ क्या हुआ, इंदिरा जयसिंह की संस्था लॉयर्स कलेक्टिव के साथ क्या हुआ? और संस्थाओं के साथ भी ये हुआ. बाद में क्या होता है, वो अलग बात है. मगर ये प्रोसेस ही सज़ा है."
पत्रकार ज़ुबैर की मामले पर बात करते हुए शाश्वत आनंद का कहना है कि अगर केस करना था तो प्रावदा पर करना चाहिए था ज़ुबैर पर नहीं.
वे मिसाल के तौर पर कहते हैं, "अगर जुर्म कोई कंपनी या संस्था या मल्टीनेशनल कंपनी कर रही है तो आप उनके प्रोमोटर्स या फाउंडर पर मुक़दमा नहीं कर सकते हैं."
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)