
Delhi MCD Election Results: बीजेपी पर भारी पड़ा केजरीवाल का राजनीतिक कोलाज

Delhi MCD Election Results: 2017 के नगर निगम चुनावों की तुलना में देखें तो भारतीय जनता पार्टी की हार बड़ी है, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव नतीजों की नजर में देखें तो आम आदमी पार्टी की जीत भी बड़ी नहीं है। फिर भी यह सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि अपने उभार के बाद केजरीवाल तकरीबन हर चुनाव में दिल्ली की जनता का भरोसा जीत लेते हैं? लोकसभा चुनाव जरूर इसके अपवाद हैं, जिनमें अब तक दोनों बार केजरीवाल को मुंह की खानी पड़ी है।
2013 में केजरीवाल के उभार के बाद लोकसभा के दो चुनाव हुए हैं। दोनों ही चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी पूरी ताकत झोंकी, इसका फायदा भाजपा को मिला भी। लेकिन कुछ महीनों बाद जैसे ही विधानसभा चुनाव आए, दिल्ली भाजपा में वैसा उत्साह नजर नहीं आया। जिनसे कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन की उम्मीद रहती है, विधानसभा चुनावों की रणनीति के मसले पर वे पल्ला झाड़ते दिखे। जबकि अमित शाह ने खुद प्रचार का मोर्चा संभाल रखा था। इसका असर इतना ही हुआ कि 2015 की 67 विधानसभा सीटों के मुकाबले आम आदमी पार्टी की पांच सीटें कम हो गईं।
दरअसल दिल्ली में भाजपा को संभालने वाली जो ताकतें हैं, उनके मानस अब भी दिल्ली की पुरानी जनसांख्यिकी पर केंद्रित है। आजादी के बाद दिल्ली की जनसंख्या सिर्फ छह लाख थी। तब दिल्ली का दायरा परकोटे के अंदर के शहर से कुछ ही बड़ा था। बंटवारे के बाद दिल्ली में पश्चिमी पंजाब के शरणार्थियों की आवक बढ़ी। इस वजह से पिछली सदी के अस्सी के दशक तक पंजाबी, बनिया और शरणार्थी समुदाय की दिल्ली की जनसंख्या में प्रभावी उपस्थिति थी।
तब दिल्ली देहात के जाट और गूजर समुदाय के लोगों का भाजपा में प्रभाव कम था या यूं कह सकते हैं कि भाजपा की पहुंच भी इन समुदायों तक कम थी। लिहाजा जाट और गूजर समुदाय के ज्यादातर लोग तब कांग्रेस या समाजवादी विचारधारा के दलों मसलन जनता दल आदि के समर्थक थे। इस जनसांख्यिकी का असर ही कहा जाएगा कि तब दिल्ली भाजपा पर पंजाबी, बनिया और शरणार्थी समुदाय के नेताओं का बोलबाला था। ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में यह दर्द दिल्ली भाजपा में सक्रिय जाट और गूजर समुदाय के नेता भी जाहिर करते रहे हैं।
लेकिन दिल्ली की जनसांख्यिकी अब बदल चुकी है। अब दिल्ली की जनसंख्या करीब डेढ़ करोड़ तक पहुंच गई है। अब दिल्ली में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड मूल के लोगों की संख्या बढ़ी है। अपने-अपने मूल राज्यों में इस समूह के लोग या उनके मूल परिवार वाले ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी के ही समर्थक हैं। लेकिन यही लोग दिल्ली में केजरीवाल के साथ नजर आते हैं।
इसकी मोटी वजह यह है कि पुरानी जनसांख्यिकी से प्रभावित दिल्ली भाजपा का नेतृत्व अभी तक पूरी तरह नई जनसांख्यिकी के मुताबिक राजनीति करने और कार्यकर्ता बनाने का मानस नहीं बना पाया है। नई जनसांख्यिकी के मुताबिक नेता उभारने की हिचक भी भाजपा के दिल्ली नेतृत्व में दिखती है।
यह ठीक है कि दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष खांटी बिहार मूल के मनोज तिवारी को बनाया गया, लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी सहज स्वीकार्यता भाजपा के हलकों में भी नहीं बन पाई। आदेश गुप्ता भले ही वणिक समुदाय से आते हैं, लेकिन उनकी नाभिनाल उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जुड़ी है। कह नहीं सकते कि भाजपा के अंदरूनी समुदाय में उन्हें कितना स्वीकार किया गया है।
केजरीवाल ने शुरू से अपनी राजनीति में नई जनसांख्यिकी आधारित नीति को बढ़ावा देने की कोशिश की है। उन्होंने हर बार उत्तराखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश मूल के कार्यकर्ताओं पर ज्यादा भरोसा जताया है। यह ठीक है कि उनका भी स्वभाव केंद्रीयकृत व्यवस्था को बढ़ावा देने वाला है। यह छुपी हुई बात नहीं है कि आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के अलावा किसी की थोड़ी बहुत चलती है तो वे मनीष सिसोदिया ही है।
लेकिन यह भी सच है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के प्रवासी समुदायों को मिलाकर ऐसा सियासी कोलाज बनाया है, जिसकी धमक अब तक विधानसभा चुनावों तक ही दिखती थी, लेकिन अब नगर निगम के नतीजों में भी दिखी है। केजरीवाल की पार्टी भले ही केंद्रीकृत व्यवस्था की पोषक है, लेकिन उसने अपने कार्यकर्ताओं में यह संदेश देने की जरूर कोशिश की है कि वह सत्ता में दिल्ली में प्रभावी हर समुदाय के लोगों को भागीदारी देने वाली है। इसका ही असर है कि भाजपा की तमाम रणनीतियों पर केजरीवाल का कोलाज हावी हुआ है।
नई राजनीति करने आए केजरीवाल को जब भी दावा ठोकना होता है, हर बार लिखकर रखने की हिदायत देते हैं। इस बार भी उन्होंने रिपोर्टरों से कहा था कि लिख कर रख लो, भाजपा बीस से ज्यादा सीटें नहीं जीतने जा रही। लेकिन भाजपा इस बार इससे पांच गुना से भी ज्यादा सीटें जीत गई है। इसका मतलब यह भी है कि दिल्ली के लोग पार्टी के स्तर पर भाजपा को लेकर ज्यादा गुस्से में नहीं हैं, बल्कि उनका गुस्सा स्थानीय स्तर पर चुनावी मैदान में खड़े भाजपा के उम्मीदवारों पर था।
दक्षिण दिल्ली के मेयर रहे भाजपा उम्मीदवार को लेकर स्थानीय स्तर पर भाजपा कार्यकर्ता ही विरोध में नारा लगा रहे थे। यहां यह बताना बेमानी है कि मेयर रहे वे सज्जन इस बार के चुनाव में तीसरे स्थान पर जा पहुंचे हैं। भाजपा के ज्यादातर उम्मीदवार अपनी अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के कारण हारे हैं। पार्टी के स्तर पर भाजपा के लिए दिल्ली के लोगों में रोष नहीं है। यह भाजपा के लिए सुकून की बात हो सकती है। हालांकि यह भी सच है कि अगर भाजपा ने केजरीवाल की तरह आज की आबादी के हिसाब से सियासी कोलाज बनाया होता तो उसकी हार शायद नहीं होती।
दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों ने केजरीवाल को भी संकेत दिए हैं। जेल में बंद उसके मंत्री सत्येंद्र जैन और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी को एक भी वार्ड पर जीत नहीं मिली है। इसी तरह उसके एक और मंत्री गोपाल राय की विधानसभा सीट के अधीन आने वाले चार वार्डों में से दो पर भाजपा तो एक पर कांग्रेस और एक पर आम आदमी पार्टी जीती है। साफ है कि इन नतीजों ने आम आदमी पार्टी को भी चेतावनी दी है।
केंद्र शासित दिल्ली होने के बावजूद यहां के नगर निगम को केंद्र से मिलने वाला फंड भी दिल्ली सरकार के जरिए ही आता है। जानकार जानते हैं कि केजरीवाल सरकार ने नगर निगम को मिलने वाली रकम कभी सही वक्त पर नहीं दी। इसके चलते निगम में अराजकता रही। इसका भी खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है। लेकिन अब केजरीवाल ऐसा बहाना नहीं कर पाएंगे।
उन्होंने दिल्ली में स्थित कूड़े के पहाड़ों को हटाने का मुद्दा बनाया था। अब उन्हें इन पहाड़ों को हटाना होगा, अब वे बहाना भी नहीं बना सकेंगे। दिल्ली में बसों के बेड़े को भी सुधारना होगा। अब वे केंद्र और नगर निगम पर ठीकरा नहीं फोड़ पाएंगे।
नगर निगम में मजबूत विपक्ष बनकर उभरी भाजपा को विपक्षी राजनीति बखूबी करनी आती है, लिहाजा वह मौका नहीं छोड़ेगी। अगर नगर निगम में केजरीवाल नाकाम हुए तो आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए उन्हें टक्कर देना आसान होगा।
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