कोरोना:जब इंसानियत भूल रहे थे लोग, तब भी मदद को आगे बढ़े हाथ
नई दिल्ली, मई 27। रात का 2:00 बजे का समय था जब सामने वाले पड़ोसियों के यहां से जोर जोर से आवाज आने लगी चीकू भाई चीकू भाई जल्दी आओ , यह पुकार किसी और के लिए नहीं थी बल्कि मेरे बेटे सिद्धांत के लिए थे जो कि मेडिकल का स्टूडेंट है , इन आवाजों को सुनकर मैं भी भागा क्योंकि मेरी पत्नी ने मुझे जोर जोर से हिला कर बोला देखो कोई परेशानी हो गई है । हम पहुंचे तो पता चला सामने वाले जो अमृत लाल जी हैं उनका ऑक्सीजन का स्तर गिरता ही जा रहा है और अब वह लेवल केवल 60% हो गया था
जैसा कि इस समय अनुमन होता है आदमी पहला प्रश्न किसी को बीमार देखकर यही पूछता है क्या करोना तो नहीं हुआ है और उत्तर भी ज्यादातर इसी तरह का मिलता है करोना ........नहीं हुआ क्योंकि उन्हें लगता है अगर हमने करोना बता दिया तो इंसानियत के बढ़े हुए हाथ पीछे चले जाएंगे , लोग उनके प्रति , हमदर्दी से ज्यादा अपने बचाव की सुध में इंसानियत को भूल जाएंगे और भेदभाव करने लग जाएं इसलिए उनके दोनों पुत्र एक साथ बोल पड़े , नहीं- नहीं , पिताजी को करोना नहीं हुआ है बस उनको बुखार था और सुबह से सांस लेने में दिक्कत आ रही थी . और कुछ नहीं ........... कहते हैं , ना अगर कोई झूठ जब सामने वाले को भी पता होता है कि यह झूठ है तब झूठ, झूठ नहीं होता बल्कि समय की मजबूरी होता है , यहां भी कुछ ऐसा ही था.....हां, अमृत लाल जी के मुंह से अभी भी कराहने की आवाज सुनाई दे रही थी.............., शायद यह बता रही थी कि सांसों को ऑक्सीजन ना दी गई तो धीरे-धीरे वह मौत की तरफ बढ़ रहे हैं । !!!
मेरे बेटे ने कहा तुम्हें यह पहले ही बताना चाहिए था , चलो कोई बात नहीं अब समय ना गवाते हुए अंकल को अस्पताल में ले जाते हैं , लेकिन शासन के इस समय की कू-व्यवस्था को और इलाज में होने वाले खर्चे को सोच कर जो की उनके पॉकेट से ज्यादा था और जो उनके और अस्पताल की दूरी बहुत बढ़ा रहा था , यह लोग वह खर्चे को सहन नहीं कर सकते थे और आए दिन जो हॉस्पिटल की कुव्यवस्था और ऑक्सीजन ना मिलने का समाचार सुन रहे थे उससे डर भी था कि वह लोग कहां कहां मारे मारे फिरेंगे ........, इसलिए , उनके बेटों ने यह कहा कि चीकू भाई तू सीनियर डॉक्टरों से बात करके कोई दवाई वगैरह की व्यवस्था करो हम लोग ऑक्सीजन लाते हैं पिताजी का इलाज घर पर , करते हैं मेरे बेटे सिद्धांत ने कहा तुम लोग ऑक्सीजन की व्यवस्था करो, मैं सीनियर डॉक्टरों से .....पता करता हूं कि क्या क्या क्या किया जा सकता है।
आनन-फानन में उनके बड़े बेटे ने अपना स्कूटर निकाला और ऑक्सीजन लेने निकल पड़ा, किसी ने फोन से बताया कि ऑक्सीजन मायापुरी में मिलती है किसी ने बताया रजौरी गार्डन मिलती है वह हर जगह भागता रहा हूं और उसके रेट कोई ₹ 10000 ₹ कोई ₹ 15000 ₹ कोई ₹ 17000 इस तरह के रेट लोग मांग रहे थे की कमाई का यह जरिया अंतिम है और जितना भी मांगा जाए कम है, और वक्त उन्हें अपनी जेब खाली करने और इनकी जेबे भरने में मजबूर कर रहा था .......... खैर इस पूरी भागा दौड़ी में और ऐसे बुरे वक्त पर एक एंबुलेंस वाला भाई काम में आया जिसके पास एक सिलेंडर पड़ा हुआ था जिसकी इंसानियत अभी जिंदी थी और इंसानियत ऑक्सीजन पर नहीं थी , नहीं तो वह भी पैसे का सिलेंडर लगा सकता था लेकिन उसने इंसानियत का दामन नहीं छोड़ा और ऑक्सीजन का सिलेंडर दे दिया
लेकिन जब यह ऑक्सीजन मिली तो अमृत लाल जी के शरीर का ऑक्सीजन लेवल बहुत ज्यादा नीचे गिर चुका था ,शरीर के इस गिरे हुए ऑक्सीजन के स्तर को ऑक्सीजन का सिलेंडर उठा नहीं पाया और अंत में अमृत लाल जी को बचाया नहीं जा सका।
अमृत लाल जी के अंतिम सांस लेते ही , वह घर जहां पर एक उम्मीद थी वहां हर तरह से नाउम्मीदी में बदल गई .............................नाउम्मीदी भी कुछ इस तरह की होती है ....कि, जब हम केवल दूसरों को कोसते हैं , वहां का माहौल भी कुछ इसी तरह का ही था, बेटियों ने सरकार को पत्नी ने भगवान को और बेटों ने ऑक्सीजन वालों को कोसना शुरू कर दिया।
चिल्लाहट के बीच में छोटा बेटा रह - रह के , अपने रिश्तेदारों को फोन करता और बताता कि पिताजी नहीं रहे शायद उस तरफ से यही उत्तर आता की लॉक डाउन है और हम लोग नहीं आ पाएंगे और फिर वह खीज जाता और जोर जोर से रोने लगता क्योंकि शायद फोन के उस तरफ जो भी था वह ना आने का ही बता रहा था हो सकता है यह उसका वास्तविक कारण हो या ................. करोना काल में अपने और अपने परिवार को बचाने के लिए कह रहा हो।
तभी मुझे ख्याल आया कि शमशान घाट में लाइन लगानी पड़ती है तो मैं अपने बेटे को लेकर श्मशान घाट की तरफ निकल पड़ा वहां पर पता चला कि दफ्तर 8:00 बजे खुलता है। 8:00 बजे ही आपको पता चलेगा कि आपको कितने बजे बॉडी को लाना है। श्मशान घाट पूरी तरह से वीरान था , हां लेकिन वहां बहुत सारे लोग हमारी तरह ही आ रहे थे और पूछताछ कर रहे थे। कितने बजे बॉडी को लाना है ताकि अंतिम संस्कार किया जा सके............ खैर हमने अंतिम संस्कार की विधि की वस्तुएं खरीद ली और घर पहुंचे इस वक्त आलम यह था कि सब लोग रो-रो के थक चुके थे और सभी भाई-बहन बार-बार गले मिलकर एक दूसरे का साथ देने और अपने मृत पिता की कमी को पूरा करने का , एक दूसरे को ढांढस बंधा रहे थे।
कभी-कभी यह गमगीन होकर मिलकर आपस में बातें कर रहे थे क्योंकि इनको यह समझ में नहीं आ रहा था कि अब करना क्या है , क्योंकि आनुमन ऐसा होता है कि जब इस तरह की वारदात हो जाती है तब परिवार में से कोई बुजुर्ग राय देता है की क्या क्या करना चाहिए लेकिन यहां तो कोई बुजुर्ग नहीं ना और जो था वह आने को तैयार नहीं था की।
उनके बेटों को तभी याद आया कि उनके एक जानकार जिन्हें वह जिन्हें वह ताया जी कहते हैं वह यही सुभाष नगर में रहते हैं उनको लाया जा सकता है, उन्होंने फोन किया लेकिन वाह रे किस्मत , पता चला की ताया जी का देहांत करोना से 3 दिन पहले ही हो चुका था । यह सुनते ही दोबारा से रोने का माहौल , और साथ में एक पारिवारिक उलहाना का दौर शुरू हो गया की हम इतने गैर हो गए , थे कि हमें बुलाया नहीं गया ताया जी के देहांत में,............... मैं मन ही मन सोच रहा था अगर इन्हें यह पता भी चलता कि इन्हें करोना है तो क्या यह लोग जाते या यह भी इसी तरह की बातें करते जैसा इनके साथ इस वक्त हो रही है।
मोहल्ले का हाल और भी ज्यादा बे रुका था पहले लोग किसी के बीमार होने पर बार-बार पूछने लगते थे कि क्या हाल है क्या हाल है लेकिन अब इस मौत के समय मे लोग अपने दरवाजे बंद करके बैठ गए ताकि बाद मे यह बोल सके कि हमें तो पता ही नहीं चला कि क्या हुआ था , लेकिन..... कभी-कभी पराए अपनों से ज्यादा काम में आते हैं उनके बगल जो पड़ोसी हैं वह भी किसी तरह अपना मन बना कर आए और जितना हो सका और जिस तरह से हो सका विदाई की अंतिम तैयारी की गई ................... हमने किसी तरह से बस मृत शरीर को कफन से लपेट दिया और उसके ऊपर जो फूल मिल सके वह सजा दिए, हां यह डर जरूर था की कहीं रस्सी ना टूट जाए और मृत शरीर गिर ना पड़े।
इस महामारी के समय में मैंने यह पाया कि, यह अवसर है जब जिस पिता ने पूरे परिवार का भार पूरी जिंदगी भर उठाया है अब वह अब बहुत भारी लगने लग रहा था, क्योंकि अमूमन मैंने पाया है कि लोग मृत शरीर को घर से निकलते - निकलते , 2 से 4 घंटे हमेशा विलंब में रहते हैं क्योंकि उनको जाते हुए इंसान से लगाव सा रहता है लेकिन यह लगाव करोना कॉल में खत्म हो गया है , अब वह यह भावना रखता है की जितनी जल्दी हो हम अंतिम संस्कार कर दें ताकि बाकी लोग इस बीमारी के चपेट में ना आए ,
अब अपने ही लोग बस यह दुआ कर रहे थे कि किसी तरह श्मशान पहुंचे ताकि देरी न हो और इस बीमारी के कीटाणु घर के सदस्यों को चपेट में ना ले जा सके, अमृत लाल जी की बेसुध विधवा पत्नी........................, उन्हें कोई भी नहीं बता पा रहा था की चूड़ियां तोड़नी है या सिंदूर धोना है वह बस बैठे बैठे अपने जीवन साथी की लाश की दशा या दुर्दशा देख रही थी और उनका मुंह देखने के लिए आतुर थी लेकिन बच्चे थे कि उनको दूर कर रहे थे .......................ईश्वर की त्रास बहुत दर्दनाक थी .
शव -वाहन ,एंबुलेंस वाला प्रार्थना करके तथा यह विश्वास दिला कर बुलाया गया कि 2 किलोमीटर के ₹4000 देंगे , पैसे की ताकत इतनी ज्यादा थी की वह एक जगह जहां उसे जाना था उसकी जगह हमारे पास आ गया क्योंकि उसे उसके मनपसंद पैसा जो मिल रहा था, और हम लोगों ने ..... हम लोगों का मतलब हम चार लोग मैं मेरा पुत्र और उनके दो बेटे, बस इतने ही लोग अंतिम यात्रा में सम्मिलित थे , बाकी लोगों ने खिड़की के झरोखों से अपनी विदाई दे दी थी और शायद मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की थी.. की इनके साथ इस मोहल्ले का करोना भी चला जाए
हम लोग श्मशान घाट तकरीबन 11:00 बजे ही पहुंच चुके थे , हमारा नंबर सातवां था लेकिन वह 12.00 बजे तक आना था श्मशान घाट, लकड़ियों के लिए जब पैसा दिया गया तो मैंने पाया कि वहां एक बोर्ड था जिस पर लिखा था कि ₹800 . लेकिन आज उन लोगों ने ₹3500 की मांग की और बताया कि यह सरकारी रेट है इसके बाद यह भी बताया कि बाकी आप अपनी इच्छा से पंडित जी को दे दीजिएगा क्योंकि वह बहुत खतरा लेकर अंतिम संस्कार करवाते हैं ...................... मुझे समझ में नहीं आया कि ज्यादा पैसा मिलते ही यह खतरा कैसे कम हो जाता है खैर यह पंडित जी जाने और उनके हाथ में आने वाली लक्ष्मी
मैंने बाजारों में लोगों की भीड़ देखी थी लेकिन यहां पर आज मृत शरीरों की भीड़ देख रहा था, मृत शरीरों की संख्या जीवित इंसानों की संख्या से ज्यादा थी, और जो जीवित आदमी थे वह , श्मशान घाट में मृत शरीरों की में भीड़ को देखकर यह पता कर रहे थे कि आसपास के कौन से श्मशान घाट में ज्यादा वेटिंग नहीं है ताकि वह अंतिम क्रिया करने के लिए मृत शरीर को वहां ले जा सके .
है इस वक्त मैं आसपास के लोगों की व्यथा देख रहा था , जो दर्दनाक ही नहीं एक चीत्कार भरी थी ...........एक छोटा सा बच्चा 5 शव लेकर आया था क्योंकि घर में वही एकमात्र बड़ा पुरुष बचा था, एक पति पत्नीअपनी माता का शव लेकर इधर उधर देख रह. देख रहे थे ताकि कोई सहायता मिल सके
क्योंकि क्योंकि शव को उठाएं कैसे मुझसे नहीं देखा , ...... मैंने और मेरे बेटे ने हाथ बढ़ाएं और हमने माता जी का शव उतारा , मुंह पर मास्क लगा था इसलिए वह बोल ना सका लेकिन उसकी आंखों ने दो बूंद आंसू टपका कर शायद हमें धन्यवाद किया था
एक मंजर और भी भयानक था जो लोग काफी समय से दाह संस्कार के लिए इंतजार कर रहे थे और उनका नंबर नहीं आ रहा था या कोई वीआईपी रिफरेंस से लोग उनके आगे चले जा रहे थे , उसे वह अपने इसMAUJUDA दुख के साथ सहन नहीं कर पा रहे थे इसलिए लकड़ी के काउंटर पर मारामारी तक की नौबत आ गई लोग भूल गए कि वह दाह संस्कार करने आए हैं या राशन की दुकान पर राशन खरीदने।
श्मशान घाट में तकरीबन 70 शरीर को जलाने की व्यवस्था थी और सभी के सभी स्थल पर आग दिख रही थी जब आग ठंडी हो जाती तब वहां पर सफाई करके उस स्थल पर दूसरी बॉडी तुरंत रख दी जा रही थी हमारा कहने में तो 12:00 बजे नंबर था लेकिन अनुमान लग रहा था कि 3:00 से 4:00 बजे तक ही नंबर आएगा और तकरीबन 100 लाशें इस इंतजार में खड़ी थी कि हमें अग्नि देकर मुक्ति कर दो .................लेकिन जलने वाली लाशें धीरे धीरे चल रही थी क्योंकि वह पूछ रही थी कि हमारा कसूर क्या है जोकि कि हम अपनी बेटे की शादी कराना , पोते का मुंह देखना , या बच्चे को डॉ बनाने का सपना साथ लेकर जा रहे हैं .......................वह पूछ रही थी क्यों हमें अस्पतालों में या तो जगह नहीं मिली या ऑक्सीजन नहीं मिली .................हम क्या मरने के लायक थे या हमें सरकारी धांधली ने मार डाला है ..............वह पूछ रही थी कि हमारा कसूर क्या है
जब जब हमारा नंबर आया तब हमें पता चला की पैसा कमाने की चाह , इंसानियत से बड़ी होती है क्योंकि वह पंडित जो अंतिम संस्कार कर रहा था वह छह- सात लोगों की लाशें एक साथ लगा कर आधे अधूरे मंत्र बोलकर किसी ने किसी बहाने दूसरी लाश पर पहुंच जाता और जो इंसान उसको ज्यादा पैसा देता उसको ही मुखाग्नि का अवसर देता इन लोगों ने भी इसी तरह उसको ₹2600 दिए ताकि पिताजी को मुखाग्नि दी जा सके............
यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ क्योंकि 2 दिन के बाद माताजी की भी तबीयत खराब हुई और शायद पति की मृत्यु के अफसोस में या उनके द्वारा दी गई कोरोनावायरस के कारण 2 दिन के बाद उनकी भी मृत्यु हो गई ......................................
यह समय शायद करुणामई बातों का नहीं है लेकिन इन बातों का जरूर है कि हमें बुरे वक्त में अपनी इंसानियत को नहीं भूलना चाहिए , क्या मिल गया ऑक्सीजन सिलेंडर जमा करके , दवाइयां जमा करके .................अगर हमने कुछ पैसे कमा भी लिए तो क्या यह पैसे हमारी मेहनत की कमाई का हैं या फिर किसी मजबूर इंसान की सांस की कीमत का है।
अपनी परवाह ना कर, अनजान लोगों की भरपूर मदद की