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बाल ठाकरे की वह आखिरी दशहरा रैली जिसमें बोया गया शिवसेना की बर्बादी का बीज

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वह 2011 का दशहरा था। कुछ समय से बीमार चल रहे बाल ठाकरे के बारे में निश्चित नहीं था कि वो मुंबई के शिवाजी मैदान में उस दिन शिवसैनिकों को संबोधित करने आ पायेंगे या नहीं। लेकिन शाम को जैसे ही मैदान में फ्लड लाइटें जलीं बाल ठाकरे मैदान में उपस्थित हो गये। उनके साथ उद्धव ठाकरे और उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे भी थे।

vijayadashami 2022 Last Dussehra Rally of Bal Thackeray shiv sena

बाल ठाकरे के अपने राजनीतिक जीवन की वह आखिरी दशहरा रैली थी। यही वह मौका था जब महाराष्ट्र से आये हजारों शिवसैनिकों से बाल ठाकरे ने आखिरी बार संवाद किया था। इस आखिरी दशहरा रैली की सबसे खास बात यह थी कि इसी रैली में उन्होंने आधिकारिक रूप से अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

उनके साथ आये आदित्य ठाकरे को उन्होंने एक तलवार भेंट की और आदित्य ने मंच पर पहले तलवार लहराई फिर बाल ठाकरे के कदमों में जाकर आशीर्वाद लिया। इस तरह अपने जीवन के आखिरी सार्वजनिक कार्यक्रम में बाल ठाकरे ने आदित्य ठाकरे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

इसके बाद जब शिवसैनिकों को संबोधित किया तो अपने निर्णय को उन्होंने सही ठहराया। वो एक कार्टूनिस्ट थे, और राजनीतिज्ञ भी। उन्हें इस बात का बखूबी अंदाज था उनके इस निर्णय को शिवसैनिक आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए व्यंग भरे लहजे में उन्होंने कहा था कि जरूरी नहीं कि बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी बाल ठाकरे जैसा दिखे। नयी पीढी आयेगी तो नये तरीके से काम करेगी। वही शिवसेना को नयी ऊंचाई पर ले जाएगी।

जब बाल ठाकरे ये बात शिवसैनिकों को समझा रहे थे तब वो बखूबी समझ रहे थे कि शिवसैनिकों के मन में उनका अगला उत्तराधिकारी राज ठाकरे है। बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे न केवल देखने में बल्कि कार्यशैली में भी बाल ठाकरे जैसे ही थे। पहली बार 1995 में शिवसेना जब महाराष्ट्र की सत्ता में आयी तो सत्ता से बाहर सत्ता का रिमोट बाल ठाकरे या फिर उनके भतीजे राज ठाकरे के ही हाथ में रहता था। उस समय उद्धव घर और ऑफिस की चारदीवारी में सिमटे रहने वाले एक प्रबंधक से अधिक नहीं थे।

कांग्रेस का परिवारवाद गलत मेरा परिवारवाद सही

बाल ठाकरे ने अपनी इस आखिरी दशहरा रैली में कांग्रेस के परिवारवाद से अपने परिवारवाद को अलग तरह से परिभाषित करने का भी प्रयास किया लेकिन नियति में तो कुछ और ही लिखा था। बाल ठाकरे का यह उत्तराधिकार वाला निर्णय शिवसेना से कम ठाकरे परिवार की राजनीति से ज्यादा प्रभावित था। अपने दो बेटों जयदेव ठाकरे और बिन्दूमाधव ठाकरे से दूर हो चुके बाल ठाकरे के लिए बुढापे में पुत्रमोह जगा तो सामने सिर्फ उद्धव और उनका बेटा आदित्य ही नजर आये। बिन्दूमाधव का 1996 में ही निधन हो चुका था जबकि जयदेव ठाकरे मातोश्री से निर्वासित जीवन जी रहे थे।

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बाल ठाकरे कांग्रेस के जिस वंशवाद के खिलाफ राजनीति करते रहे, अपनी बारी आयी तो उससे बच नहीं पाये। शिवसेना में भविष्य के बाल ठाकरे के तौर पर दिखनेवाले आनंद दिघे की भी असमय मौत हो चुकी थी और राज ठाकरे भी परिवार से अलग हो चुके थे। अब उनके पास सिर्फ एक विकल्प बचा था जिस पर शिवसेना के भविष्य का भार लाद देना था। परंतु ध्यान रखिए कि इस आखिरी दशहरा रैली में बाल ठाकरे ने उद्धव को नहीं बल्कि आदित्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

उद्धव-आदित्य का नाकाम नेतृत्व

इसके बाद कुछ समय तक आदित्य ठाकरे की विद्यार्थी सेना के जरिए राजनीतिक परवरिश भी हुई लेकिन नतीजा वही आया जो राहुल गांधी का रहा है। शिवसेना कोई चापलूसों की पार्टी तो थी नहीं जो नेतृत्व के नाम पर ठाकरे परिवार से किसी को भी स्वीकार कर ले। बाल ठाकरे ने शिवसैनिकों को उस तरह से तैयार भी नहीं किया था। शिवसैनिकों को संभवत: बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी भी बाल ठाकरे जैसा ही चाहिए था जिसे देने में स्वयं बाल ठाकरे ही नाकाम हो गये।

इस नाकामी की कीमत आज दस साल बाद शिवसेना तिल तिल चुका रही है। उद्धव हों या आदित्य इनमें प्रबंधन की क्षमता तो हो सकती है लेकिन नेतृत्व की क्षमता न के बराबर है। उद्धव ठाकरे तो पूरी तरह से अनिच्छुक राजनीतिज्ञ हैं। राजनीतिक नेतृत्व से अधिक उनका जोर संगठन प्रबंधन पर रहता है। इसीलिए बाल ठाकरे के बाद ठाकरे परिवार संभवत: इतना असहाय हो गया कि 'मातोश्री' के सलाहकार ठाकरे परिवार को कठपुतली की तरह नचाने लगे। इसी कठपुतली कल्चर के कारण उद्धव ठाकरे को 2019 में एक ऐसे गठबंधन का मुख्यमंत्री बना दिया गया जिसने शिवसेना की रही सही गरिमा को भी नष्ट कर दिया।

मातोश्री से बड़ा हो गया मुख्यमंत्री निवास

बाल ठाकरे ने राजनीति भले चाहे जैसी की हो लेकिन परिवार आर्थिक रूप से सामान्य ही रहा। उन्होंने शिवसेना का ऐसा ढांचा विकसित किया था जिसमें वो खुद एक ईकाई भर थे, संचालक नहीं। ऐसे में बाल ठाकरे के जाने के बाद संभवत: ठाकरे परिवार के लिए निजी संपन्नता भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया था जिसे प्राप्त करना था। वरना क्या जरूरत थी कि उद्धव ठाकरे मातोश्री छोड़कर मुख्यमंत्री निवास रहने के लिए जाते? किसी शिवसैनिक के मन में जो गरिमा और हनक 'मातोश्री' की बाल ठाकरे बना गये थे, वह मुख्यमंत्री निवास से भला कैसे संवरती?

इसके बाद जो हुआ और हो रहा है उसका समय साक्षी है। आनंद दिघे के ही एक शिष्य एकनाथ शिंदे ने वो कर दिया जो स्वयं आनंद दिघे ने नहीं किया। उसने शिवसेना को तोड़ दिया। असली नकली शिवसेना की जिरह के बीच अब मुंबई और ठाणे में दो दो दशहरा रैलियां हो रही है। वह बाल ठाकरे जिनके नाम से कांग्रेस की सरकारों में भी दशहरे के दिन दादर का शिवाजी मैदान बुक रहता था, उनके ही उत्तराधिकारी को हाईकोर्ट जाकर मैदान बुक कराना पड़ रहा है।

शिवसेना के अधिकांश विधायक और सांसद ठाकरे परिवार के उस उत्तराधिकारी पर भरोसा ही नहीं कर रहे जिसे 2011 की आखिरी दशहरा रैली में स्वयं बाल ठाकरे ने घोषित किया था।

वह चंपा सिंह थापा भी एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना में चला गया जिसने 30 सालों तक साये की तरह शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की सेवा की थी। उस आखिरी दशहरा रैली में भी चंपा सिंह थापा उनके साथ ही था जब बाल ठाकरे ने आदित्य ठाकरे को भविष्य का नेतृत्व घोषित किया था। लेकिन बाल ठाकरे के कहने के बाद भी आज उसने उद्धव आदित्य की जोड़ी को बाल ठाकरे की विरासत मानने से मना कर दिया है।

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों को ये लग सकता है शिवसेना की ये दुर्दशा बाल ठाकरे के न रहने के कारण हो रही है। लेकिन यह सच नहीं है। सच तो ये है कि शिवसेना की वर्तमान दुर्दशा का बीज स्वयं बाल ठाकरे ही बो कर गये थे।

उसी शिवाजी पार्क की आखिरी दशहरा रैली में जिसमें उन्होंने अपनी तीसरी पीढी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। बाल ठाकरे अगर व्यक्तिगत परिवार मोह की बजाय शिवसेना रूपी परिवार की चिंता करते आज शिवसेना और ठाकरे परिवार के साथ वह न हो रहा होता, जो हो रहा है।

यह भी पढ़ें: Dussehra rally Shivaji Park: शिवसेना के लिए शिवाजी पार्क की दशहरा रैली क्यों महत्वपूर्ण है ?

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
vijayadashami 2022 Last Dussehra Rally of Bal Thackeray shiv sena
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