प्रयाग को क्यों कहा जाता है तीर्थराज
नई दिल्ली। प्रयाग से विश्व के सभी तीर्थ उत्पन्न हुए है, अन्य तीर्थो से प्रयाग की उत्पत्ति नहीं हैं, यही कारण है कि प्रयाग को तीर्थराज कहते है। अब प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर मिलता है श्री पद्यपुराण के पातालखण्ड के सातवें अध्याय में। श्लोक सात में लिखा है कि जिस प्रकार जगत की उत्पत्ति ब्रह्याण्ड से होती है, जगत से ब्रह्याण्ड उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार प्रयाग से अन्य तीर्थोे की उत्पत्ति है।
प्रयाग में इसलिए पहुंचते हैं तीर्थ यात्री
प्रयाग विश्व का प्राचीनतम् और सर्वोतम तीर्थस्थल है। श्वेत-नदियों का संगम प्रयाग सदियों से देवताओं, ऋषियों, मुनियों, साधु-सन्तों और गृहस्थों की तपस्थली रहा है। गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम स्थल पर प्रति वर्ष माघ मेले का आयोजन होता है। यह मेला सूर्य के मकर राशि में प्रवृष्टि होने पर लगता है। यहां पर भारत के विभिन्न भागों से तीर्थ-यात्री कल्पवास और स्नान हेतु एकत्रित होते है। कामद और मोक्षद दो प्रकार के तीर्थ होते हैं। जो तीर्थ कामनाओं की पूर्ति करने वाले होते है, उन्हें कामद तीर्थ कहते है। जो तीर्थ मोक्ष दिलाते है, उन्हें मोक्षद तीर्थ कहते है। कामनाओं से मुक्ति द्वारा मोक्ष ही प्राप्त होता है। कामनाओं की पूर्ति चाहने वाले को मोक्ष नही मिलता क्योंकि उनकी इच्छा भोग की ओर रहती है।
प्रयाग तीर्थ में ये है खास
प्रयाग ही एक ऐसा तीर्थ है, जो कामद भी और मोक्षद भी है। विश्व के सारे तीर्थ इसके अधीन है। इसीलिए प्रयाग तीर्थराज है। स्वर्ग, मत्र्य और पाताल लोकों में कुल साढ़े तीस करोड़ तीर्थ है। इन सभी तीर्थो का राजा प्रयाग है जो मुक्ति और भुक्ति दोनो देता है। प्रयाग तीर्थ की सेवा देवता, मुनि, दैत्य आदि सभी करते है और प्रत्येक माघ मास में जब सूर्य मकरस्थ होते है तो प्रयाग में विश्व के समस्त तीर्थ और देव, दनुज, किन्नर, नाग, गन्धर्व एकत्रित होकर आदर पूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते है- देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहि सकल त्रिवेनी।।
कहां होता है पापकर्मों का नाश
अन्य स्थलों पर हुए पापकर्मों का नाश पुण्य क्षेत्रों का दर्शन करने से होता है। पुण्य क्षेत्र में हुये पापों का शमन कुम्भकोण तीर्थ में होता है। कुम्भकोण में हुय पापों का नाश वाराणसी में होता है। वाराणसी में हुये पापों का नाश प्रयाग में होता है। प्रयाग में हुये पापों का शमन यमुना में, यमुना में हुए पापों का शमन सरस्वती में, सरस्वती में हुए पापों का नाश गंगा में, गंगा में हुए पापों का शमन त्रिवेणी स्नान से होता है। त्रिवेणी में हुए पापों का नाश प्रयाग में मृत्यु होने से होता है। ऐसी मान्यता का विस्तृत वर्णन श्री प्रयाग माहात्म्य शताध्यायी के तीसरे अध्याय में श्लोक 08 से लेकर 13वें श्लोक तक मिलता है।
प्रयाग के कंठभाग में तीर्थ समूह का निवास
प्रयाग के कंठभाग में तीर्थ समूह का निवास है। दान समूह इसके चरण पर लोटते है और व्रत समूह इसके दक्षिण बाहुमूल में है। इसी प्रयाग के त्रिवेणी संगम के समतल स्थल पर एक बार ब्रह्याजी ने समस्त देवताओं और ऋषि-मुनियों के समक्ष तुला पर तीर्थों की गुरूता का माप किया था। सर्वप्रथम सप्तपुरियों को परस्पर तौला गया तो सभी एक-दूसरे के बराबर निकली। आयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, काॅची, जगन्नाथपुरी और उज्जैन ये सातों पुरिया मोक्षदायी होने के कारण तुला पर परस्पर बराबर तौल की हुई। तदन्तर ब्रह्याजी ने सातों पुरियों को तुला के एक पलड़े पर रखा और सातों कुल पर्वतों को दूसरी ओर रखा किन्तु सप्तपरियों का पलड़ा भारी रहा। फिर सातों समुद्रों, सातों द्वापों और नवखंण्डो को बारी-बारी से पलड़े पर रखा गया किन्तु सप्तपरियों का पलड़ा भारी रहा। इस चमत्कार से ब्रह्याजी, देवगण और ऋषिगण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। तब ब्रह्याजी ने शेषनाग से इस विस्मयकारी घटना का कारण पूछा-शेषनाग ने कहा कि इस सप्तपुरियों को और अन्य सभी कुल-पर्वतों, द्वीपों, समुद्रों, तीर्थो को एक पलड़े पर रख कर दूसरे पलड़े पर प्रयाग तीर्थ को रखिये।
प्रयाग से उत्पन्न होते हैं सभी तीर्थ
ब्रह्याजी के ऐसा करने पर तुला के दोनो पलड़े बराबर हो गये। प्रयाग विराट पुरूष का मस्तक है। देवतागण इस विराट पुरूष के अवयव है, सातों पुरियाॅ शरीर की सप्तधातु हैं, नदियां नाड़ाी हैं, मेघ शिर के बाल है और पर्वतगण हडडी है। जिस प्रकार से ब्रह्याण्ड से जगत उत्पन्न होता है उसी प्रकार प्रयाग से सभी तीर्थ उत्पन्न होते है। इसीलिए प्रयाग तीर्थराज है। यही यहां के धर्मसंगम का महत्व है। यही कारण है कि प्रयाग में भी प्रयाग के वटवृक्ष का, जो विराट पुरूष का शाश्वत निवास स्थल है। जहां त्रिवेणी है, नासिका के दोनों छिद्रों से इड़ा पिंगला और सुषुम्ना नाडियां है। इड़ा का स्वभाव शीतल है जो गंगा नदी है। पिंगला का स्वभाव उष्ण है, जो यमुना नदी है और गंगा- यमुना के मध्य में जो संगम है उसका स्वभाव शीतोष्ण है वही सुषुम्ना नाड़ी है। इसी कारण संगम स्थल श्री वैष्णवी माधव का क्षेत्र कहा जाता है। बायीं नासिका में जो छिद्र है वह इड़ा का, दाहिनी में पिंगला का है और जब दोनों छिद्रों से स्वर चलता हो तब सुषुम्ना नाड़ी चलती है। प्रयाग में गंगा बायें भाग से आती है और यमुना दाहिने भाग से और दोनों का संगम पूर्व-दक्षिण {आग्नेय कोण} में है। योग की दृष्टि से संगम का मूल इड़ा-पिंगला नाड़ियों के मूल को प्रत्यक्ष करना अर्थात मुक्ति प्राप्त करना। यहीं से बालमुकुन्द माधव पुनः सृष्टि की रचना करते है।
मिलता है भक्ति रूपी फल
प्रयाग क्षेत्र का विस्तार पांच कोस में है। इसके षट कोण हैं। प्रयाग वास सब यज्ञों से श्रेष्ठ कहा गया है। प्रयाग को षटकूल क्षेत्र भी कहते है। गंगा के दो किनारे, यमुना के दो किनारे और संगम के दो किनारा सब मिलाकर प्रयाग में छह तट होते है। इसीलिए इसे षटकूल क्षेत्र कहते है। प्रयाग वेदी स्वरूप है जो तीन प्रकार की है, अन्तर्वेदी, मध्यवेदी और बहिर्वेदी। इन तीन वेदियों के बीच निवास करने वालों के लिए प्रयाग क्षेत्र कल्पलता के समान फलदायी है। ज्ञानी-अज्ञानी को यहां समान फल मिलता है। यहां ज्ञान और भक्ति की अविरल धारा बहती है और ब्रह्यज्ञान का प्रकाश होता रहता है। यहां एक रात्रि भी निवास करने वाले को भक्ति रूपी फल मिलता है। इसकी महत्ता को सर्वप्रथम ब्रह्या ने समझा और यहां दस अश्वमेघ यज्ञ किये। उसी स्मृति में प्रयाग अनन्त फल देने वाला दशाश्वमेघ घाट है। गंगा के दशाश्वमेघ घाट पर स्नान करने वाले वर्ष पर्यन्त स्नान करते है। प्रयाग विष्णु क्षेत्र है, किन्तु इसे विष्णु प्रजापति क्षेत्र भी कहते है। ब्रह्या के दस अश्वमेघ यज्ञों से प्रसन्न होकर माधव ने अपने क्षेत्र के साथ ब्रह्या का नाम भी जोड़ दिया था।
इसलिए वाराणसी विश्वेश का निवास
ब्रह्या के यज्ञ को सफल करके माधव वट वृक्ष की ओर चले तो वहां उन्होने शिव को तांडव नृत्य करते देखा। शिव नृत्य करते समय माधव-माधव रट रहे थे। शिव को अपने प्रेम में निमग्न देख कर माधव ने वट के समीप ही उन्हें स्थान दिया जो शूलटंकेश्वर के नाम से विख्यात है। श्री माधव ने अपने पास-वास स्थान देने के बाद शिव को वरूणा और अस्सी नदियों के संगम पर निवास करने के लिए कहा, तभी से वाराणसी विश्वेश का निवास स्थल है। जब शिव को श्री माधव स्थान निर्देश करके अन्र्धान हुए तब शूल से गम्भीर नाद हुआ था। इसी शूल के टंकार होने कारण शिव का नाम शूलटंकेश्वर पड़ा। प्रयाग में यज्ञादि कर्मो, दान-व्रत-उपवास से पूर्व जन्म और इस जन्म में अर्जित होने वाले पाप कर्मो से मुक्ति मिलती है और इस प्रकार प्रयाग में मुक्ति और भुक्ति दोनों प्राप्त होती है।