स्त्री विरोधी वामपंथ: कविता कृष्णन और के के शैलजा के बहाने कुछ सवाल
भारत में वामपंथ एक ऐसा विचार है, जिसके अंध अनुयायियों का यह दावा होता है कि उसी के कारण स्त्रियों को स्वतंत्रता मिली है, उसी के कारण स्त्रियों के मुख पर मुस्कान है, उसी के कारण आज महिलाएं लिख पढ़ पा रही हैं, उसी के कारण महिलाएं साहित्य रच पा रही हैं। यदि संक्षेप में कहा जाए तो उनका यह मानना है कि जो कुछ भी आज कथित रूप से भारत की महिलाएं कर रही हैं, उनमें केवल और केवल वामपंथ का हाथ है। हिन्दू या कहें भारतीय अवधारणाओं को धारण करने वाली समस्त महिलाएं उनके कारण ही जैसे सांस ले पा रही हैं, ऐसा उनका अहंकार है।
परन्तु अभी हाल ही में दो ऐसे मामले आए, जिनमें उनकी इस कथनी और करनी में अंतर साफ़ दिखाई दिया। यह मामला था कविता कृष्णन का, जिसमें कविता कृष्णन ने कम्युमिस्ट पार्टी की नीतियों की आलोचना की और कुछ मुद्दों पर अपने विचार रखे तो वह पार्टी का हिस्सा नहीं रहीं। ऐसा नहीं कि केवल वह पार्टी का हिस्सा नहीं रहीं, दरअसल अपनी ही पार्टी के कॉमरेड समर्थकों द्वारा उनकी जबर्दस्त ट्रोलिंग भी बहुत हुई।
कविता कृष्णन ने प्रश्न उठाए थे कि उनकी अपनी पार्टी अर्थात सीपीआई (माले) रूस और चीन के खिलाफ क्यों नहीं बोलती है? कॉमरेडों की एक बात बहुत ही मजेदार है, और यही बात हिन्दी साहित्य में भी कथित सत्ता (भाजपा) विरोधी लेखक और लेखिकाएँ करते हैं, और वह यह कि "हम तो अभी मोदी से लड़ रहे हैं, हम तो अभी फासीवाद से लड़ रहे हैं, ऐसे में फोकस उधर ही रहे!" अर्थात उनके लिए अपने आप में झाँकने से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि अभी कुछ न बोलो, नहीं तो मोदी को लाभ हो जाएगा।
यही हाल कहीं न कहीं कथित प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकारों का रहा है कि वह उन मुद्दों पर चुप रहना पसंद करते हैं, जो मुद्दे कहीं न कहीं उनके तय किए गए एजेंडे से परे होते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे उनके इस कदम से राष्ट्रवादियों और हिंदुत्व को लाभ हो जाएगा, और उन्होंने जो इतने वर्षों तक छवि बनाई है, वह खराब हो जाएगी।
अभी तक यही होता आया था कि ये वही महिलाएं थीं जो स्मृति ईरानी पर भद्दे मजाकों पर हंसती थीं, कथित रूप से दक्षिणपंथी लड़कियों पर होने वाले वामपंथी प्रहारों पर मजे लेती थीं। यहाँ तक कि जब कंगना का बँगला तोडा गया था, तो भी वह कंगना के साथ खड़े न होकर बँगला तोड़ने वालों के साथ खड़ी हुई थीं। परन्तु क्या किसी ने यह कल्पना भी की होगी कि यही महिलाएं उस महिला के साथ होने वाली ट्रोलिंग के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाएंगी जो कल तक वामदल की नेता थी? यह चुप्पी हैरान करती है!
कम्युनिस्ट पार्टी की नेता के शैलजा के साथ जो अन्याय हुआ, उसके विषय में भी यह सभी महिलाएं मौन हैं। के शैलजा केरल की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री हैं। वह जब तक स्वास्थ्य मंत्री थीं, जब कोरोना अपने चरम पर था और केरल के स्वास्थ्य मॉडल का शोर था। यह बार-बार कहा जा रहा था कि केरल के स्वास्थ्य मॉडल से पूरे भारत को प्रेरणा लेनी चाहिए। यद्यपि यह भी सत्य है कि इन आंकड़ों पर भी तमाम तरह के विवाद हुए थे, परन्तु यह भी बात सत्य है कि यह शोर तो हुआ ही था, और यह शोर जब रेमन मैग्ससे पुरस्कार की शक्ल में के के शैलजा के लिए आया तो उनकी पार्टी ने नियमों का हवाला देकर कहा कि "वह यह सम्मान नहीं ले सकती हैं।"
मीडिया में यह भी कहा गया कि चूंकि कोरोना का बेहतर प्रबंधन किसी के व्यक्तिगत प्रयासों से नहीं हुआ था, यह तो प्रदेश सरकार का सम्मिलित प्रयास था, तो ऐसे में किसी व्यक्ति को कैसे यह सम्मान दिया जा सकता है? कम्युनिस्ट पार्टी ने यह भी कहा कि मैग्ससे ने तो स्वयं वामपंथियों पर अत्याचार किए थे तो उनके नाम पर दिया जाने वाला पुरस्कार स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
इस घटनाक्रम से कहीं न कहीं यही प्रतीत होता है कि के के शैलजा को यह सम्मान इसीलिए नहीं लेने दिया गया क्योंकि महिला विरोधी सीपीएम यह स्वीकार ही नहीं कर पाया कि यह सम्मान उनकी उस महिला के नेतृत्व में किए गए कार्य को मिल रहा था जिसे उन्होंने दोबारा मंत्री पद नहीं दिया। वह भी तब जब कि शैलजा रिकॉर्ड मतों से जीतकर आई थीं। इसमें कहीं न कहीं वह असुरक्षा बोध था, जो मुख्यमंत्री एवं पुरुष कॉमरेडों के भीतर जन्म ले रहा था, क्योंकि के के शैलजा संभवतया मुख्यमंत्री पद की एक बड़ी दावेदार के रूप में उभर रही थीं। परन्तु महिला विरोधी वामदल कभी भी यह स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि एक महिला उनका नेतृत्व करे।
कविता कृष्णन की जो ट्रोलिंग हुई, उस पर हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य और उसी विचारों वाली फेमिनिस्ट लेखिकाएं भी एकदम मौन हैं। कठुआ काण्ड से लेकर हाथरस काण्ड तक से शोर मचाने वाली यह लेखिकाएँ अभी तक केवल तभी मौन रहा करती थीं, जब तक आरोपी वर्ग विशेष या दल विशेष का होता था और पीड़िता न्यूट्रल हुआ करती थी। इनमें अभी झारखंड में घटे अंकिता हत्याकांड तक को देखा जा सकता है। इनका वैचारिक क्रांतिकारी रूप तभी दिखाई देता है जब उसमें हिंदुत्व को किसी भी प्रकार से दोषी ठहराया जा सके।
महिलाओं के आरक्षण का समर्थन करने वाली सीपीएम में महिला नेता उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं, जिसमें वृंदा करात और सुभाषिनी अली ही पोलित ब्यूरो में सदस्य हैं। पहले के के शैलजा को मैगसेसे सम्मान लेने से इंकार करवाना और फिर कविता कृष्णन के साथ ट्रोलिंग करना, यह दोनों उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि आखिर कम्युनिस्ट पार्टियों में महिलाओं की स्थिति क्या है। हालांकि महिला विरोधी सोच अभी दिखी हो, ऐसा नहीं है। केरल में चर्च में जो ननों के साथ होता है, उसमें भी पार्टी कुछ बोलती हो, ऐसा नहीं देखा गया है। इतना ही नहीं केरल से ही लव जिहाद जैसा शब्द प्रचलित हुआ था, परन्तु महिलाओं को लेकर वह गंभीर नहीं हैं, क्योंकि वहां पर कट्टर इस्लामिक विचारधारा संलग्न है।
यह
लोग
अपने
ही
नेताओं
के
साथ
खड़ा
होने
में
हिचकते
हैं,
बल्कि
महिला
नेता
ही
अपनी
महिलाओं
के
लिए
खड़ी
नहीं
होती
हैं।
इसका
एक
उदाहरण
देखिए।
वर्ष
2018
में
डेमोक्रेटिक
यूथ
फाउंडेशन
ऑफ
इंडिया
(डीएफवाईआई)
की
एक
नेता
ने
केरल
के
विधायक
पीके
ससी
पर
यौन
शोषण
का
आरोप
लगाया
था।
उस
समय
उसके
नेताओं
ने
ही
उस
पर
अपनी
शिकायत
वापस
लेने
का
दबाव
बनाया
गया
था।
केरल
राज्य
महिला
आयोग
की
प्रमुख
एमसी
जोसेफन
ने
पीके
ससी
के
पक्ष
में
आकर
यह
तक
कह
गयी
थीं
कि
गलती
सभी
से
हो
जाती
है।
ऐसे
एक
नहीं
कई
मामले
देखे
गए
हैं,
जब
वामदलों
की
महिला
नेताओं
को
अपने
ही
नेताओं
द्वारा
पक्षपात,
भेदभाव,
ट्रोलिंग
एवं
महिला
विरोधी
रवैये
का
सामना
करना
पड़ा
है।
परन्तु
दुर्भाग्य
है
कि
उनका
साथ
देने
के
लिए
वह
भी
महिलाएं
सामने
नहीं
आती
हैं,
जो
कथित
फेमिनिज्म
का
दम
भरती
रहती
हैं।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)